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बुधवार, 20 नवंबर 2024

नवंबर २०, सोनेट, दोहा, दंडक मुक्तक, सवैया, पैरोडी, नवगीत

सलिल सृजन नवंबर २०
*
एक दोहा
सॉनेट
(लयखण्ड: ११२२१)
भजना राम
मत तू भूल
कर ले काम
बन जा धूल।

प्रभु की रीत
जिसके इष्ट
हरते कष्ट
करते प्रीत।

हरसिंगार
तजता गर्व
वरता सर्व
खुद को हार।

कर विश्वास
प्रभु हैं पास।
•••
एक दोहा
कहते 'her' सिंगार पर, है वह 'his' सिंगार।
हर को मिलता ही नहीं, हरि पाते मनुहार।।
२०.११.२०२४
*
कार्यशाला
दण्डक मुक्तक
छंद - दोहा, पदभार - ४८ मात्रा।
यति - १३-११-१३-११।
*
सब कुछ दिखता है जहाँ, वहाँ कहाँ सौन्दर्य?,
थोडा तो हो आवरण, थोड़ी तो हो ओट
श्वेत-श्याम का समुच्चय ही जग का आधार,
सब कुछ काला देखता, जिसकी पिटती गोट
जोड़-जोड़ बरसों रहे, हलाकान जो लोग,
देख रहे रद्दी हुए पल में सारे नोट
धौंस न माने किसी की, करे लगे जो ठीक
बेच-खरीद न पा रहे, नहीं पा रहे पोट
***
छंद कार्य शाला
नव छंद - अठसल सवैया
पद सूत्र - ८ स + ल
पच्चीस वर्णिक / तैंतीस मात्रिक
पदभार - ११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-१
*
उदाहरण
हम शक्ति वरें / तब ही कर भक्ति / हमें मिलता / प्रभु से वरदान
चुप युक्ति करें / श्रम भी तब मुक्ति / मिले करना / प्रभु का नित ध्यान
गरिमा तब ही / मत हाथ पसार / नहीं जग से / करवा अपमान
विधि ही यश या / धन दे न बिसार / न लालच या /करना अभिमान
***
कार्य शाला
छंद बहर दोउ एक हैं
*
महासंस्कारी जातीय मात्रिक छंद (प्रकार २५८४)
पंक्ति जातीय वार्णिक छंद (प्रकार १०२४)
गण सूत्र - र र य ग
पदभार - २१२ २१२ १२२ २
*
दे भुला वायदा वही नेता
दे भुला कायदा वही जेता
जूझता जो रहा नहीं हारा
है रहा जीतता सदा चेता
नाव पानी बिना नहीं डूबी
घाट नौका कभी नहीं खेता
भाव बाजार ने नहीं बोला
है चुकाता रहा खुदी क्रेता
कौन है जो नहीं रहा यारों?
क्या वही जो रहा सदा देता?
छोड़ता जो नहीं वही पंडा
जो चढ़ावा चढ़ा रहा लेता
कोकिला ने दिए भुला अंडे
काग ही तो रहा उन्हें सेता
***
महासंस्कारी जातीय मात्रिक छंद (प्रकार २५८४)
पंक्ति जातीय वार्णिक छंद (प्रकार १०२४)
गण सूत्र - र र ज ल ग
पदभार - २१२ २१२ १२१ १२
*
हाथ पे हाथ जो बढ़ा रखते
प्यार के फूल भी हसीं खिलते
जो पुकारो जरा कभी दिल से
जान पे खेल के गले मिलते
जो न देखा वही दिखा जलवा
थामते तो न हौसले ढलते
प्यार की आँच में तपे-सुलगे
झूठ जो जानते; नहीं जलते
दावते-हुस्न जो नहीं मिलती
वस्ल के ख्वाब तो नहीं पलते
जीव 'संजीव' हो नहीं सकता
आँख से अश्क जो नहीं बहते
नेह की नर्मदा बही जब भी
मौन पाषाण भी कथा कहते
***
टीप - फ़ारसी छंद शास्त्र के आधार पर उर्दू में कुछ
बंदिशों के साथ गुरु को २ लघु या २ लघु को गुरु किया जाता है।
वज़्न - २१२२ १२१२ २२/११२
अर्कान - फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ैलुन / फ़अलुन
बह्र - बह्रे ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ मक़्तूअ
क़ाफ़िया - ख़ूबसूरत (अत की बंदिश)
रदीफ़ - है
इस धुन पर गीत
१. फिर छिड़ी रात बात फूलों की
२. तेरे दर पे सनम चले आये
३. आप जिनके करीब होते हैं
४. बारहा दिल में इक सवाल आया
५. यूँ ही तुम मुझसे बात करती हो,
६. तुमको देखा तो ये ख़याल आया,
७. मेरी क़िस्मत में तू नहीं शायद
८. आज फिर जीने की तमन्ना है
९. ऐ मेरे दोस्त लौट के आजा
२०-११-२०१९
***
कार्यशाला
दोहे
बीनू भटनागर
*
सुबह सवेरे से लगी, बैंक मे है कतार।
सारे कारज छोड़के,लाये चार हज़ार।
अब हज़ार के नोट का, रहा न कोई मोल
सौ रुपये का नोट भी,हुआ बड़ा अनमोल।
बैंक खुले तो क्या हुआ,ख़त्म हो गया कैश।
खड़े खड़े थकते रहे, आया तब फिर तैश।
दो हज़ार का नोट भी, आये बहुत न काम।
दूध, ब्रैड,सब्ज़ी,फल के,कैसे चुकायें दाम।
मोदी जी ने कौन सा,खेल दिया ये दाव।
निर्धन खड़ा कतार में,धनी डुबाई नाव।
काला धन मत जोड़िये,आये ना वो काम।
आयकर देते रहिये,चैन मिले आराम।
---------------
​१.
लगी​ सुबह से बैंक ​में, ​लंबी बहुत कतार।
सारे कारज छोड़​कर,​ ​लाये चार हज़ार।।
२.
अब हज़ार के नोट का, रहा न कोई मोल
सौ रुपये का नोट भी,​ आज ​हुआ अनमोल।।
३.
बैंक खुले तो क्या हुआ,​ ​ख़त्म हो गया कैश।
खड़े खड़े थक​ गए तो, ​आया ​बेहद तैश।।
४.
दो हज़ार का नोट भी, आये बहुत न काम।
​साग, ​दूध, ​फल, ​ब्रैड के,​ ​कैसे ​दें हम दाम​?
५.
मोदी जी ने कौन सा,​ ​खेल दिया ये ​दाँव।
निर्धन खड़ा कतार में,​ ​धनी ​थकाए पाँव।।
६.
काला धन मत जोड़िये,​ ​आये ​नहीं वह काम।
​चुका ​आयकर ​मस्त हों,​ मिले ​चैन​-आराम।।
२०-११-२०१६
***

नवगीत:
भाग-दौड़ आपा-धापी है...
नहीं किसी को फिक्र किसी की
निष्ठा रही न ख़ास इसी की
प्लेटफॉर्म जैसा समाज है
कब्जेधारी को सुराज है
आती-जाती अवसर ट्रेन
जगह दिलाये धन या ब्रेन
बेचैनी सबमें व्यापी है...
इंजिन-कोच ग्रहों से घूमें
नहीं जमाते जड़ें जमीं में
यायावर-पथभ्रष्ट नहीं हैं
पाते-देते कष्ट नहीं हैं
संग चलो तो मंज़िल पा लो
निंदा करो, प्रशंसा गा लो
बाधा बाजू में चाँपी है...
कोशिश टिकिट कटाकर चलना
बच्चों जैसे नहीं मचलना
जाँचे टिकिट घूम तक़दीर
आरक्षण पाती तदबीर
घाट उतरते हैं सब साथ
लें-दें विदा हिलाकर हाथ
यह धर्मात्मा वह पापी है...
१९-११-२०१४
***
पैरोडी
(बतर्ज़: अजीब दास्तां है ये,
कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...)
*
हवाई दोस्ती है ये,
निभाई जाए किस तरह?
मिलें तो किस तरह मिलें-
मिली नहीं हो जब वज़ह?
हवाई दोस्ती है ये...
*
सवाल इससे कीजिए?
जवाब उससे लीजिए.
नहीं है जिनसे वास्ता-
उन्हीं पे आप रीझिए.
हवाई दोस्ती है ये...
*
जमीं से आसमां मिले,
कली बिना ही गुल खिले.
न जिसका अंत है कहीं-
शुरू हुए हैं सिलसिले.
हवाई दोस्ती है ये...
*
दुआ-सलाम कीजिए,
अनाम नाम लीजिए.
न पाइए न खोइए-
'सलिल' न न ख्वाब देखिए.
हवाई दोस्ती है ये...
१९-११-२०१२
***
एक दोहा
ऋषिवर-तरुवर का मिलन, नेह नर्मदा-घाट.
हुआ जबलपुर धन्य लख, सीधी-सच्ची बाट..
१७.११.२००९

मंगलवार, 19 नवंबर 2024

नवंबर १९, हरसिंगार, कहमुकरी, काव्य-ताल, हाड़ौती, सरस्वती, पूर्णिका, लघुकथा, नवगीत,

सलिल सृजन नवंबर १९
*
हरसिंगार
कहमुकरी
सुबह सवेरे घर दे त्याग
धरती से पाले अनुराग
भगवन के मन को अति भाए
भक्तों को भी खूब लुभाए।
समझ गई मैं तुहिना-हार
अरी! नहीं, है हरसिंगार।।
सोरठा
सुंदर हरसिंगार, रवि-भू का वंदन करे।
तज नश्वर संसार, शाख त्याग संदेश दे।।
दोहा
करते हरि सिंगार ले, मनहर हर सिंगार।
भस्म मलें हर मौन रह, जटा-जूट स्वीकार।।
हर्षित हर हर हर विपद, देव करें मनुहार।
केहरि के हरि हार दिल, हेरें हरसिंगार।।
शोभा हरि सिंगार की, निरखे हरसिंगार।
सलिल सर्प शशि भस्भ से, अद्भुत हर सिंगार।
•••
पूर्णिका  
हो रहा है जिंदगी का धूप में सफर  
छाँह बिना ढा रहा है आसमां कहर 

लिख रहा गजल वो सरे-आम सिर उठा 
जानता लेकिन नहीं क्या रुक्न; क्या बहर

गाँव बिन मासूमियत बेमौत मर रहा 
हाय रे! विकास अब सुनसान है शहर 

क्यों रेत रहे रेत खोद नदी का गला
घोल फिज़ाओं में रहे रोज हम जहर 

वायदों का; कायदों का मोल है कहाँ?
फ़ायदों की होड़ में बर्बाद है सहर 

दे रही चेतावनी कुदरत हमें मगर 
चेतते हम ही नहीं; है सामने दहर 

काटे न कटे वक्त परेशान हर बशर 
हो रहा बरसों-बरस सा आजकल पहर     
१९.११.२०१४   
***
एक दोहा
*
केवट करता चाकरी, शुष्क जाह्नवी धार
ठिठक खड़े सिय राम जी, लछमन चकित निहार
*
शब्द ही करते रहे हैं, नित्य मुझसे खेल.
मैं बिचारा हूँ अकेला, रहा उनको झेल.
१९.११.२०१९
*
विमर्श
काव्य और ताल
जिसको ताल का ज्ञान नहीं वह कभी गेय काव्य नहीं लिख सकता है.....
संगीत में सिर्फ मात्रा से काम पूरा नहीं होता है, क्यों की मात्राएं केवल समय की गति बताती हैं। मात्राओं को नापने के लिए ताल बनाए गए हैं........
नोट......
संगीत के दो स्तंभ हैं, स्वर और लय........
संगीत में स्वर और लय का होना बहुत जरूरी है।
लय से मात्रा और मात्रा से ताल बने हैं।
हम ऐसे समझ सकते हैं की घड़ी का सेकंड एक नियमित गति से आगे बढ़ता है जिसे लय कहते हैं। लय को अगर किसी नियमित संख्या में बांट दिया जाए तो उसे मात्रा कहते हैं। अब इस नियमित मात्रा को अगर कोई नाम दे दिया जाए तो उसे ताल कहते हैं।
ताल कई प्रकार के हैं जैसे त्रिताल या तीन ताल, झपताल, एक ताल, रूपक, चार ताल, दादरा, कहरवा इत्यादि। गीत के प्रकारों के आधार पर ताल की रचना हुई है। जैसे; खयाल के लिए तीन ताल, एकताल, झप ताल, तिलवारा इत्यादि। ठुमरी के लिए दीपचंडी और जतताल, ध्रुपद के लिए चार ताल, शुल ताल, ब्रह्म ताल और धमार (होरी) के लिए धमार ताल बनाया गया है.............
जिस प्रकार दोस्तों समय गतिमान है. इसकी गति को हम टुकडो में बाँट देते है. जैसे वर्ष, महीने हफ्ते इत्यादि. कुछ गतियां तय टुकडो में बांटी गयी है. पृथ्वी का घूमना चौबीस घंटे में ही होता है. एक घंटे को ६० बराबर टुकडो में बांटा गया है. न कम न ज्यादा. ठीक इसी तरह संगीत में समय को बराबर मात्राओं ,में बांटने पर ताल बनती है. ताल बार बार दुहराई जाती है और हर बार अपने एंटी टुकड़े को पूरा कर समय के जिस टुकड़े से शुरू हुई थी उसी पर आकर मिलती है. हर भाग को मात्र कहते है. संगीत में समय को मात्र से मापा जाता है. तीन ताल में समय या लय के १६ भाग या मात्राए होती है. हर भाग को एक नाम देते है जिसे बोल कहते है. इन्ही बोलों को जब वाद्य यंत्र पर बजाया जाता है उन्हें ठेका कहते है. ताल की मात्राओ को विभिन्न भागों में बांटा जाता है जिससे गाने या बजाने वाले को यह मालूम रहे की वह कौन सी मात्रा है और कितनी मात्राओ के बाद वह सम पर पहुचेगा. तालों में बोलों के छंद के हिसाब से उनके विभाग किये गए है.
हिन्दुस्तानी संगीत में एक बहुत ही प्रचलित ताल तीन ताल का उदाहरण देखते है
धा धीं धिं धा | धा धीं धिं धा | धा तीं तिं ता | ता धिं धीं धा |
१६वीं मात्रा के बाद चक्र पूरा हो जाता है, लेकिन लय तभी बनती है जब १६वीं मात्रा के बाद फिर से पहली मात्रा से नयी शुरुवात हो. जहा से चक्र दुबारा शुरू होता है उसे सम कहा जाता है. इस तरह यह चक्र चलता रहता है. ताल में खाली और भरी दो शब्द महत्वपूर्ण है. ताल के उस भाग को भरी कहते है जिस पर बोल के हिसाब से अधिक बल देना है. भरी पर ताली दी जाती है. और जिसपे ताली नहीं दी जाती है उसे खाली कहते है. इससे गायक या वादक को सम के आने का आभास हो जाता है. ताल के अन्य विभागों को संख्या से बताया जाता है. जिसमे खाली के लिए शून्य लिखा जाता है. ताल लय को नियंत्रण में रखती है.
हिन्दुस्तानी संगीत में कई तालें प्रचलित है जैसे
1..
दादरा (६)-
धा धी न| धा ती ना |,
2..
रूपक(७)-
ती-ती-ना |धी-ना |धी ना|,
3...
तीन ताल(१६)-
धा धीं धिं धा | धा धीं धिं धा | धा तीं तिं ता | ता धिं धीं धा |
4...
झपताल (१०)-
धी-ना| धी-धी-ना |,ती-ना |धी-धी-ना|
5..
कहरवा (८)-
धा-गे-ना-ति|न-क-धी-न |,
6..
एक ताल(१२)-
धिं धिं धागे तिरकट |तू-ना-क-त्ता |धागे-तिरकट | धिं-ना |
7.
चौताल(१२).-
धा धा धिं ता| किट-धा-धिं-ता| तिट-कट | गदि-गन |.......
***
कुण्डलिया
मन मनमानी करे यदि, कस संकल्प नकेल
मन को वश में कीजिए, खेल-खिलाएँ खेल
खेल-खिलाएँ खेल, मेल बेमेल न करिए
व्यर्थ न भरिए तेल, वर्तिका पहले धरिए
तभी जलेगा दीप, भरेगा तम भी पानी
अगर न कसी नकेल, करेगा मन मनमानी
***
मुक्तिका
तेरे शह्र में
*
खेत तो इसने जलाए साँस उसकी रुक रही
हो रहे हैं लोग सब बीमार तेरे शह्र में।।
लिख रहे हो इबारत तुम कह रहे हो प्रगति की
भटकती है जवानी बेकार तेरे शह्र में।।
आइने में आँख के आ देख ले तू चेहरा
करेंगे दीदार हम सरकार तेरे शह्र में
डर रहे साये से जो दुम दबाकर थे फिर रहे
ग़ज़ब वे ही आज हैं सरदार तेरे शह्र में।।
स्याह की है वाह; तो परवाह क्यों कर हो तुम्हें।
सफेदी भी स्याह बरखुरदार तेरे शह्र में।।
१९.११.२०१९
***
हाइकु
*
माँ सरस्वती!
अमल-विमल मति
दे वरदान।
*
हंसवाहिनी!
कर भव से पार
वीणावादिनी।
*
श्वेत वसना !
मन मराल कर
कालिमा हर।
*
ध्वनि विधात्री!
स्वर-सरगम दे
गम हर ले।
*
हे मनोरमा!
रह सदय सदा
अभयप्रदा।
*
मैया! अंकित
छवि मन पर हो
दैवी वंदित।
*
शब्द-साधना
सत-शिव-सुंदर
पा अर्चित हो।
*
नित्य विराजें
मन-मंदिर संग
रमा-उमा के।
*
चित्र गुप्त है
सुर-सरगम का
नाद सुना दे।
*
दो वरदानी
अक्षर शिल्प कला
मातु भवानी!
*
सत-चित रूपा!
विहँस दिखला दे
रम्य रूप छवि।
१८-११-२०१९
***
हाड़ौती
सरस्वती वंदना
*
जागण दै मत सुला सरसती
अक्कल दै मत रुला सरसती
बावन आखर घणां काम का
पढ़बो-बढ़बो सिखा सरसती
ज्यूँ दीपक; त्यूँ लड़ूँ तिमिर सूं
हिम्मत बाती जला सरसती
लीक पुराणी डूँगर चढ़बो
कलम-हथौड़ी दिला सरसती
आयो हूँ मैं मनख जूण में
लख चौरासी भुला सरसती
नांव सुमरबो घणूं कठण छै
चित्त न भटका, लगा सरसती
जीवण-सलिला लांबी-चौड़ी
धीरां-धीरां तिरा सरसती
१८-११-२०१९
***
काव्य वार्ता
नाम से, काम से प्यार कीजै सदा
प्यार बिन जिंदगी-बंदगी कब हुई? -संजीव
*
बन्दगी कब हुई प्यार बिन जिंदगी
दिल्लगी बन गई आज दिल की लगी
रंग तितली के जब रँग गयीं बेटियाँ
जा छुपी शर्म से आड़ में सादगी -मिथलेश
*
छोड़ घर मंडियों में गयी सादगी
भेड़िये मिल गए तो सिसकने लगी
याद कर शक्ति निज जब लगी जूझने
भीड़ तब दुम दबाकर खिसकने लगी -संजीव
***
दोहा दुनिया
ज्योति बिना चलता नहीं, कभी किसी का काम
प्राण-ज्योति बिन शिव हुए, शव फिर काम तमाम
*
बहिर्ज्योति जग दिखाती, ठोकर लगे न एक
अंतर्ज्योति जगे 'सलिल', मिलता बुद्धि-विवेक
*
आत्मज्योति जगती अगर, मिल जाते परमात्म
दीप-ज्योति तम-नाशकर, करे प्रकाशित आत्म
*
फूटे तेरे भाग यदि, हुई ज्योति नाराज
हो प्रसन्न तो समझ ले, 'सलिल' मिल गया राज
*
स्वर्णप्रभा सी ज्योति में, रहे रमा का वास
श्वेत-शारदा, श्याम में काली करें प्रवास
*
रक्त-नयन हों ज्योति के, तो हो क्रांति-विनाश
लपलप करती जिव्हा से, काटे भव के पाश
*
ज्योति कल्पना-प्रेरणा, कांता, सखी समान
भगिनी, जननी, सुता भी, आखिर मिले मसान
*
नमन ज्योति को कीजिए, ज्योतित हो दिन-रात
नमन ज्योति से लीजिए, संध्या और प्रभात
*
कहें किस समय था नहीं, दिव्य ज्योति का राज?
शामत उसकी ज्योति से, होता जो नाराज
*
शब्द-सुमन शत गूंथिए, ले भावों की डोर
गीत माल तब ही बने, जब जुड़ जाएँ छोर
***
एक पद-
अभी न दिन उठने के आये
चार लोग जुट पायें देनें कंधा तब उठना है
तब तक शब्द-सुमन शारद-पग में नित ही धरना है
मिले प्रेरणा करूँ कल्पना ज्योति तिमिर सब हर ले
मन मिथिलेश कभी हो पाए, सिया सुता बन वर ले
कांता हो कैकेयी सरीखी रण में प्राण बचाए
अपयश सहकर भी माया से मुक्त प्राण करवाए
श्वास-श्वास जय शब्द ब्रम्ह की हिंदी में गुंजाये
अभी न दिन उठने के आये
***
अनुजवत योगराज प्रभाकर को जन्मदिवस पर शुभकामनाएँ
प्रिय बन्धु!
वन्दे मातरम
योगी सी दृढ़ता रहे, जीवन का पाथेय
गत्यात्मकता छू क्षितिज, लाये निकट विधेय
राग-विराग द्विनेत्र हों, कर्म-धर्म दो हाथ
जगवाणी हिंदी रखे, जग में उन्नत माथ
प्रगति-पन्थ पर धर चरण, पायें कीर्ति अनंत
भास्कर सम ज्योतित रहें सौ वर्षों श्रीमंत
काया-माया सदा हों, छाया बनकर संग
रग-रग में उत्सव रहे, नूतन 'सलिल' उमंग
(आद्यक्षरी दोहा छंद)
१९.११.२०१६
***
लघुकथा
दस्तूर
*
अच्छे अच्छों का दीवाला निकालकर निकल गई दीपावली और आ गयी दूज...
सकल सृष्टि के कर्म देवता, पाप-पुण्य नियामक निराकार परात्पर परमब्रम्ह चित्रगुप्त जी और कलम का पूजन कर ध्यान लगा तो मनस-चक्षुओं ने देखा अद्भुत दृश्य.
निराकार अनहद नाद... ध्वनि के वर्तुल... अनादि-अनंत-असंख्य. वर्तुलों का आकर्षण-विकर्षण... घोर नाद से कण का निर्माण... निराकार का क्रमशः सृष्टि के प्रागट्य, पालन और नाश हेतु अपनी शक्तियों को तीन अदृश्य कायाओं में स्थित करना...
महाकाल के कराल पाश में जाते-आते जीवों की अनंत असंख्य संख्या ने त्रिदेवों और त्रिदेवियों की नाम में दम कर दिया. सब निराकार के ध्यान में लीन हुए तो हर चित्त में गुप्त प्रभु की वाणी आकाश से गुंजित हुई:
__ "इस समस्या के कारण और निवारण तुम तीनों ही हो. अपनी पूजा, अर्चना, वंदना, प्रार्थना से रीझकर तुम ही वरदान देते हो औरउनका दुरूपयोग होने पर परेशान होते हो. करुणासागर बनने के चक्कर में तुम निष्पक्ष, निर्मम तथा तटस्थ होना बिसर गये हो."
-- तीनों ने सोच:' बुरे फँसे, क्या करें कि परमपिता से डांट पड़ना बंद हो?'.
एक ने प्रारंभ कर दिया परमपिता का पूजन, दूसरे ने उच्च स्वर में स्तुति गायन तथा तीसरे ने प्रसाद अर्पण करना.
विवश होकर परमपिता को धारण करना पड़ा मौन.
तीनों ने विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका पर कब्जा किया और भक्तों पर करुणा करने के लिए बढ़ दिया दस्तूर।
***
लघुकथा
भाव ही भगवान
*
एक वृद्ध के मन में अंतिम समय में नर्मदा-स्नान की चाह हुई. लोगों ने बता दिया कि नर्मदा जी अमुक दिशा में कोसों दूर बहती हैं, तुम नहीं जा पाओगी. वृद्धा न मानी... भगवान् का नाम लेकर चल पड़ी...कई दिनों के बाद दिखी उसे एक नदी... उसने 'नरमदा तो ऐसी मिलीं रे जैसे मिल गै मताई औ' बाप रे' गाते हुए परम संतोष से डुबकी लगाई. कुछ दिन बाद साधुओं का एक दल आया... शिष्यों ने वृद्धा की खिल्ली उड़ाते हुए बताया कि यह तो नाला है. नर्मदा जी तो दूर हैं हम वहाँ से नहाकर आ रहे हैं. वृद्धा बहुत उदास हुई... बात गुरु जी तक पहुँची. गुरु जी ने सब कुछ जानने के बाद, वृद्धा के चरण स्पर्श कर कहा : 'जिसने भाव के साथ इतने दिन नर्मदा जी में नहाया उसके लिए मैया यहाँ न आ सकें इतनी निर्बल नहीं हैं. 'कंकर-कंकर में शंकर', 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' का सत्य भी ऐसा ही है. 'भाव का भूखा है भगवान' जैसी लोकोक्ति इसी सत्य की स्वीकृति है. जिसने इस सत्य को गह लिया उसके लिये 'हर दिन होली, रात दिवाली' हो जाती है. मैया तुम्हें नर्मदा-स्नान का पुण्य है लेकिन जो नर्मदा जी तक जाकर भी भाव का अभाव मिटा नहीं पाया उसे नर्मदा-स्नान का पुण्य नहीं है. मैया! तुम कहीं मत जाओ, माँ नर्मदा वहीं हैं जहाँ तुम हो. भाव ही भगवान है''
१९.११.२०१५
***
नवगीत:
जितने चढ़े
उतरते उतने
कौन बताये
कब, क्यों कितने?
ये समीप वे बहुत दूर से
कुछ हैं गम, कुछ लगे नूर से
चुप आँसू, मुस्कान निहारो
कुछ दूरी से, कुछ शऊर से
नज़र एकटक
पाये न टिकने
सारी दुनिया सिर्फ मुसाफिर
किसको कहिये यहाँ महाज़िर
छीन-झपट, कुछ उठा-पटक है
कुछ आते-जाते हैं फिर-फिर
हैं खुरदुरे हाथ
कुछ चिकने
चिंता-चर्चा-देश-धरम की
सोच न किंचित आप-करम की
दिशा दिखाते सब दुनिया को
बर्थ तभी जब जेब गरम की
लो खरीद सब
आया बिकने
११-११-२०१४
कानपुर रेलवे प्लेटफॉर्म
सवेरे ४ बजे
***
स्वागत गीत:
शुभ नवगीत महोत्सव, आओ!
शब्दब्रम्ह-हरि आराधन हो
सत-शिव-सुंदर का वाचन हो
कालिंदी-गोमती मिलाओ
नेह नर्मदा नवल बहाओ
'मावस को पूर्णिमा बनाओ
शब्दचित्र-अंकन-गायन हो
सत-चित-आनंद पारायण हो
निर्मल व्योम ओम मुस्काओ
पंकज रमण विवेक जगाओ
संजीवित अवनीश सजाओ
रस, लय, भाव, कथ्य शुचि स्वागत
पवन रवीन्द्र आस्तिक आगत
श्रुति सौरभ पंकज बिखराओ
हो श्रीकांत निनाद गुँजाओ
रोहित ब्रज- ब्रजेश दिखलाओ
भाषा में कुछ टटकापन हो
रंगों में कुछ चटकापन हो
सीमा अमित सुवर्णा शोभित
सिंह धनंजय वीनस रोहित
हो प्रवीण मन-राम रमाओ
लख नऊ दृष्टि हुई पौबारा
लखनऊ में गूँजे जयकारा
वाग्नेर-संध्या हर्षाओ
हँस वृजेन्द्र सौम्या नभ-छाओ
रसादित्य जगदीश बसाओ
नऊ = नौ = नव
१०-११-२०१४
- १२६/७ आयकर कॉलोनी
विनायकपुर, कानपुर
समयाभाव के कारण पढ़ा नहीं गया
***
***
नवगीत:
बीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल
हरसिँगारी छवि तुम्हारी
प्रात किरणों ने सँवारी
भुवन भास्कर का दरस कर
उषा पर छाई खुमारी
मुँडेरे से झाँकते, छवि आँकते
रीतते ही नहीं है
ये प्रतीक्षा के पल
अमलतासी मुस्कराहट
प्रभाती सी चहचहाहट
बजे कुण्डी घटियों सी
करे पछुआ सनसनाहट
नत नयन कुछ माँगते, अनुरागते
जीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल
शंखध्वनिमय प्रार्थनाएँ
शुभ मनाती वन्दनाएँ
ऋचा सी मनुहार गुंजित
सफल होती साधनाएँ
पलाशों से दहकते, चुप-चहकते
सीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल
१९.११.२०१४
***
छंद सलिला
आर्द्रा छंद
*
द्विपदीय, चतुश्चरणी, मात्रिक आर्द्रा छंद के दोनों पदों पदों में समान २२-२२ वर्ण तथा ३५-३५ मात्राएँ होती हैं. प्रथम पद के २ चरण उपेन्द्र वज्रा-इंद्र वज्रा (जगण तगण तगण २ गुरु-तगण तगण जगण २ गुरु = १७ + १८ = ३५ मात्राएँ) तथा द्वितीय पद के २ चरण इंद्र वज्रा-उपेन्द्र वज्रा (तगण तगण जगण २ गुरु-जगण तगण तगण २ गुरु = १८ + १७ = ३५ मात्राएँ) छंदों के सम्मिलन से बनते हैं.
उपेन्द्र वज्रा फिर इंद्र वज्रा, प्रथम पंक्ति में रखें सजाकर
द्वितीय पद में सह इंद्र वज्रा, उपेन्द्र वज्रा कहे हँसाकर
उदाहरण:
१. कहें सदा ही सच ज़िंदगी में, पूजा यही है प्रभु जी! हमारी
रहें हमेशा रत बंदगी में, हे भारती माँ! हम भी तुम्हारी
२. बसंत फूलों कलियों बगीचों, में झूम नाचा महका सवेरा
सुवास फ़ैली वधु ज्यों नवेली, बोले अबोले- बस में चितेरा
३. स्वराज पाया अब भारतीयों, सुराज पाने बलिदान दोगे?
पालो निभाओ नित नेह-नाते, पड़ोसियों से निज भूमि लोगे?
कहो करोगे मिल देश-सेवा, सियासतों से मिल पार होगे?
नेता न चाहें फिर भी दलों में, सुधार लाने फटकार दोगे?
१९.११.२०१३
***

सोमवार, 18 नवंबर 2024

श्याम निर्मम

लेख
नवगीत में सरारात्मकता के पक्षधर डॉ. श्याम निर्मम
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
नवगीत के पारंपरिक तत्व 

            नवगीत साहित्य की वह विधा है जिसमें नवता, गीतात्मकता और छाँदसिकता के निकष पर खरा उतरना ही कसौटी है। विद्या नंदन राजीव के अनुसार- ''हम उस गीत को नवगीत कहेंगे जो परंपरागत भावबोध से अलग, नवीन भावबोध तथा शिल्प द्वारा प्रस्तुत किया गया हो।१ डॉ. कृष्ण कुमार शर्मा के मत में ''नवगीत और पारंपरिक गीत में एक अंतर उसकी गेयता को लेकर है। नवगीत गाया न जाकर भी गीत है। नवगीत की कथन शैली में ही उसका गीतत्व है।२ नवगीत के पुरोधा, नवगीत दशक १-२-३ के संपादक डॉ. शंभुनाथ सिंह की मान्यता है- ''जितनी आसानी से कोई समकालीन कवि बन सकता है, उतनी आसानी से नवगीतकार नहीं। नवगीत में छंद लिखना जरूरी है, छंद लिखना आसान नहीं है। छंद नहीं होगा तो वह नवगीत होगा ही नहीं।३  

नवता कहाँ, कितनी और कैसी? नवता का निकष क्या हो? 

            डॉ. हरिवंश राय बच्चन मानते हैं  ''अपने युग की आवश्यकतानुरूप जब गीत बदलता है तो हम उसे नवगीत कह सकते हैं। .... गीत की कुछ रूढ़ियाँ हो जाती हैं, लीक बन जाती है और कवि उस लीक से नहीं हटते हैं तो पारंपरिक गीतकार कहा जाता है। इनसे हटकर जब कवि आवश्यकताओं के अनुरूप नए काव्य को नए बिंबों और नए प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करते हैं तो उसे नवगीतकार कहते हैं। यही पारंपरिक गीत और नवगीत की विभाजक रेखा है।४ 

            गीतात्मकता अनिवार्य है या स्वैच्छिक? इस बिंदु पर विमर्श करते समय यह स्पष्ट होना चाहिए कि गीत होना नवगीत होने की पहली शर्त है। यह भी कि हर नवगीत मूलत: गीत होता है जबकि हर गीत नवगीत नहीं होता। 

            छाँदसिकता के सिलसिले में निराला की अभिव्यक्ति 'नव गति, नव लय, ताल-छंद नव' को मानक मानें तो  क्या हर बार नवगीत में नया छंद लाना होगा? क्या किसी नवगीत में शेष सभी तत्व होते हुए भी उसे केवल इसीलिए अमान्य किया जाएगा कि उसमें पारंपरिक छंद है? क्या एक से अधिक पारंपरिक छंदों का मिश्रण नया छंद मान्य होगा? ख्यात नवगीतकार श्याम निर्मम नवगीत में छंद की अपरिहार्यता प्रतिपादित करते हुए कहते हैं- 
छंदहीन दग्ध अग्नि-लपटों से / झुलसा गीतों का छायानट, 
छंदों का एक बीज तुझको भी बोन है / लेकिन तू बेखबर 

            उक्त के अतिरिक्त नवगीत में समय की भी भूमिका है। किसी नवगीत की नवता समय सापेक्ष है या सनातन? क्या ७-८ दशक पहले रचे गए नवगीत आज भी नवगीत हैं? क्या नव नवगीतों को आदर्श मानकर आज लिखा गया नवगीत नवता के निकष पर खरा होगा। रचनाकार के नजरिए से नवता वह है जो उसने पहले नहीं किया/लिखा। समीक्षक की दृष्टि में नवता वह है जो किसी भी अन्य रचना में पहले व्यक्त न हुई हो।

            नवगीत में सकारात्मकता और नकारात्मकता तथा नवगीत से समाज में सकारात्मकता और नकारात्मकता का निकष समाज शास्त्रियों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। साहित्य समाज का दर्पण नहीं हो सकता, दर्पण वस्तु को ज्यों का त्यों किंतु दाहिने को वाम और वाम को दाहिना दिखाता है। साहित्य था, है और होगा/होना चाहिए तीनों का समावेश करता है। 

            उक्त विमर्श का आशय यह है कि नवगीत संबंधी सभी और प्रत्येक मान्यता पर मत-मतांतर थे, हैं और रहेंगे। हिंदी नवगीत के कालजयी हस्ताक्षरों में से एक डॉ. श्याम निर्मम की एक मात्र कृति 'हाशिये पर हम' पर चर्चा उक्त बिंदुओं के प्रकाश में आवश्यक इसलिए भी है कि असीम शुक्ल के अनुसार ''श्याम ने गीत नहीं रचे वरन गीतों ने श्याम को रचा है।'' अपनी बात को स्पष्ट करते हुए असीम कहते हैं- 'जब कोई रचनाकार अपने आत्म रूप में रचनाधर्मी होता है, तब निश्चित ही कहा जा सकता है कि रचना रचनाकार नहीं रचता वरन रचना रचनाकार को रचती है।' चेतना अगणित वीथियों से होकर गुजरती है। सभी वीथियों में चाहे वे कैसी हों श्याम की रचनाएँ हर मोड़ पर प्रासंगिक प्रतीत होती हैं।''५ 

            नवगीतकार श्याम निर्मम पारंपरिक गीत और कविता के पथ पर पग रखते हुए नवगीत की रह पर मुड़े। उनके गीतों/नवगीतों का वैशिष्ट्य लोक के लिए सहज ग्राह्य बोधात्मकता व रागात्मकता है। प्रगतिशील कविता प्रणीत नव बिंब बोध और महानगरीय संवेदनात्मक संत्रास को श्याम ने ग्राम्य सहजता और सरसता में लोकभाषिक टटकापन सम्मिश्रित कर श्याम ने नवगीतों को नवाकर्षण प्रदान किया। श्याम ने महानगरीय जीवन शैली के उत्तरोत्तर बढ़ते प्रभाव को अनुभव कर नवगीतीय संवेदना द्वारा उपचारित करने की प्रभावी कोशिश की। इस कोशिश की कशिश श्याम के नवगीतों को औरों से भिन्न बनाती है। 

            श्याम अपने कथ्य को किसी आवरण में छिपाते नहीं। वे पूरी साफ गोई के साथ कहते हैं- 
स्वर्णिम भविष्य को ये / दीमक सा चाट रहे 
इनके विष बुझे शस्त्र / अपनों को काट रहे 
अंधी आँखों को ये / दिखलाते हैं सपने 
हैं इनके हाथों में / सुरमई सलाइयाँ   

            सत्य उद्घाटित करने पर शिव हों, सुकरात या मीरा विषपान ही नियति रही है। श्याम यह जानते हुए भी उसे पथ को अंगीकार कर कहते हैं- 
शिव तो करते आए / आचमन जहर का,  
ये गरल-पुरुष पीते / हर्ष हर प्रहर का 
कागा के वंशज पर हँस से सलोने।
ताड़ से हुए ऊँचे / पीते हैं ताड़ी 
दु:शासन बन खींचें / द्रुपदा की साड़ी 
दुर्योधन तात हुए / कृष्ण हुए छौने 

                पौराणिक चरित्रों को उनकी मिथकीय विशेषताओं के साथ श्याम के नवगीत इस तरह बिम्बित करते हैं कि अन्य किसी अन्य के लिए वैसे अभिव्यक्त करना संभव नहीं होता। 'द्रौपदी' के लिए 'द्रुपदा' शब्द उनका अपना मौलिक प्रयोग है। 

                धृतराष्ट्र और गांधारी नवगीतकारों के प्रिय पात्र हैं। श्याम इन दोनों पात्रों के माध्यम से युगीन वैषम्य को उद्घाटित करते हुए सामाजिक और पारिवारिक परिप्रेक्ष्य से जोड़ते हैं- 
राह के पत्थर हुए / संबंध अपने 
हो गई है जिंदगी / अभिशप्त गांधारी 
साथ में- / धृतराष्ट्र स यह मौन 
फिर अंधे सफर की / एक तैयारी 

            सामान्यत: यह भ्रामक धारणा प्रचलित है की नवगीतों मे प्रेम, शृंगार आदि वर्जित है। स्व. उमाकांत मालवीय ने नवगीतों में रूमानियत की पैरवी ही नहीं की उसे आवश्यक भी बताया।५ नवगीत के शिखर हस्ताक्षर स्व. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' इससे सहमत होते हुए भी उसे अपवाद रूप में इस शर्त के साथ स्वीकारते हैं कि वह ललित, मानव संवेगोच्छित तो हो किंतु उसमें लिजलिजी भावुकता न आए पाए।६ इसके बाद भी पश्चातवर्ती नवगीतकार प्राय: 'रोमान' को नवगीत के लिए अस्पृश्य ही मानते रहे हैं। श्याम ने अपने समय के अन्य नवगीतकारों से भिन्न नीति अपनाते हुए अपने नवगीतों को यथावश्यक रोमानियत से अलंकृत करने में संकोच नहीं किया। यह रोमानियत पारिवारिक संबंधों में आवृत्त होकर ग्रंथारंभ में अभिव्यक्त हुई है। रचनाकार ने कृति अपने जीवन में रोमांस को पूर्णता देनेवाली अपनी जीवन संगिनी को समर्पित की है। प्रथम गीत 'माँ' में कवि कहता है- 
माँ का आँचल / हर सुख-दुख में / साया होता है 
गहरे घावों पर / मरहम का / फाहा होता है 
संकट के क्षण / याद करे जो / 'हरि' ही धाये हैं 
सुख देने को / दुख के क्षण भी / माँ ने गाये है। 

            अगले गीत में 'पिता' को सुमिरते हुए कवि सपने देखता है- 
'पिता' तुम- / वृक्ष छायादार 
धूप से हमको बचाकर सह रहे खुद भार। 
गोद... / डाली की तरह / झूला झुलाती है, 
और सुनी आँख भी सपने दिखाती है। 
 
            नवगीत में धर्म और धार्मिक आस्था को श्याम निर्मम ने वर्ज्य नहीं माना। वे नवगीत में अपनी आस्था और विरासत दोनों का समयक सम्मिश्रण करते हुए लिखते हैं- 
मन-अयोध्या / और तन काशी हुआ,
कौन जाने / कौन सा पल राम हो जाये।  
साँस में / भरने लगी है / बाँसुरी की तान,
सब दिशाएँ / गा रही हैं / गूँजते हैं गान। 
आरती सजने लगी / दीपक बले हैं,
कौन जाने / कौन सा पल / 'शाम' हो जाये। 
एक खुशबू / चंदनी- / बहने लगी भीतर 
देह को / पर लग गये- / ऊँचा उड़ा जी भर। 
यह सफर ही सत्य-शिव-सुंदर हुआ, 
कौन जाने / कौन सा पल / 'धाम' हो जाये। 

            श्याम ने अपने नवगीतों में पुरुषार्थ और कर्म को समुचित महत्व दिया है। वे केवल विसंगतियों का महिमा मंडन नहीं करते अपितु 'प्यार के नाम अपनी भी सौगात हो', 'मैं सफर के बाद / मंजिल खोजता हूँ' जैसी अभिव्यक्तियों के माध्यम से नवगीत में आशावादिता का अंकुर रोपते हैं। एक उदाहरण देखें- 
जब अकेला / मैं नदी तट पर / अकेला बैठता हूँ 
तब नदी के बोल / मन में फूटते हैं। 
भूल कर सब / तैरता हूँ / मैं लहर के साथ में  
भीड़ में छूटा अचानक / हाथ जैसे / आ गया हो हाथ में। 

            श्याम के नवगीतों में 'पौरुष' को प्रतिष्ठित और पारंपरिक जीवन मूल्यों की जयकार होते हुए देखना एक और सुखद अनुभूति है। आज के नवगीतकारों को यह समझना होगा कि साम्यवादी वर्ग वैषम्य और संघर्ष की वैचारिक कारा में बंदी तथा नवगीत को 'रुदाली' (शोकगीत) बनाने के लिए प्रतिबद्ध कलमों ने नवगीत ही नहीं हिंदी का भी अहित ही किया है। गत ७ दशकों के हिंदी साहित्य में जिजीविषा और आस्था के स्वर दिन-ब-दिन घटते-घटते मिटने की स्थिति में आ गए हैं। साहित्य समाज का प्रेरणा स्रोत भी होता है। उपन्यास, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, नवगीत, गजल आदि विधाओं में सामाजिक टकराव, बिखराव, वैषम्य और नैराश्य के वर्चस्व ने साहित्य के माध्यम से समाज में अनास्था, अविश्वास, असहयोग और हताशा के वन बो दिए हैं। फलत:, सामाजिक समरसता और संबंध मरने की कगार पर हैं। मनुष्य अपने साये से भी डरने लगा है। श्याम को संभवत: इस विषम स्थिति का पूर्वाभास हो गया था इसलिए उन्होंने अपने नवगीतों में सत्य-शिव-सुंदर को विशेष स्थान दिया- 
सत्य जिनकी चेतना में है / झूठ उनके पाँव पढ़ता है। 
कुछ खरोंचे वक्ष पर सहकर / वह नया इतिहास गढ़ता है। 
और 
सामने छल के न झुकता जो / टेकता घुटने नहीं अपने, 
वह विजय के द्वार तक जाकर / देखता साकार सब सपने।  
रोशनी उसको सदा मिलती / जो अँधेरे घूँट जाता है। 

            'सूरज के वंशधर हैं' शीर्षक नवगीत में श्याम निर्मम की कलम एक और भाव-भंगिमा को निखारती है-
हम भोर के सिपाही / रक्षक हैं रोशनी के 
सूरज के वंशधर हैं / अभिमान जिंदगी के । 
नयनों में आ बसी है / एक मृग-दृगी प्रतीक्षा,
संघर्ष से ही गुजरे / देते रहे परीक्षा 
हम धूप के सगे हैं / पर काल कालिमा के 
किरणों के रहनुमा हैं  / अरमान ज़िंदगी के।  

            श्याम के नवगीतों का आस्थावादी स्वर यहीं नहीं थमता। वह समाज विशेषकर साहित्यकारों को चेताते हुए कहता है- 'बह न जाएँ प्यार की / जर्जर पुरानी कश्तियाँ'। किसी समाज में निरमान न हो और विनाश होता रहे तो भविष्य का अनुमान सहज ही किया जा सकता है। श्याम निर्ममता के साथ नकारात्मकता फैला रहे लेखन और उसके लेखकों को दुष्परिणामों के प्रति इंगितों में सचेत करते हैं- 
एक हँसती भोर / देती कहकहा 
और ढलती साँझ / पढ़ती मर्सिया 
लग रहा बनती नहीं / बस मिट रही हैं हस्तियाँ 

            लोकप्रिय जननेता और कवि स्व. अटल बिहारी बाजपेई ने लांछित करने की दुष्प्रवृत्ति के विरुद्ध चेताते हुए कहा था कि मूल्यों और आदर्शों को नष्ट करना आसान है किंतु उन्हें स्थापित करना बहुत कठिन है। विडंबना है कि यह कुप्रवृत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है और उजाले की अन्त्येष्टि कर अँधियारे की फसल उगाने का काम साहित्यकार भी कर रहा है। बकौल श्याम- 'ढो रहे कंधे कलश / रखकर स्वयं की अस्थियाँ'।   

            श्याम निर्मम पत्रकार भी रह चुके थे इसलिए उन्हें समाज के सच की जानकारी और उसकी कुरूप भयवाहता का बहाली-भाँति अहसास था। भाषा पर अच्छी पकड़ और शब्दों के सटीक प्रयोग में श्याम निष्णात थे। शब्दों के निहितार्थ, भावार्थ और व्यंजनार्थ श्याम के नवगीतों की मारक क्षमता में वृद्धि करते हैं- 
जन्म नहीं लेते जो / ऐसे ये महापुरुष 
इनका प्रागट्य हुआ / दीजिए बधाइयाँ। 
कीचड़ से कमलों का / जो अटूट नाता है,
इनके भी जीवन का / वही बही-खाता है।  
नीलकंठ विष पीते/ ये भी तो पीते हैं,
पचा गए सब कुछ ही / चाटते मलाइयाँ।' 

            श्याम के ऐसे तेवर हिंदी के कालजयी गजलकार दुष्यंत कुमार की याद दिलाते है जिन्होंने सत्ता प्रतिष्ठान की नाराजगी की परवाह किए बिना कहा था- 
कैसे मंजर सामने आने लगे हैं 
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं  
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो 
ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं।             
                 
            श्याम के गीतों का आलंकारिक वैभव पाठक को मुग्ध करता है। यमक- अपशकुन हो गए सब शकुनी, रूपक- राह के पत्थर हुए संबंध अपने, उपमा- दूर कुहरे में धँसी / मस्तूल सी ज्योतिर्वलय की पालकी जैसी अनगिनत पंक्तियाँ श्याम के गीतों में नग की तरह जड़ी हैं। 
  
            ग्रामीण जनों के घर से दूर आजीविका के लिए जाने पर उनकी अल्प शिक्षित पत्नियाँ बड़े-बूढ़ों से छिपाकर बमुश्किल प्राप्त किए पोस्ट कार्ड पर 'कम लिखे से अधिक समझना' लिखकर अपनी व्यथा-कथा इंगित करती रही हैं। कम लिखकर अधिक कहने की यह कला श्याम के गीतों में सर्वत्र अंतर्निहित है। धधकती रेत, बादलों की चादरें, समय बहुरूपिए, आब के अक्स, मदन गंधा हुईं साँसें, देह पथरीली, मूक क्षण अविराम, आँसुओं का ज्वार,  जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक के लिए कम शब्दों में व्यापक और गहन अनुभूति संप्रेषित कर सोचने के लिए विस्तृत आयाम छोड़ देता है। 

            श्याम निर्मम ने तमाम सामाजिक विसंगतियों को उद्घाटित करने, उन पर प्रहार करने, आस्था और विश्वास को जिलाए रखने, कोशिश और परिश्रम  की जयकार करने के साथ-साथ अपने नवगीतों में नवपीढ़ी का आह्वान भी किया है कि  वह नव संकल्पों को पूर्ण करे, तिमिर के खिलाफ रणभेरी फूँककर पूरी सामर्थ्य के साथ संघर्ष करे और नव निर्माण का सूरज उगाकर सुनहरी भोर करे। श्याम के नवगीत पर्यावरणीय चेताने जगाने में भी सफल हुए हैं-
पक्षियों से / चहचहाते पल बुला / आवाज तो दे,
दुधमुहाँ आँगन / महक जाए जरा / अँगड़ाइयाँ ले। 
रह सके तू ,रह हमेशा / गंध झरते / हरसिंगारों सा। 
टाक थे जो / शुष्क मरुथल हो गए / तू तरल कर दे, 
चूक गए संवाद / उनमें गुनगुनी सी / धूप भर दे 

            नवगीतीय नश्तर से सामाजिक विद्रूपताओं के फोड़े को चीरने-मिटाने का कार्य श्याम निर्मम ने पूरी ईमानदारी के साथ किया है। उन्हें नवगीतों में सामाजिक चेतना का संवाहक स्वीकारा जाना चाहिए। वे नवपीढ़ी को राह दिखाते हुए लिखते हैं- 
अंधकार / डूबे कोनों में / तू प्रकाश भर आ। 
सभी को ज्योति पंथ दिखला। 

            'सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे संतु निरामय:' का वैदिक आदर्श और संवैधानिक लक्ष्य श्याम की उक्त पंक्तियों में दृष्टव्य है। उगते सवेरे के माध्यम से श्याम नवगीतों ही नहीं हर साहित्यिक विधा में आशावाद और विकास क जयघोष करते हुए सकल साहित्यिक समाज का पथ प्रदर्शन करते हैं- 
एक चिड़िया / फड़फड़ाती / बारजे की खिड़कियों पर। 
भोर की पहली किरन / अठखेलियाँ करती 
मुँडेरों से उतरती / अनछुई सी धूप 
धीरे, बहुत धीरे / आँगनों के बीच / डगमग पयानक धरती। 
रोज उगता है /  सवेरा- / बारजे की खिड़कियों पर। 

            यह आस्था वादी जीवन-दर्शन गीत-दर-गीत नए नए प्रसंगों में सामने आता है- 
जीवन है- / रेत औ' धुएँ सा / लगता है - / कभी-कभी कुएँ सा। 
दुख आए / दुख दिए, चले गए / छाप गए भाल पर उदासी 
रोम-रोम बिंधा /  अंधकार से /  टूटेंगे जाल सब कुहासी। 

            सारत:, श्याम निर्मम का यक एकमात्र नवगीत संग्रह, नवगीत का पुरोधा कहे जा रहे विचारधारा विशेष के प्रति प्रतिबद्ध मठाधीशों के दर्जनों नवगीत संग्रहों पर भारी है। 'हाशिये पर हम' के नवगीत वस्तुत: गीत-मंत्र की तरह है जो सूक्ष्म में विराट की उपस्थिति से संप्राणित हैं। इन नवगीतों से वर्तमान नवगीतकारों को प्रकाशस्तंभ का काम लेकर नवगीत ही नहीं सभी साहित्यिक सृजन विधाओं में सनतानता के बीज बोने, अंकुर रोपने आउए फसल सीकहने का काम लेना चाहिए। 

***
संदर्भ: १. राजस्थान पत्रिका, कविता का एक जीवंत रूप : नवगीत १७ जून २००१, २. स्वातंत्रयोत्तर राजस्थान का हिन्दी इतिहास सं. राजेन्द्र शर्मा पृष्ठ ४३, ३-४. मधुमती मार्च १९९१ पृष्ठ ७, ५. सुबह रक्त पलाश की तथा एक चाँवल नेह रीधा की भूमिकाएँ, ६. हाशिये पर हम आरंभिक लेख. 
***
संपर्क: सभापति, विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष: ९४२५१८३२४४ ईमेल salil.sanjiv@gmil.com   
            

 

नवंबर १७, सोमराजी, दिंडी, सगुण, कीर्ति,बाराबरसी, एकता-शक्ति, हास्य, दीपक अलंकार

सलिल सृजन नवंबर १७
*
पूर्णिका
विधाता की अदालत में, वकालत हो नहीं सकती।
वकालत हो जहाँ, सच्ची अदालत हो नहीं सकती।।
दलाली कोट काला पहिनकर सच को छिपाती है-
विलंबित न्याय से बढ़कर अदावत हो नहीं सकती।।
पराई दौलतों को ताककर कर मत हाय भरना रे!
दुख्तरे-नेक से बेहतर इनायत हो नहीं सकती।।
उमर बढ़ती तो कम होती लगावट है गलतफहमी
हदों में रह हरी हो तो कयामत हो नहीं सकती।।
नजर का खेल है यारों! मिले-झुक-उठ कहर ढाए
दिलों से बेहतर दिल को नियामत हो नहीं सकती।।
किसी को चूमना संवाद है सपनों का सपनों से।
दिलों में दूरियाँ रखकर मुहब्बत हो नहीं सकती।।
नहीं निर्जीव या बेजिस्म से कर आशिकी तौबा ।
'सलिल संजीव' बिन सच्ची सखावत हो नहीं सकती।।
***
स्मृति गीत 
० 
शांति सुमन मुरझा रहे, है नफरत का दौर। 
आम्र कुंज वीरान है, कैक्टस पर है बौर।। 
० 
व्याप गया है मौन, नवगीती दरबार में। 
पौधा अद्धा पौन, ग्रहण ग्रस रहे एक को।। 
खूं की प्यासी साँझ को, सूर्य हो गया कौर। 
शांति सुमन मुरझा रहे, है नफरत का दौर।। 
० 
नहीं आँख को आँख, सोहे फूटी आँख भी। 
नोच रहे हैँ पाँख, पाँख आप ही पाँख के।। 
पद-मद पाकर तृप्ति गुम, चाह हमेशा और। 
शांति सुमन मुरझा रहे, है नफरत का दौर।।  
(दोहा-सोरठा गीत) १७.११.२०२४ 
०००
छंदशाला ५२
दिंडी छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष, तमाल, सगुण व नरहरी छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, यति ९-१०, पदांत गुरु गुरु।
लक्षण छंद
ग्रह-दिशा यति रख, लिखो छंद दिंडी।
घर घर विराजे, शिव जी की पिंडी।।
गुरु गुरु नमन लें, वर दें बनें छंद।
रस-लय सुसज्जित, दे भाव आनंद।।
(संकेत-ग्रह नौ, दिशा दस)
उदाहरण
हे हरि! दया कर, भक्तों को तारो।
भव सिंधु पीड़ा, मिटाओ उबारो।।
हमें लो शरण में, सुनो प्रार्थनाएँ-
हरकर तिमिर सब, जगत को उजारो।।
१७-११-२०२२
•••
छंदशाला ५०
सगुण छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष व तमाल छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, पदादि ल, पदांत ज।
लक्षण छंद
सगुण-निर्गुण दोनों है ईश एक।
यह सच सब जानते जिनमें विवेक।।
लघु-जगण हों आदि-अंत साथ-साथ।
करें देशसेवा सभी उठा माथ।।
उदाहरण
गुनगुना रहे भ्रमर, लखकर बसंत।
हिल-मिलकर घूमते, कामिनी-कंत।।
महक मोगरा कहे, मैं भी जवान।
मन मोहे चमेली, सुनाकर गान।।
१२-११-२०२२
•••
卐 ॐ 卐
एकता और शक्ति गीत
*
बारा बरसी खटन गया
झट लै आया झंडा
तिरंगा फहराया
कि जन गण मन गाया
*
बारा बरसी खटन गया
सब दै रहे सलामी
गर्व से शीश तना
एक यह देश बना
*
बारा बरसी खटन गया
मिल मुट्ठी बन जाएँ
अँगुलियाँ अलग न हों
देश ताकतवर हो
*
बारा बरसी खटन गया
स्वच्छता रखें सभी
स्वस्थ तन-मन भी हो
नित नव सपने बो
*
बारा बरसी खटन गया
जहाँ हैं कर मेहनत
बनाएँ देश नया
झुके सारी दुनिया
***
हास्य मुक्तक
नम आँख देखकर हमारी आँख नम हुई
दिल से करी तारीफ मगर वह भी कम हुई
छत पर दिखी ज्यों फुलझड़ी, अनार मैं हुआ
कैसा गज़ब है एक ही पल में वो बम हुई
*
गृह लक्ष्मी से कहा 'आज है लछमी जी का राज
मुँहमाँगा वरदान मिलेगा रोक न मुझको आज'
घूर एकटक झट बोली वह-"भाव अगर है सच्चा
देती हूँ वरदान रही खुश कर प्रणाम नित बच्चा"
***
हास्य कविता
मेहरारू बोली 'ए जी! है आज पर्व दीवाली
सोना हो जब, तभी मने धनतेरस वैभवशाली'
बात सुनी मादक खवाबों में तुरत गया मन डूब
मैं बोला "री धन्नो! आ बाँहों में सोना खूब"
वो लल्ला-लल्ली से बोली "सोना बापू संग
जाती हूँ बाजार करो रे मस्ती चाहे जंग"
हुई नरक चौदस यारों ये चीखे, वो चिल्लाए
भूख इसे, हाजत उसको कोई तो जान बचाए
घंटों बाद दिखी घरवाली कई थैलों के संग
खाली बटुआ फेंका मुझ पर, उतरा अपना रंग
१७.११.२०२०
***
नवगीत
दिल्लीवालो!
*
दिल्लीवालो!
भोर हुई पर
जाग न जाना
घुली हवा में प्रचुर धूल है
जंगल काटे, पर्वत खोदे
सूखे ताल, सरोवर, पोखर
नहीं बावली-कुएँ शेष हैं
हर मुश्किल का यही मूल है
बिल्लीवालो!
दूध विषैला
पी मत जाना
कल्चर है होटल में खाना
सद्विचार कह दक़ियानूसी
चीर-फाड़कर वस्त्र पहनना
नहीं लाज से नज़र झुकाना
बेशर्मों को कहो कूल है
इल्लीवालो!
पैकिंग बढ़िया
कर दे जाना
आज जुडो कल तोड़ो नाता
मनमानी करना विमर्श है
व्यापे जीवन में सन्नाटा
साध्य हुआ केवल अमर्ष है
वाक् न कोमल तीक्ष्ण शूल है
किल्लीवालो!
ठोंको ताली
बना बहाना
१७-११-२०१९
***
दोहा सलिला
लट्टू पर लट्टू हुए, दिया न आया याद
जब बिजली गुल हो गई, तब करते फरियाद
*
उग, बढ़, झर पत्ते रहे, रहे न कुछ भी जोड़
सीख न लेता कुछ मनुज, कब चाहे दे छोड़
*
लोकतंत्र में धमकियाँ, क्यों देते हम-आप.
संविधान की अदेखी, दंडनीय है पाप.
*
१७.११.२०१७
***
कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं २
*
गीत
फ़साना
(छंद- दस मात्रिक दैशिक जातीय, षडाक्षरी गायत्री जातीय सोमराजी छंद)
[बहर- फऊलुन फऊलुन १२२ १२२]
*
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हें देखता हूँ
तुम्हें चाहता हूँ
तुम्हें माँगता हूँ
तुम्हें पूजता हूँ
बनाना न आया
बहाना बनाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हीं जिंदगी हो
तुम्हीं बन्दगी हो
तुम्हीं वन्दना हो
तुम्हीं प्रार्थना हो
नहीं सीख पाया
बिताया भुलाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हारा रहा है
तुम्हारा रहेगा
तुम्हारे बिना ना
हमारा रहेगा
कहाँ जान पाया
तुम्हें मैं लुभाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
१७-११-२०१६
***
शब्द चर्चा- सैलाब या शैलाब?
सही शब्द ’सैलाब’ ही है -’शैलाब ’ नहीं
’सैलाब’[ सीन,ये,लाम,अलिफ़,बे] -अरबी/फ़ारसी का लफ़्ज़ है अर्थात ’उर्दू’ का लफ़्ज़ है जो ’सैल’ और ’आब’ से बना है
’सैल’ [अरबी लफ़्ज़] मानी बहाव और ’आब’[फ़ारसी लफ़्ज़] मानी पानी
सैलाब माने पानी का बहाव ही होता है मगर हम सब इसका अर्थ अचानक आए पानी के बहाव ,जल-प्लावन.बाढ़ से ही लगाते है
सैल के साथ आब का अलिफ़ वस्ल [ मिल ] हो गया है अत: ’सैल आब ’ के बजाय ’सैलाब’ ही पढ़ते और बोलते है ।हिन्दी के हिसाब से इसे आप ’दीर्घ सन्धि’ भी कह सकते है’
चूँकि ’सैल’ मानी ’बहाव’ होता है तो इसी लफ़्ज़ से ’सैलानी’ भी बना है -वह जो निरन्तर सैर तफ़्रीह एक जगह से दूसरी जगह जाता रहता है।
आँसुओं की बाढ़ को सैल-ए-अश्क भी कहते है
हिन्दी के ’शैल’ से आप सब लोग तो परिचित ही हैं।
***
अलंकार सलिला: ३१
दीपक अलंकार
*
दीपक वर्ण्य-अवर्ण्य में, देखे धर्म समान।
धारण करता हो जिसे, उपमा संग उपमान।।
जहाँ वर्ण्य (प्रस्तुत) और अवर्ण्य (अप्रस्तुत) का एक ही धर्म स्थापित किया जाये, वहाँ दीपक अलंकार होता है।
अप्रस्तुत एक से अधिक भी हो सकते हैं।
तुल्ययोगिता और दीपक में अंतर यह है कि प्रथम में प्रस्तुत और प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत और अप्रस्तुत का धर्म
समान होता है जबकि द्वितीय में प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों का समान धर्म बताया जाता है।
जब प्रस्तुत औ' अप्रस्तुत, में समान हो धर्म।
तब दीपक जानो 'सलिल', समझ काव्य का मर्म।।
यदि प्रस्तुत वा अप्रस्तुत, गहते धर्म समान।
अलंकार दीपक कहे, वहाँ सभी मतिमान।।
दीपक वर्ण्य-अवर्ण्य के, देखे धर्म समान।
कारक माला आवृत्ति, तीन भेद लें जान।।
उदाहरण:
१. सोहत मुख कल हास सौं, अम्ल चंद्रिका चंद्र।
प्रस्तुत मुख और अप्रस्तुत चन्द्र को एक धर्म 'सोहत' से अन्वित किया गया है।
२. भूपति सोहत दान सौं, फल-फूलन-उद्यान।
भूपति और उद्यान का सामान धर्म 'सोहत' दृष्टव्य है।
३. काहू के कहूँ घटाये घटे नहिं, सागर औ' गन-सागर प्रानी।
प्रस्तुत हिंदवान और अप्रस्तुत कामिनी, यामिनी व दामिनी का एक ही धर्म 'लसै' कहा गया है।
४. डूँगर केरा वाहला, ओछाँ केरा नेह।
वहता वहै उतावला, छिटक दिखावै छेह।।
अप्रस्तुत पहाड़ी नाले, और प्रस्तुत ओछों के प्रेम का एक ही धर्म 'तेजी से आरम्भ तथा शीघ्र अंत' कहा है।
५. कामिनी कंत सों, जामिनी चंद सोन, दामिनी पावस मेघ घटा सों।
जाहिर चारहुँ ओर जहाँ लसै, हिंदवान खुमान सिवा सों।।
६. चंचल निशि उदवस रहैं, करत प्रात वसिराज।
अरविंदन में इंदिरा, सुन्दरि नैनन लाज।।
७. नृप मधु सों गजदान सों, शोभा लहत विशेष।
अ. कारक दीपक:
जहाँ अनेक क्रियाओं में एक ही कारक का योग होता है वहाँ कारक दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. हेम पुंज हेमंत काल के इस आतप पर वारूँ।
प्रियस्पर्श की पुलकावली मैं, कैसे आज बिसारूँ?
किन्तु शिशिर में ठंडी साँसें, हाय! कहाँ तक धारूँ?
तन जारूँ, मन मारूँ पर क्या मैं जीवन भी हारूँ।।
२. इंदु की छवि में, तिमिर के गर्भ में,
अनिल की ध्वनि में, सलिल की बीचि में।
एक उत्सुकता विचरती थी सरल,
सुमन की स्मृति में, लता के अधर में।।
३. सुर नर वानर असुर में, व्यापे माया-मोह।
ऋषि मुनि संत न बच सके, करें-सहें विद्रोह।।
४. जननी भाषा / धरती गौ नदी माँ / पाँच पालतीं।
५. रवि-शशि किरणों से हरें
तम, उजियारा ही वरें
भू-नभ को ज्योतित करें।
आ. माला दीपक:
जहाँ पूर्वोक्त वस्तुओं से उत्तरोक्त वस्तुओं का एकधर्मत्व स्थापित होता है वहाँ माला दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. घन में सुंदर बिजली सी, बिजली में चपल चमक सी।
आँखों में काली पुतली, पुतली में श्याम झलक सी।।
प्रतिमा में सजीवता सी, बस गर्भ सुछवि आँखों में।
थी एक लकीर ह्रदय में, जो अलग रही आँखों में।।
२. रवि से शशि, शशि से धरा, पहुँचे चंद्र किरण।
कदम-कदम चलकर करें, पग मंज़िल का वरण।।
३. ध्वनि-लिपि, अक्षर-शब्द मिल करें भाव अभिव्यक्त।
काव्य कामिनी को नहीं, अलंकार -रस त्यक्त।।
४. कूल बीच नदिया रे / नदिया में पानी रे
पानी में नाव रे / नाव में मुसाफिर रे
नाविक पतवार ले / कर नदिया पार रे!
५. माथा-बिंदिया / गगन-सूर्य सम / मन को मोहें।
इ. आवृत्ति दीपक:
जहाँ अर्थ तथा पदार्थ की आवृत्ति हो वहाँ पर आवृत्ति दीपक अलंकार होता है।इसके तीन प्रकार पदावृत्ति दीपक,
अर्थावृत्ति दीपक तथा पदार्थावृत्ति दीपक हैं।
क. पदावृत्ति दीपक:
जहाँ भिन्न अर्थोंवाले क्रिया-पदों की आवृत्ति होती है वहाँ पदावृत्ति दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. तब इस घर में था तम छाया,
था मातम छाया, गम छाया,
-भ्रम छाया।
२. दीन जान सब दीन, नहिं कछु राख्यो बीरबर।
३. आये सनम, ले नयन नम, मन में अमन,
तन ले वतन, कह जो गए, आये नहीं, फिर लौटकर।
ख. अर्थावृत्ति दीपक:
जहाँ एक ही अर्थवाले भिन्न क्रियापदों की आवृत्ति होती है, वहाँ अर्थावृत्ति दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. सर सरजा तब दान को, को कर सकत बखान?
बढ़त नदी गन दान जल उमड़त नद गजदान।।
२. तोंहि बसंत के आवत ही मिलिहै इतनी कहि राखी हितू जे।
सो अब बूझति हौं तुमसों कछू बूझे ते मेरे उदास न हूजे।।
काहे ते आई नहीं रघुनाथ ये आई कै औधि के वासर पूजे।
देखि मधुव्रत गूँजे चहुँ दिशि, कोयल बोली कपोतऊ कूजे।।
३. तरु पेड़ झाड़ न टिक सके, झुक रूख-वृक्ष न रुक सके,
तूफान में हो नष्ट शाखा-डाल पर्ण बिखर गये।
ग. पदार्थावृत्ति दीपक:
जहाँ पद और अर्थ दोनों की आवृत्ति हो वहाँ,पदार्थावृत्ति दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण
१. संपत्ति के आखर तै पाइ में लिखे हैं, लिखे भुव भार थाम्भिबे के भुजन बिसाल में।
हिय में लिखे हैं हरि मूरति बसाइबे के, हरि नाम आखर सों रसना रसाल में।।
आँखिन में आखर लिखे हैं कहै रघुनाथ, राखिबे को द्रष्टि सबही के प्रतिपाल में।
सकल दिशान बस करिबे के आखर ते, भूप बरिबंड के विधाता लिखे भाल में।।
२.
दीपक अलंकार का प्रयोग कविता में चमत्कार उत्पन्न कर उसे अधिक हृद्ग्राही बनाता है।।
***
नव गीत
*
मानवासुर!
है चुनौती
हमें भी मारो।
*
हम नहीं हैं एक
लेकिन एक हैं हम।
जूझने को मौत से भी
हम रखें दम।
फोड़ते हो तुम
मगर हम बोलते हैं
गगन जाए थरथरा
सुन बोल 'बम-बम'।
मारते तुम निहत्थों को
क्रूर-कायर!
तुम्हारा पुरखा रहा
दनु अंधकासुर।
हम शहादत दे
मनाते हैं दिवाली।
जगमगा देते
दिया बन रात काली।
जानते हैं देह मरती
आत्मा मरती नहीं है।
शक्ल है
कितनी घिनौनी, जरा
दर्पण तो निहारो
मानवासुर!
है चुनौती
हमें भी मारो।
*
मनोबल कमजोर इतना
डर रहे परछाईं से भी।
रौंदते कोमल कली
भूलो न सच तुम।
बो रहे जो
वही काटोगे हमेशा
तडपते पल-पल रहोगे
दर्द होगा पर नहीं कम।
नाम मत लो धर्म का
तुम हो अधर्मी!
नहीं तुमसे अधिक है
कोई कुकर्मी।
जब मरोगे
हँसेगी इंसानियत तब।
शूल से भी फूल
ऊगेंगे नए अब ।
निरा अपना, नया सपना
नित नया आकार लेगा।
किन्तु बेटा भी तुम्हारा
तुम्हें श्रृद्धांजलि न देगा
जा उसे मारो।
मानवासुर!
है चुनौती
हमें भी मारो।
***
लघुकथा:
सहिष्णुता
*
'हममें से किसी एक में अथवा सामूहिक रूप से हम सबमें कितनी सहिष्णुता है यह नापने, मापने या तौलने का कोई पैमाना अब तक ईजाद नहीं हुआ है. कोई अन्य किसी अन्य की सहिष्णुता का आकलन कैसे कर सकता है? सहिष्णुता का किसी दल की हार - जीत अथवा किसी सरकार की हटने - बनने से कोई नाता नहीं है. किसी क्षेत्र में कोई चुनाव हो तो देश असहिष्णु हो गया, चुनाव समाप्त तो देेश सहिष्णु हो गया, यह कैसे संभव है?' - मैंने पूछा।
''यह वैसे हो संभव है जैसे हर दूरदर्शनी कार्यक्रमवाला दर्शकों से मिलनेवाली कुछ हजार प्रतिक्रियाओं को लाखों बताकर उसे देश की राय और जीते हुए उम्मीदवार को देश द्वारा चुना गया बताता है, तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती जबकि सब जानते हैं कि ऐसी प्रतियोगिताओं में १% लोग भी भाग नहीं लेते।'' - मित्र बोला।
''तुमने जैसे को तैसा मुहावरा तो सुना ही होगा। लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने ढेरों वायदे किये, जितने पर उनके दलाध्यक्ष ने इसे 'जुमला' करार दिया, यह छल नहीं है क्या? छल का उत्तर भी छल ही होगा। तब जुमला 'विदेशों में जमा धन' था, अब 'सहिष्णुता' है. जनता दोनों चुनावों में ठगी गयी।
इसके बाद भी कहीं किसी दल अथवा नेता के प्रति उनके अनुयायियों में असंतोष नहीं है, धार्मिक संस्थाएँ और उनके अधिष्ठाता समाज कल्याण का पथ छोड़ भोग-विलास और संपत्ति - अर्जन को ध्येय बना बैठे हैं फिर भी उन्हें कोई ठुकराता नहीं, सब सर झुकाते हैं, सरकारें लगातार अपनी सुविधाएँ और जनता पर कर - भार बढ़ाती जाती हैं, फिर भी कोई विरोध नहीं होता, मंडियां बनाकर किसान को उसका उत्पाद सीधे उपभोक्ता को बेचने से रोका जाता है और सेठ जमाखोरी कर सैंकड़ों गुना अधिक दाम पर बेचता है तब भी सन्नाटा .... काश! न होती हममें या सहिष्णुता।'' मित्र ने बात समाप्त की।
***
नव गीत :
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
*
कहता है इतिहास
एक साथ लड़ते रहे
दानव गण सायास।
.
निर्बल को दे दंड
पाते थे आनंद वे
रहे सदा उद्दंड।
.
नहीं जीतती क्रूरता
चाहे जितने जुल्म कर
संयम रखती शूरता।
.
रात नहीं कोई हुई
जिसके बाद न भोर
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
*
उठो, जाग, हो एक
भिड़ो तुरत आतंक से
रखो इरादे नेक।
.
नहीं रिलीजन, धर्म
या मजहब आतंक है
मिटा कीजिए कर्म।
.
भुला सभी मतभेद
लड़, वरना हों नष्ट सब
व्यर्थ न करिए खेद।
.
कटे पतंग न शांति की
थाम एकता डोर
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
१६-११-२०१५
***
छंद सलिला :
*
कीर्ति छंद
छंद विधान:
द्विपदिक, चतुश्चरणिक, मात्रिक कीर्ति छंद इंद्रा वज्रा तथा उपेन्द्र वज्रा के संयोग से बनता है. इसका प्रथम चरण उपेन्द्र वज्रा (जगण तगण जगण दो गुरु / १२१-२२१-१२१-२२) तथा शेष तीन दूसरे, तीसरे और चौथे चरण इंद्रा वज्रा (तगण तगण जगण दो गुरु / २२१-२२१-१२१-२२) इस छंद में ४४ वर्ण तथा ७१ मात्राएँ होती हैं.
उदाहरण:
१. मिटा न क्यों दें मतभेद भाई, आओ! मिलाएं हम हाथ आओ
आओ, न जाओ, न उदास ही हो, भाई! दिलों में समभाव भी हो.
२. शराब पीना तज आज प्यारे!, होता नहीं है कुछ लाभ सोचो
माया मिटा नष्ट करे सुकाया, खोता सदा मान, सुनाम भी तो.
३. नसीहतों से दम नाक में है, पीछा छुड़ाएं हम आज कैसे?
कोई बताये कुछ तो तरीका, रोके न टोके परवाज़ ऐसे.
१६-११-२०१३
***
हास्य मुक्तक
नम आँख देखकर हमारी आँख नम हुई
दिल से करी तारीफ मगर वह भी कम हुई
हमने जलाई फुलझड़ी 'सलिल' ये क्या हुआ
दीवाला हो गया है वो जैसे ही बम हुई.
१६-११-२०१३
***

नवंबर १८, शांत, दोहा, लघुकथा, नवगीत, काल, चमेली, माहिया, हाइकु,

सलिल सृजन नवंबर १८
*
चित्रगुप्त प्रभु, प्रगट होइए, माताओं के साथ।
पलक पाँवड़े बिछा हेरते, पथ हम जोड़े हाथ।।
जय जय जय हे निराकार प्रभु!
भक्तों हित साकार हुए विभु!
निरंकार जग-अलंकार हे!
शोभित मोहित सकल चराचर-
महिमा-गरिमा तव अपार है।
बारहमासी हम बारह सुत, शुभाशीष दो नाथ!
पलक पाँवड़े बिछा हेरते, पथ हम जोड़े हाथ।।
चमेली 
माहिया
*
मन निर्मल रख मिलना 
सबसे दुनिया में 
चमेली सदृश खिलना। 
*
गर्मी हो या सर्दी
दोनों ऋतु में खिलती  
समदृष्टि चमेली की।  
*
हो पीत गुलाबी श्वेत 
दोमट मिट्टी में 
जैस्मिन की  झाड़ी-बेल। 
***  
हाइकु
चुन चमेली 
अर्पित देव को 
करते भक्त। 
*
है सुवासित 
सकल परिवेश 
खिली चमेली। 
*
सुरभि लुटा 
निष्काम काम कर
चमेली चली। 
*
है कर्मयोगी 
सफेद चदरिया 
ज्यों की त्यों रखी। 
चंपा-चमेली 
राधा-कृष्ण विहँस   
रास रचाते।
१८.११.२०२४  
***
मुक्तक
चुनो चमेली कुसुम, बनाओ हार पथिक को अर्पित कर। 
कर जोड़ें गह सकें विरासत, अपना अहं विसर्जित कर।।
शब्द ब्रह्म का हो आराधन, नाद-ताल-लय की जय हो-
शारद पग पर सुमन चढ़ाएँ, सलिल विमल नित अर्पित कर।।
१७.११.२०२४
भोर भई आओ गौरैया,सुना प्रभाती हमें जगा।
संग गिलहरी को भी लाओ, नाता अद्भुत प्रेम पगा।।
खिले चमेली जुही मोगरा, रहे महकता घर अँगना-
दूर रखो मूषक को जिसने वसन काटकर हमें ठगा।।
१६.११.२०२४
दोहा सलिला
जुही-चमेली श्वास में, आस मोगरा फूल।
हरसिंगार सुहास हो, कर विषाद को धूल।।
पंचेंद्रिय हैं पँखुड़ियाँ, डंढल तन मन वास।
हरित पत्र शत कामना, जड़ हो नहीं उदास।।
चतुर चमेली चहककर, कहे, न हो गमगीन।
सुख-दुख जो देता उसे, दे हो उसमें लीन।।
वसुधा के आँचल पले, छत्र नीलिमा  भव्य।
चंचल चपला चमेली, क्रीड़ा करती नव्य।।
चलो! चमेली कुंज में, कान्ह गुँजाता वेणु।
नित्य चरण छू तर रही, बड़भागी बृज रेणु।।
१४.११.२०२४
जगी चमेली विहँसकर, जाग जुही से बोल।
सूरज का स्वागत करे, नित दरवज्जा खोल।।
°
कुण्डलिया 
चहक चपल चिड़िया करे, चूँ चूँ कर प्रभु गान।
बैठ चमेली डाल पर, मन ही मन अनुमान।।
मन ही मन अनुमान, गिलहरी  करे कलेवा।
देख सके आकाश, बाज को आते देवा।।
कोटर में छिप गई, गिलहरी तुरत ही फुदक।
मिली जुही से पुलक, चमेली हुलसकर चहक।।
१३.११.२०२४
सोरठा   
दे सुगंध बेदाम, अलबेली है चमेली।
खुश हर खासो-आम, उसको यह संतोष है।।
११.११.२०१४ 
°°°
कृति चर्चा :
''नवता'' लीक से हटकर भाव सविता
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: नवता, नवगीत संग्रह, देवकीनंदन 'शांत', प्रथम संस्करण, २०१९, आकार २१ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ५८, मूल्य १५०/-, रचनाकार संपर्क - शान्तं, १०/३०/२ इंदिरा नगर, लखनऊ २२६०१६, चलभाष - ८८४०५४९२९६, ९९३५२१७८४१, ईमेल - shantdeokin@gmail.com]
*
हिंदी साहित्य की लोकप्रिय काव्य विधाओं में से एक गीत रचनाकारों के आकर्षण का केंद्र था, है और रहेगा। गीत रचना प्रकृति और लोक से होकर अध्येताओं और विद्वज्जनों में प्रतिष्ठित हुई है। गीत की जड़ माँ की लोरी, पर्व गीतों, वंदना गीतों, संस्कार गीतों, ऋतु गीतों, कृषि गीतों, जन गीतों, क्रांति गीतों आदि में है। वीरगाथा काल, भक्ति काल, रीति काल और छायावादी काल साक्षी हैं कि गीत हमेशा साहित्य के केंद्र में रहा है। देश-काल-परिस्थितियों तथा रचनाकार की रुचि के अनुरूप गीत का कलेवर तथा चोला परिवर्तित होता रहा है। पानी की तरह गीत अपने आप को बदलता, ढलता हुआ चिरजीवी रहा है। पद्य की थाली में गीत स्वतंत्र और अन्य तत्वों के अभिन्न अंग दोनों रूपों में भोजन में पानी की तरह रहा है। गीत की गेयता ला लयबद्धता से न तो छंद मुक्त हैं न कविता। चिरकाल से पारम्परिक गीतों के साथ नवप्रयोग धर्मी गीत रचे जाते रहे हैं जिन्हें आरंभ में अमान्य करते-करते थक-चूक कर विरोध कर रहे तत्व पस्त हो जाते हैं और परिवर्तन को क्रमश: लोक और विद्वज्जनों की मान्यता मिल जाती है। लगभग ७ दशकों पूर्व गीत को छायावादी अस्पष्टता से स्पष्टता की ओर, अमूर्तता से मूर्तता की ओर, भाव से कथ्य की ओर, आध्यात्मिकता से सांसारिकता की ओर, वैयक्तिक अभिव्यक्ति से सार्वजनिक अभिव्यक्ति की ओर उन्मुख होने की आवश्यकता प्रतीत हुई।
'गेयता' गीत का मूल तत्व है जबकि 'नवता' समय सापेक्ष तत्व है। जो आज नया है वही भविष्य में पुराना होकर परंपरा बन जाता है। नवता जड़ या स्थूल नहीं होती। गीतकार गीत की रचना कथ्य को कहने के लिए करता है। कथ्य गीत ही नहीं किसी भी रचना का मूल तत्व है। कुछ कहना ही नहीं हो तो रचना नहीं हो सकती। अनुभूति को अभिव्यक्त करना ही कथ्य को जन्म देता है। यह अभिव्यक्ति लयता और गेयता से संयुक्त होकर पद्य का रूप लेती है। पद्य रचना मुखड़ा - अंतरा - मुखड़ा के क्रमबद्ध रूप में गीत कही जाती है। गीत के तत्व कथ्य और शिल्प हैं। कथ्य को विषय अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है। शिल्प के अंग छंद, भाषा शैली, शब्द-चयन, अलंकार, शब्द शक्ति, गुण, बिम्ब, प्रतीक आदि हैं। गीत में नवता का प्रवेश इन सब में एक साथ प्राय: नहीं होता। एकाधिक तत्वों में नवता का प्रभाव प्रभावी हो तो उस गीति रचना को नवगीत कहा जाता है। मऊरानी पुर झाँसी में जन्मे, लखनऊ निवासी वरिष्ठ गीत-ग़ज़लकार देवकीनंदन 'शांत' हिंदी, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी के जानकर हैं। आजीविका से अभियंता होते हुए भी उनकी प्रवृत्ति साहित्य और आध्यात्म की ओर उन्मुख रही है। सृजन के उत्तरार्ध में नवगीत की और आकृष्ट होकर शांत जी ने प्रचलित मान्यताओं और विधानों की अनदेखी कर अपनी राह आप बनाने की कोशिश की है। इस कोशिश में उनकी गीति रचनाएँ गीत-नवगीत की सीमारेखा पर हैं। संकलन की हर रचना को नवगीत नहीं कहा जा सकता किन्तु अधिकांश रचनाओं में सामान्य से भिन्न पथ अपनाने का प्रयास उन्हें नवगीत से सन्निकटता बनाता है।
नवता की भूमिका में सुधी समीक्षक डॉ. सुरेश ठीक ही लिखते हैं - "अछूते प्रतीक, नए बिम्ब,,
कथ्य, शिल्प, भाषा-शैली, की अनूठी अभिव्यक्ति किसी छान्दसिक रचना को नवगीत बनाती है। यह निर्विवाद सच है कि सपाटबयानी, वक्तव्यबाजी, घिसे-पिटे प्रतीक, पारस्परिक द्वेष, वैचारिक किलेबंदी, टकराव-बिखरावपरक नकारात्मकता नवगीत को दिग्भर्मित कर, सामाजिक-सद्भाव को क्षति पहुँचाकर असहिष्णुता की और ढकेलती है। शांत जी की गीति रचनाएँ ही नहीं, गज़लें भी सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और साहचर्य को प्रोत्साहित करते हैं। इस अर्थ में शांत जी नवगीतों में वर्ग वैमनस्य, सामाजिक विसंगतियों, वैयक्तिक कुंठाओं, सार्वजनिक टकरावों को अधिक प्रभावी बनाने की प्रवृत्ति के विरुद्ध ताज़ा हवा के झोंके की तरह सद्भाव और सहिष्णुता की वकालत करते हैं।
डॉ. किशारीशरण शर्मा नवगीतों में शब्द शक्तियों के प्रभाव की चर्चा करते हुए लिखते हैं - "नवगीत में लक्षणा एवं व्यंजना शब्दों का विशेष प्रयोग होता है। बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से 'कही पे निगाहें, कहीं पे निशाना' की उक्ति चरितार्थ की जाती है। लक्षणा या व्यंजना का तीर चलाकर व्यक्ति (गीतकार) जोखिम से बचता है जबकि स्वयं को जोखिम में डालता है। कर्मयोगी कृष्ण के कर्मपथ के अनुयायी शांत जी जोखिम उठाने में नहीं हिचकते और अपनी बात अमिधा में कहकर नवगीत में नवता का संचार करते हैं। प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. जगदीश गुप्त के अनुसार "कविता वही है जो प्रकथनीय कहे।" इस निकष पर शांत जी की रचनाएँ खरी उतरती हैं।
शांत जी अभियंता हैं, जानते हैं कि प्रकृति के उत्पादों के उत्पादों की नकल के मनुष्य काया भले बना ले, प्राण नहीं डाल सकता। वे इसी तथ्य को फूलों के माध्यम से सामने लाते हैं-
कागज़ के फूलों से
खुशबू आना मुश्किल है।
छूने की कोशिश
करने पर दूर लहार जाती
बूँद किनारे की
इस डर से सिहर-सिहर जाती
प्रश्न 'शीर्षक' रचना में शांत जी अपनी कार्यस्थलियों पर निरंतर कार्यरत श्रमिकों को देखकर एक सवाल उठाते हैं -
ऐसा क्यों होता?
तन तो श्रम करता मन सोता।
शोर करे न 'शांत' समन्दर
भीतर-भीतर ज्वर उठे।
दैत्य, अग्नि, पशु से क्या डरना
जब अंतस में प्यार जगे।
ऐसा क्यों होता?
नीलकंठ क्यों अमृत बोता?
यहाँ शांत जी ने अपने साहित्यिक उपनाम का शब्दकोशीय अर्थ में प्रयोग कर अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। विष पीकर अमृत देने की विरासत का वारिस कवि ही होता है। वह जानता है कि अहम् का वहम ही सारे टकरावों की जड़ है। 'रूठना' जिंदगी जीने का सही ढंग नहीं है। 'मनाना' और मान जाना ही को आगे बढ़ाता है। विडंबनाओं को नवगीत का कलेवर मान कर निरंतर विखण्डन की खेती कर रहे, तथाकथित गीतकार मानें न मानें गीतसृजन पथ का अनुगामी बना रहेगा और गीत का श्रोता सनातन मूल्यों की अवहेला सहन न कर ऐसे गीतों को हृदयंगम करता रहेगा। शांत जी संवाद को समस्याओं के समाधान में सहायक मानते हुए लिखते हैं-
फिर संवाद करें,
आओ, फिर से बात करें हम....
...रत्ती भर ना डरें,
ना आघात, ना घात करें हम।
शांत जी ने नवगीतों में राष्ट्रीय भावधारा को उपेक्षित होते देखते हुए, खुद नवता पथ पर पग रखकर राष्ट्रीयता का रंग घोलने का प्रयास किया है। अपने इस प्रथम प्रयास में भले ही कवि गीत-नवगीत की संधि रेखा पर खड़ा दिखता है किन्तु 'गिरते हैं शह-सवार ही मैदाने-जंग में वह तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले?' शांत जी चुनौती को स्वीकारकर आगे बढ़ते हैं -
हो संपन्न राष्ट्र अपना
सबको अधिकार मिले
सोच-विचार मूक प्राणी को
एक नया संसार मिले अब तक नवगीतों में मानवीय पीड़ा और इंसानी परेशानियाँ हो कथ्य का विषय बनती आई हैं। शांत जी मनुष्य मात्र तक सीमित रहते, उनकी संवेदनाएँ मूक प्राणियों विस्तार पाती है। नवगीत के कथ्य में यह एक नव्य प्रयोग है। शांत जानते हैं कि 'लकीर के फ़कीर' ऐसी रचनाओं को नवगीत मानने से इंकार कर सकते हैं, फिर भी वे 'वैचारिक प्रतिबद्धों' के गिरोह में सत्य कहने का साहस करते हैं। वे ऐसे गिरोहबाजों को ललकारते हैं-
जिसे तुम कविता कहते हो
क्या
वही बस कविता है?
जिसमें तुम गोते लगाते हो
क्या
वही सरिता है?...
.... कविता, सरिता और सविता
सिर्फ वही नहीं है
जो तुम्हारी परिभाषा में बँधा है।
नवगीत को नश्वर सांसारिक अभिव्यक्तियों तक सीमित रखने के पक्षधरों को शांत जी का कवि मन, आवरण-ेयह बताता है कि नवता सांसारिक होते हुए आध्यात्मिक भी है। आवरण चित्र में कदम्ब शाख पर वेणुवादन करते हुए श्रीकृष्ण विराजमान हैं, उनके सम्मुख सुन्दर वस्त्रों में सज्जित बृज वनिताएँ हैं। वस्त्रहीन स्नान करने की कुप्रथा को वस्त्र-हरण कर छुड़वाने का वचन लेने के बाद कृष्ण लौटा चुके हैं। कुप्रथा को छोड़कर सुवस्त्रों से सज्जित बृज बालाएँ नवता का वरण कर चुकी हैं। संदेश स्पष्ट है कि नवगीत की नवता वैचारिक, आचारिक मौलिक तथा सर्व हितकारी हो तभी लोक - मान्य होगी।
कठमुल्लेपन की हद तक जड़ता का वरण कर रहे तथाकथित प्रगतिवादियों (वास्तव में साम्यवादियों) की वैचारिक दासता स्वीकार कर नवगीत को वैचारिक प्रतिबद्धता के पिंजरे में कैद रखने के आग्रही नवगीतकारों को शांत जी सर्वहितकारी नव-पथ अपनाने का सन्देश देते हैं। 'सुधियों के गीत' शीर्षक के अंतर्गत शांत जी नवगीत के माध्यम से मानवीय संबंधों की संवेदनाओं को पारंपरिकता से हटकर अभिव्यक्ति देते हैं-
साथी रूठ गया
अब सपने सूली लटकेंगे
प्रतिबंधों की ज़ंजीरों से
खूब कसे
उसके ज़ज़्बात
अनुबंधों के संकेतों से
घिर आई
दिन में ही रात
धीरज छूट गया
जीवन भर दर-दर भटकेंगे
विषय, विषय-वस्तु, कहन, शब्द चयन आदि में शांत जी किसी का अनुकरण नहीं करते। शांत जी के आत्मीय मित्र मधुकर अष्ठाना जी प्रगतिशील विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं तो, मनोज श्रीवास्तव राष्ट्रीय ओज के प्रतिनिधि , राजेश अरोरा 'शलभ' हास्य के महारथी हैं तो अमरनाथ हिंदी छांदस भावधारा के दिग्गज है, राजेंद्र वर्मा उर्दू उरूज के उस्ताद हैं तो नरेश सक्सेना अपने राह बनाने वाले शिखर हस्ताक्षर हैं। शांत इनमें से किसी का अनुकरण, यहाँ तक कि अपने उस्ताद शायरे-आज़म कृष्ण बिहारी 'नूर' के शागिर्दे-ख़ास होने के बाद भी शायरी बुंदेली और हिंदी लेखन की राह खुद बनाते नज़र आते हैं। अपने प्रश्नों के उत्तर खुद तलाशने की प्रवृत्ति उन्हें उनके अभियंता है। लिपिकीय और अध्यापकीय प्रवृत्ति पीछे देखकर आगे बढ़ने की होती है। जो पहले चुका है, पुनरावृत्ति सहज, सरल शीघ्र परिणामदायी होने के बावजूद इंजीनियर को हर निर्माणस्थली पर भिन्न आधारभूमि, समस्याएँ और संसाधन चुनकर नव प्रविधि का चयन करना होता है। शांत जी अभियंता होने के नाते प्रकृति से निकटता से जुड़े हैं। प्रकृति मानवीय भाषा न जानते हुए बहुधा सब कुछ बोल देती है, बशर्ते आप प्रकृति से जुड़कर सुन-समझ सकें। नारी प्रकृति भी कहा जाता है। शांत जी कहते हैं-
तुमने बिन बोले
आँखों से
सब कुछ कह डाला।
सदियों से
प्यासे मरुथल को
कर डाला पानी-पानी।
जल को ही
मीठा कर खारेपन के
बदल दिए मानी।
होंठ बिना खोले
रिक्त किया
विष सिक्त प्याला।
विश्व ऊर्जा संकट से जूझ और ऊर्जा प्राप्ति के नए साधन खोज रहा है। ऊर्जा के लिए ईंधन और ईंधन की खपत पर्यावरण प्रदूषण का खतरा, शांत इंगित करते हैं -
साइकिल पर चल हैं
दीप से हम जल रहे हैं
गीत गाते हैं
गुनगुनाते हैं
ऊर्जा अपनी बचाते हैं।
'सत्य होता है चिरंतन' शीर्षक से शांत कहते हैं -
देख ले तू
करके चिंतन
सत्य चिरंतन
चाह तुझको है पुरातन
स्वर लहरियों की।
'नवता' के नवगीत और गीत नीर-क्षीर समरस हैं, उनके बीच में भारत की तरह सीमा रेखा खींची जा सकती। नवता के नवगीतकार को परिपक्व होने में समय लगेगा। संतोष की बात यह है कि वह सस्ती लोकप्रियता और शीघ्र फल प्राप्ति के लिए स्थापितों अंधानुकरण न कर अपनी राह आप बना रहा है।
१८.११.२०१९
***
दोहा सलिला 
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ।
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।
.
मन में क्या?, कैसे कहें? हो न सके अनुमान।
राजनीति के फेर में, फिल्मकार कुर्बान।।
.
बना बतंगड़ बात का, उडी खूब अफवाह
बना सत्य जाने करें, क्यों सद्भाव तबाह?
.
यह प्रसंग है ही नहीं, झूठ रहा है फ़ैल।
अपने चेहरे मल रहे, झूठे खुद ही मैल।।
.
सही-गलत जाने बिना, बेमतलब आरोप।
लगा, दिखाते नासमझ, अपनों पर ही कोप।।
१८.११.१७
...
मुक्तक
किसका मन है मौन?, मन पर वश किसका चला?
परवश कहिए कौन?, परवश होकर भी नहीं,
जड़ का मन है मौन, संयम मन को वश करे-
वश में पर के भौन।, परवश होकर भी नहीं।।
छंद: सोरठा
***
कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं ३
*
मुक्तिका
चलें साथ हम
(छंद- तेरह मात्रिक भागवत जातीय, अष्टाक्षरी अनुष्टुप जातीय छंद, सूत्र ययलग )
[बहर- फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२, यगण यगण लघु गुरु ]
*
चलें भी चलें साथ हम
करें दुश्मनों को ख़तम
*
न पीछे हटेंगे कदम
न आगे बढ़ेंगे सितम
*
न छोड़ा, न छोड़ें तनिक
सदाचार, धर्मो-करम
*
तुम्हारे-हमारे सपन
हमारे-तुम्हारे सनम
*
कहीं और है स्वर्ग यह
न पाला कभी भी भरम
१८.११.२०१६
***
नवगीत:
मैं लड़ूँगा....
.
लाख दागो गोलियाँ
सर छेद दो
मैं नहीं बस्ता तजूँगा।
गया विद्यालय
न वापिस लौट पाया
तो गए तुम जीत
यह किंचित न सोचो,
भोर होते ही उठाकर
फिर नये बस्ते हजारों
मैं बढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
खून की नदियाँ बहीं
उसमें नहा
हर्फ़-हिज्जे फिर पढ़ूँगा।
कसम रब की है
मदरसा हो न सूना
मैं रचूँगा गीत
मिलकर अमन बोओ।
भुला औलादें तुम्हारी
तुम्हें, मेरे साथ होंगी
मैं गढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उड़ा दूँगा
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ ।
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा
मैं खिलूँगा।
मैं लड़ूँगा....
...
लघुकथाएँ:
उत्सव
*
सड़क दुर्घटना, दम्पति की मौत, नन्ही बच्ची अनाथ पढ़ते-पढ़ते उसकी दृष्टी अपने नन्हीं बिटिया पर पड़ी.… मन में कोई विचार कौंधा और सिहर उठा वह, बिटिया को बांहों में भरकर चूम लिया…… पत्नी ने देखा तो कारण पूछा।
थोड़ी देर बाद तीनों पहुँचे कलेक्टर के कमरे में, कुछ लिखा-पढ़ी के बाद घर लौटे, दुर्घटना में माँ-बाप खो चुकी बिटिया के साथ.…
धीरे-धीरे चारों का जीवन बन गया एक उत्सव।
***
मानवाधिकार
*
राजमार्ग से आते-जाते विभाजक के एक किनारे पर उसे अक्सर देखते हैं लोग। किसे फुर्सत है जो उसकी व्यथा-कथा पूछे। कुछ साल पहले वह अपने माता-पिता, भाई-बहिन के साथ गरीबी में भी प्रसन्न हुआ करता था। एक रात वे यहीं सो रहे थे कि एक मदहोश रईसजादे की लहराती कार सोते हुई ज़िन्दगियों पर मौत बनकर टूटी। पल भर में हाहाकार मच गया, जब तक वह जागा उसकी दुनिया ही उजड़ गयी थी। कैमरों और नेताओं की चकाचौंध १-२ दिन में और साथ के लोगों की हमदर्दी कुछ महीनों में ख़त्म हो गयी।
एक पडोसी ने कुछ दिन साथ में रखकर उसे बेचना सिखाया और पहचान के कारखाने से बुद्धि के बाल दिलवाये। आँखों में मचलते आँसू, दिल में होता हाहाकार और दुनिया से बिना माँगे मिलती दुत्कार ने उसे पेट पालना तो सीखा दिया पर जीने की चाह नहीं पैदा कर सके। दुनियावी अदालतें बचे हुओं को कोई राहत न दे पाईं। रईसजादे को पैरवीकारों ने मानवाधिकारों की दुहाई देकर छुड़ा दिया लेकिन किसी को याद नहीं आया निरपराध मरने वालों का मानवाधिकार।
***
सच्चा उत्सव
*
उपहार तथा शुभकामना देकर स्वरुचि भोज में पहुँचा, हाथों में थमी प्लेटों में कहीं मुरब्बा दही-बड़े से गले मिल रहा था, कहीं रोटी पापड़ के गाल पर दाल मल रही थी, कहीं भटा भिन्डी से नैन मटक्का कर रहा था और कहीं इडली-सांभर को गुत्थमगुत्था देखकर डोसा मुँह फुलाये था।
इनकी गाथा छोड़ चले हम मीठे के मैदान में वहाँ रबड़ी के किले में जलेबी सेंध लगा रही थी, दूसरे दौने में गोलगप्पे आलूचाप को ठेंगा दिखा रहे थे।
जितने अतिथि उतने प्रकार की प्लेटें और दौने, जिस तरह सारे धर्म एक ईश्वर के पास ले जाते हैं वैसे ही सब प्लेटें और दौने कम खाकर अधिक फेंके गये स्वादिष्ट सामान को वेटर उठाकर बाहर कचरे के ढेर पर पहुँचा रहे थे।
हेलो-हाय करते हुए बाहर निकला तो देखा चिथड़े पहने कई बड़े-बच्चे और श्वान-शूकर उस भंडारे में अपना भाग पाने में एकाग्रचित्त निमग्न थे, उनके चेहरों की तृप्ति बता रही थी की यही है सच्चा उत्सव।
***
गणराज्य
*
व्यापम घोटाला समाचार पत्रों, दूरदर्शन, नुक्कड़ से लेकर पनघट हर जगह बना रहा चर्चा का केंद्र, बड़े-बड़ों के लिपटने के समाचारों के बीच पकड़े गए कुछ छुटभैये।
फिर आरम्भ हुआ गवाहों के मरने का क्रम लगभग वैसे ही जैसे श्री आसाराम बापू और अन्य इस तरह के प्रकरणों में हुआ।
सत्ताधारियों के सिंहासन डोलने और परिवर्तन के खबरों के बीच विश्व हिंदी सम्मेलन का भव्य आयोजन, चीन्ह-चीन्ह कर लेने-देने का उपक्रम, घोटाले के समाचारों की कमी, रसूखदार गुनहगारों का जमानत पर रिहा होना, समान अपराध के गिरफ्तार अन्य को जमानत न मिलना, सत्तासीनों के कदम अंगद के पैर की तरह जम जाना, समाचार माध्यमों से व्यापम ही नहीं छात्रवृत्ति और अन्य घोटालों की खबरों का विलोपित हो जाना, पुस्तक हाथ में लिए मैं कोशिश कर रहा हूँ किन्तु समझ नहीं पा रहा हूँ समानता, मौलिक अधिकारों और लोककल्याणकारी गणतांत्रिक गणराज्य का अर्थ।
***
अंध मोह
*
मध्य प्रदेश बांगला साहित्य अकादमी रजत जयंती समारोह मुख्य अतिथि वक्ता के नाते भाषा के उद्भव, उपादेयता, स्वर-व्यंजन, लिपि के विकास,विविध भाषाओँ बोलिओं के मध्य सामंजस्य, जीवन में भाषा की भूमिका, भाषा से आजीविका, अनुवाद, लिप्यंतरण तथा स्थानीय, देशज व् राष्ट्रीय भाषा में मध्य अंतर्संबंध जैसे जटिल और नीरस विषय को सहज बनाते हुए हिंदी में अपनी बात पूरी की. महिलाएं, बच्चे तथा पुरुष रूचि लेकर सुनते रहे, उनके चेहरों से पता चलता था कि वे बात समझ रहे हैं, सुनना चाहते हैं.
मेरे बाद भागलपुर से पधारे ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता बांगला प्रोफ़ेसर ने बांगला में बोलना प्रारम्भ किया। विस्मय हुआ की बांगलाभाषी जनों ने हिंदी में कही बात मन से सुनी किन्तु बांगला वक्तव्य आरम्भ होते ही उनकी रूचि लगभग समाप्त हो गयी, आपस में बात-चीत होने लगी. वोिदवान वक्त ने आंकड़े देकर बताया कि गीतांजलि के कितने अनुवाद किस-किस भाषा में हुए. शरत, बंकिम, विवेकानंद आदि कासाहित्य किन-किन भाषाओँ में अनूदित हुआ किन्तु यह नहीं बता सके कि कितनी भाषाओँ का साहित्य बांगला में अनूदित हुआ.
कोई कितना भी धनी हो उसके कोष से धन जाता रहे किन्तु आये नहीं तो तिजोरी खाली हो ही जाएगी। प्रयास कर रहा हूँ कि बांगला भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जाने लगे तो हम मूल रचनाओं को उसी तरह पढ़ सकें जैसे उर्दू की रचनाएँ पढ़ लेते हैं. लिपि के प्रति अंध मोह के कारण वे नहीं समझ पा रहे हैं मेरी बात का अर्थ
***
सहिष्णुता
*
'हममें से किसी एक में अथवा सामूहिक रूप से हम सबमें कितनी सहिष्णुता है यह नापने, मापने या तौलने का कोई पैमाना अब तक ईजाद नहीं हुआ है. कोई अन्य किसी अन्य की सहिष्णुता का आकलन कैसे कर सकता है? सहिष्णुता का किसी दल की हार - जीत अथवा किसी सरकार की हटने - बनने से कोई नाता नहीं है. किसी क्षेत्र में कोई चुनाव हो तो देश असहिष्णु हो गया, चुनाव समाप्त तो देेश सहिष्णु हो गया, यह कैसे संभव है?' - मैंने पूछा।
''यह वैसे हो संभव है जैसे हर दूरदर्शनी कार्यक्रमवाला दर्शकों से मिलनेवाली कुछ हजार प्रतिक्रियाओं को लाखों बताकर उसे देश की राय और जीते हुए उम्मीदवार को देश द्वारा चुना गया बताता है, तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती जबकि सब जानते हैं कि ऐसी प्रतियोगिताओं में १% लोग भी भाग नहीं लेते।'' - मित्र बोला।
''तुमने जैसे को तैसा मुहावरा तो सुना ही होगा। लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने ढेरों वायदे किये, जितने पर उनके दलाध्यक्ष ने इसे 'जुमला' करार दिया, यह छल नहीं है क्या? छल का उत्तर भी छल ही होगा। तब जुमला 'विदेशों में जमा धन' था, अब 'सहिष्णुता' है. जनता दोनों चुनावों में ठगी गयी।
इसके बाद भी कहीं किसी दल अथवा नेता के प्रति उनके अनुयायियों में असंतोष नहीं है, धार्मिक संस्थाएँ और उनके अधिष्ठाता समाज कल्याण का पथ छोड़ भोग-विलास और संपत्ति - अर्जन को ध्येय बना बैठे हैं फिर भी उन्हें कोई ठुकराता नहीं, सब सर झुकाते हैं, सरकारें लगातार अपनी सुविधाएँ और जनता पर कर - भार बढ़ाती जाती हैं, फिर भी कोई विरोध नहीं होता, मंडियां बनाकर किसान को उसका उत्पाद सीधे उपभोक्ता को बेचने से रोका जाता है और सेठ जमाखोरी कर सैंकड़ों गुना अधिक दाम पर बेचता है तब भी सन्नाटा .... काश! न होती हममें या सहिष्णुता।'' मित्र ने बात समाप्त की।
***
साँसों का कैदी
*
जब पहली बार डायलिसिस हुआ था तो समाचार मिलते ही देश में तहलका मच गया था। अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति और अनगिनत जनता अहर्निश चिकित्सालय परिसर में एकत्र रहते, डॉक्टर और अधिकारी खबरचियों और जिज्ञासुओं को उत्तर देते-देते हलाकान हो गए थे।
गज़ब तो तब हुआ जब प्रधान मंत्री ने संसद में उनके देहावसान की खबर दे दी, जबकि वे मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे। वस्तुस्थिति जानते ही अस्पताल में उमड़ती भीड़ और जनाक्रोश सम्हालना कठिन हो गया। प्रशासन को अपनी भूल विदित हुई तो उसके हाथ-पाँव ठन्डे हो गए। गनीमत हुई कि उनके एक अनुयायी जो स्वयं भी प्रभावी नेता थे, वहां उपस्थित थे, उन्होंने तत्काल स्थिति को सम्हाला, प्रधान मंत्री से बात की, संसद में गलत सूचना हेतु प्रधानमंत्री ने क्षमायाचना की।
धीरे-धीरे संकट टला.… आंशिक स्वास्थ्य लाभ होते ही वे फिर सक्रिय हो गए, सम्पूर्ण क्रांति और जनकल्याण के कार्यों में। बार-बार डायलिसिस की पीड़ा सहता तन शिथिल होता गया पर उनकी अदम्य जिजीविषा उन्हें सक्रिय किये रही। तन बाधक बनता पर मन कहता मैं नहीं हो सकता साँसों का कैदी।
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पिंजरा
*
परिंदे के पंख फ़ड़फ़ड़ाने से उनकी तन्द्रा टूटी, न जाने कब से ख्यालों में डूबी थीं। ध्यान गया कि पानी तो है ही नहीं है, प्यासी होगी सोचकर उठीं, खुद भी पानी पिया और कटोरी में भी भर दिया।
मन खो गया यादों में, बचपन, गाँव, खेत-खलिहान, छात्रावास, पढ़ाई, विवाह, बच्चे, बच्चों का बसा होना, नौकरी, विवाह और घर में खुद का अकेला होना। यह अकेलापन और अधिक सालने लगा जब वे भी चले गए कभी न लौटने के लिये। दुनिया का दस्तूर, जिसने सुना आया, धीरज धराया और पीठ फेर ली, किसी से कुछ घंटों में, किसी ने कुछ दिनों में।
अंत में रह गया बेटा, बहु तो आयी ही नहीं कि पोते की परीक्षा है, आज बेटा भी चला गया।
उनसे साथ चलने का अनुरोध किया किन्तु उन्हें इस औपचारिकता के पीछे के सच का अनुमान करने में देर न लगी, अनुमान सच साबित हुआ जब बेटे ने उनके दृढ़ स्वर में नकारने के बाद चैन की सांस ली।
चारों ओर व्याप्त खालीपन को भर रही थी परिंदे की आवाज़। 'बाई साब! कब लौं बिसूरत रैहो? उठ खें सपर ल्यो, मैं कछू बना देत हूँ। सो चाय-नास्ता कर ल्यो जल्दी से। जे आ गयी है जिद करके, जाहे सीखना है कछू, तन्नक बता दइयो' सुनकर चौंकी वह। देखा कामवाली के पीछे उसकी अनाथ नातिन छिप रही थी।
'कहाँ छिप रही है? यहाँ आ, कहते हुए हाथ बढ़ाकर बच्ची को खींच लिया अपने पास। क्या सीखेगी पूछा तो बच्ची ने इशारा किया हारमोनियम की तरफ। विस्मय से पूछा यह सीखेगी? अच्छा, सिखाऊँगी तुझे लेकिन तू क्या देगी मुझे?
सुनकर बच्ची ठिठकी कुछ सोचती रही फिर आगे बढ़कर दे दी एक पप्पी। पानी पीकर गा रही थी चिड़िया और मुस्कुरा रही बच्ची के साथ अब उन्हें घर नहीं लग रहा था पिंजरा।
१८.११.२०१५
***
नवगीत :
काल बली है
बचकर रहना
सिंह गर्जन के
दिन न रहे अब
तब के साथी?
कौन सहे अब?
नेह नदी के
घाट बहे सब
सत्ता का सच
महाछली है
चुप रह सहना
कमल सफल है
महा सबल है
कभी अटल था
आज अचल है
अनिल-अनल है
परिवर्तन की
हवा चली है
यादें तहना
ये इठलाये
वे इतराये
माथ झुकाये
हाथ मिलाये
अख़बारों
टी. व्ही. पर छाये
सत्ता-मद का
पैग ढला है
पर मत गहना
बिना शर्त मिल
रहा समर्थन
आज, करेगा
कल पर-कर्तन
कहे करो
ऊँगली पर नर्तन
वर अनजाने
सखा पुराने
तज मत दहना
१८.११.२०१४
***