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बुधवार, 6 नवंबर 2024

नवंबर ६, नासदीय सूक्त, कृष्णमोहन छन्द, अमरकंटक छंद, सोरठा गीत, नरक चौदस

सलिल सृजन नवंबर ६ 

सोरठा गीत
कली रखे यदि शूल, कुसुम वीर हो देश में।
कोई सके न भूल, देख बदनीयत से उसे।।
*
तम का करते अंत, तभी रहें जब साथ मिल।
दीपक बाती तेल, ज्योति न होते जब अलग।।
मार मिलातीं धूल, असुरों को दुर्गा शुभे।
सिंह देता रद हूल, कर गर्जन अरि वक्ष में।।
*
चाह रहा है देश, नारी बदले भूमिका।
धारे धारिणी वेश, शुभ-मंगल कर भूमि का।।
वन हों नदिया कूल, शांति स्वच्छता पा विहग।
नभ-सागर मस्तूल, फहराए निज परों के।।
*
पंचतत्व रख शुद्ध, पंच पर्व हम मनाएँ।
करें अनय से युद्ध, विजय विनय को दिलाएँ।।
सुख सपनों में झूल, समय गँवाएँ व्यर्थ मत।
जमा जमीं में मूल, चलो!छुएँ आकाश हम।।
६-११-२०२१
***
हिन्दी के नये छंद १३
अमरकंटक छंद
विधान-
1. प्रति पंक्ति 7 मात्रा
2. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम लघु लघु लघु गुरु लघु लघु
गीत
नरक चौदस
.
मनुज की जय
नरक चौदस
.
चल मिटा तम
मिल मिटा गम
विमल हो मन
नयन हों नम
पुलकती खिल
विहँस चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
घट सके दुःख
बढ़ सके सुख
सुरभि गंधित
दमकता मुख
धरणि पर हो
अमर चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
विषमता हर
सुसमता वर
दनुजता को
मनुजता कर
तब मने नित
विजय चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
मटकना मत
भटकना मत
अगर चोटिल
चटकना मत
नियम-संयम
वरित चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
बहक बादल
मुदित मादल
चरण नर्तित
बदन छागल
नरमदा मन
'सलिल' चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस

६-११-२०१८
.......
मुक्तक
*
स्नेह का उपहार तो अनमोल है
कौन श्रद्धा-मान सकता तौल है?
भोग प्रभु भी आपसे ही पा रहे
रूप चौदस भावना का घोल है
*
स्नेह पल-पल है लुटाया आपने।
स्नेह को जाएँ कभी मत मापने
सही है मन समंदर है भाव का
इष्ट को भी है झुकाया भाव ने
*
'फूल' अंग्रेजी का मैं, यह जानता
'फूल' हिंदी की कदर पहचानता
इसलिए कलियाँ खिलाता बाग़ में
सुरभि दस दिश हो यही हठ ठानता
*
उसी का आभार जो लिखवा रही
बिना फुरसत प्रेरणा पठवा रही
पढ़ाकर कहती, लिखूँगी आज पढ़
साँस ही मानो गले अटका रही
२९.१०.२०१७
***
हिंदी के नए छंद १२
कृष्णमोहन छन्द
विधान-
1. प्रति पंक्ति 7 मात्रा
2. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम गुरु लघु गुरु लघु लघु
गीत
रूप चौदस
.
रूप चौदस
दे सदा जस
.
साफ़ हो तन
साफ़ हो मन
हों सभी खुश
स्वास्थ्य है धन
बो रहा जस
काटता तस
बोलती सच
रूप चौदस.
.
है नहीं धन
तो न निर्धन
हैं नहीं गुण
तो न सज्जन
ईश को भज
आत्म ले कस
मौन तापस
रूप चौदस.
.
बोलना तब
तोलना जब
राज को मत
खोलना अब
पूर्णिमा कह
है न 'मावस
रूप चौदस
.
मैल दे तज
रूप जा सज
सत्य को वर
ईश को भज
हो प्रशंसित
रूप चौदस
.
वासना मर
याचना मर
साथ हो नित
साधना भर
हो न सीमित
हर्ष-पावस
साथ हो नित
रूप चौदस
.......
१८-१०-२०१७
***
कार्यशाला
रचना-प्रतिरचना
*
रचना
ग़ज़ल - प्राण शर्मा
----------
देश में छाएँ न ये बीमारियाँ
लोग कहते हैं जिन्हें गद्दारियाँ
+
ऐसे भी हैं लोग दुनिया में कई
जिनको भाती ही नहीं किलकारियाँ
+
क्या ज़माना है बुराई का कि अब
बच्चों पर भी चल रही हैं आरियाँ
+
राख में ही तोड़ दें दम वो सभी
फैलने पाएँ नहीं चिंगारियाँ
+
`प्राण`तुम इसका कोई उत्तर तो दो
खो गयी हैं अब कहाँ खुद्दारियाँ
+
प्रतिरचना
मुक्तिका - संजीव
*
हैं चलन में आजकल अय्यारियाँ
इसलिए मुरझा रही हैं क्यारियाँ
*
पश्चिमी धुन पर थिरकती है कमर
कौन गाये अब रसीली गारियाँ
*
सूक्ष्म वसनों का चलन ऐसा चला
बदन पर खीचीं गयीं ज्यों धारियाँ
*
कान काटें नरों के बचकर रहो
अब दुधारी हो रही हैं नारियाँ
*
कौन सोचे देश-हित की बात अब
खेलते दल आत्म-हित की पारियाँ
*
***
गीत
*
जीवन की बगिया में
महकाये मोगरा
पल-पल दिन आज का।
*
श्वास-श्वास महक उठे
आस-आस चहक उठे
नयनों से नयन मिलें
कर में कर बहक उठे
प्यासों की अँजुरी में
मुस्काये हरसिंगार
छिन-छिन दिन आज का।
*
रूप देख गमक उठे
चेहरा चुप चमक उठे
वाक् हो अवाक 'सलिल'
शब्द-शब्द गमक उठे
गीतों की मंजरी में
खिलखलाये पारिजात
गिन -गिन दिन आज का।
*
चुप पलाश दहक उठे
महुआ सम बहक उठे
गौरैया मन संझा
कलरव कर चहक उठे
मादक मुस्कानों में
प्रमुदित हो अमलतास
खिल-खिल दिन आज का।
***
मुक्तक
नींद उड़ानेवाले तेरे सपनों में सँग-साथ रहूँ
जो न किसी ने कह पायी हो, मन ही मन वह बात कहूँ
मजा तभी बिन कहे समझ ले, वह जो अब तक अनजाना
कही-सुनी तो आनी-जानी, सोची-समझी बात तहूँ
६-११-२०१६
***
कुण्डलिया
मन से मन रखते मिले, जनगण करें न भेद.
नेता भ्रम फैला रहे, नाहक- है यह खेद..
नाहक है यह खेद, पचा वे हार न पाये
सहनशीलता भूल और पर दोष लगाएं
पोल खुल रही फिर भी सबक न लें जीवन से
गयीं सोनिया उतर ' सलिल' जनता के मन से
६-११-२०१५
***
मुक्तक:
हमको फ़ख़्र आप पर है, हारिए हिम्मत नहीं
दूरियाँ दिल में नहीं, हम एक हैं रखिये यकीं
ज़िन्दगी ज़द्दोज़हद है, जीतना ही है हमें
ख़त्म कर सब फासले, हम एक होंगे है यकीं
६-११-२०१४
***
नासदीय सूक्त
Nasadiya Sukta (called Hymn of Creation in the West)

नासदासींनॊसदासीत्तदानीं नासीद्रजॊ नॊ व्यॊमापरॊ यत् ।
किमावरीव: कुहकस्यशर्मन्नभ: किमासीद्गहनं गभीरम् ॥१॥

Then even nothingness was not, nor existence,
There was no air then, nor the heavens beyond it.
What covered it? Where was it? In whose keeping
Was there then cosmic water, in depths unfathomed?

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या।आन्ह।आसीत् प्रकॆत: ।
आनीदवातं स्वधया तदॆकं तस्माद्धान्यन्नपर: किंचनास ॥२॥

Then there was neither death nor immortality
nor was there then the torch of night and day.
The One breathed windlessly and self-sustaining.
There was that One then, and there was no other.

तम।आअसीत्तमसा गूह्ळमग्रॆ प्रकॆतं सलिलं सर्वमा।इदम् ।
तुच्छॆनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकम् ॥३॥

At first there was only darkness wrapped in darkness.
All this was only unillumined water.
That One which came to be, enclosed in nothing,
arose at last, born of the power of heat.

कामस्तदग्रॆ समवर्तताधि मनसॊ रॆत: प्रथमं यदासीत् ।
सतॊबन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयॊ मनीषा ॥४॥

In the beginning desire descended on it -
that was the primal seed, born of the mind.
The sages who have searched their hearts with wisdom
know that which is is kin to that which is not.

तिरश्चीनॊ विततॊ रश्मीरॆषामध: स्विदासी ३ दुपरिस्विदासीत् ।
रॆतॊधा।आसन्महिमान् ।आसन्त्स्वधा ।आवस्तात् प्रयति: परस्तात् ॥५॥

And they have stretched their cord across the void,
and know what was above, and what below.
Seminal powers made fertile mighty forces.
Below was strength, and over it was impulse.

कॊ ।आद्धा वॆद क‌।इह प्रवॊचत् कुत ।आअजाता कुत ।इयं विसृष्टि: ।
अर्वाग्दॆवा ।आस्य विसर्जनॆनाथाकॊ वॆद यत ।आबभूव ॥६॥

But, after all, who knows, and who can say
Whence it all came, and how creation happened?
the gods themselves are later than creation,
so who knows truly whence it has arisen?

इयं विसृष्टिर्यत ।आबभूव यदि वा दधॆ यदि वा न ।
यॊ ।आस्याध्यक्ष: परमॆ व्यॊमन्त्सॊ आंग वॆद यदि वा न वॆद ॥७॥

Whence all creation had its origin,
he, whether he fashioned it or whether he did not,
he, who surveys it all from highest heaven,
he knows - or maybe even he does not know.
RV 10.130

The Nasadiya Sukta (after the incipit ná ásat "not the non-existent") also known as the Hymn of Creation is the 129th hymn of the 10th Mandala of the Rigveda (10:129). It is concerned with cosmology and the origin of the universe
***
दोहा
जड़ पकड़े चेतन तजे, हो खयाल या माल
'सलिल' खलिश आनंद दे, झूमो दे-दे ताल
यमकीय दोहा
फेस न करते फेस को, छिपते फिरते नित्य
बुक न करें बुक फोकटिया, पाठक 'सलिल' अनित्य
६-११-२०१३
***

मंगलवार, 5 नवंबर 2024

नवंबर ५, नवगीत, नर्मदा, लघुकथा, मुक्तक, हंसवाहिनी, मधुकामिनी

सलिल सृजन नवंबर ५
*
बारहमासा : सांसारिक और आध्यात्मिक मिलन-विरह का काव्य 
वस्तुतः मानव का प्रकृति के साथ बुनियादी सम्बन्ध का भारतीय दृष्टिकोण विश्व- प्रसिद्ध है। यही सम्बन्ध हमारे देश की काव्यकला, चित्रकला, मूर्तिकला और संगीत आदि ललित कलाओं में परिलक्षित होता है। प्रकृति के नैसर्गिक वातावरण में रहते हुए हमारे भविष्यदर्शी ऋषि-मुनियों ने प्रतिदिन होने वाले उषाः काल, संध्या, रात्रि, प्रकाश और अंधकार आदि प्राकृतिक उपादानों की शाश्वत लय का गहन अध्ययन किया। सतत चिंतन, मनन और सूक्ष्म निरीक्षण द्वारा उन्होंने जाना कि धरती- आकाश, सूर्य-चन्द्रमा, ग्रह-नक्षत्र, प्रकृति- वनस्पति आदि सभी का आपसी तारतम्य है और ये सभी एक लय से बंधे हुए हैं। इस तरह हमारे जागरूक और सूक्ष्मदर्शी मनीषियों ने कुदरत की दैनिक लय और ऋतु परिवर्तन को वार्षिक चक्र में परिवर्तित कर दिया । धीरे-धीरे निश्चित व शुद्ध रूप में ऋतुओं का आध्यात्मिक व दार्शनिक महत्त्व और कार्यप्रणाली की भौतिक स्थितिके लक्षण और आध्यात्मिक दर्शन की जानकारी विदित हुई । वर्ष के बारह महीनों में सभी ऋतुएँ नियमित बारी-बारी से आ जाती हैं। इन सभी ऋतुओं का अपनी-अपनी जगह महत्त्व है। इन सभी ऋतुओं का वर्णन कविता, साहित्य व ललित कलाओं में कितने प्राचीन काल से हो रहा है।

बारहमासा (पंजाबी में बारहमाहा) मूलतः विरह प्रधान लोकसंगीत है। वह पद्य या गीत जिसमें बारह महीनों की प्राकृतिक विशेषताओं का वर्णन किसी विरही या विरहनी के मुँह से कराया गया हो। मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित पद्मावत तथा बीसल देव रासो में सबसे पहले बारहमासा मिलता है। वर्ष भर के बारह माहों में नायक-नायिका की शृंगारिक विरह एवं मिलन की क्रियाओं के चित्रण को बारहमासा कहा जाता है। श्रावण मास में हरे-भरे वातावरण में नायक-नायिका के काम-भावों को वर्षा के भींगते हुए रूपों में, ग्रीष्म के वैशाख एवं ज्येष्ठ मास की गर्मी में पंखों से नायिका को हवा करते हुए नायक-नायिकाओं के स्वरूप आदि उल्लेखनीय है। जब किसी स्त्री का पति परदेश चला जाता है और वह दुखी मन से अपने सखी को बारह महीने की चर्चा करती हुई कहती है कि पति के बिना हर मौसम व्यर्थ है। इस गीत में वह अपनी दशा को हर महीने की विशेषता के साथ पिरोकर रखती है। ऐतिहासिक दृष्टि से बारहमासा, संस्कृत साहित्य के षडऋतु वर्णन की राह का काव्य है।कालिदास का ऋतुसंहार षडऋतुवर्णन ही है। हिन्दी में मलिक मोहम्मद जायसी कृत पद्मावत में 'नागमती वियोग-वर्णन' बारहमासा का प्रसिद्ध उदाहरण है।

अगहन दिवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर रैनि जाइ किमि काढ़ी॥
अब यहि बिरह दिवस भा राती। जरौं बिरह जस दीपक बाती॥
काँपै हिया जनावै सीऊ। तो पै जाइ होइ सँग पीऊ॥
घर-घर चीर रचे सब का। मोर रूप रंग लेइगा ना॥
पलटि न बहुरा गा जो बिछाई। अबँ फिरै फिरै रँग सोई॥
बज्र-अगिनि बिरहिनि हिय जारा। सुलुगि-सुलुगि दगधै होइ छारा॥
यह दु:ख-दगध न जानै कंतू। जोबन जनम करै भसमंतू॥
पिउ सों कहेहु संदेसडा हे भौरा! हे काग!
जो घनि बिरहै जरि मुई तेहिक धुवाँ हम्ह लाग॥

पूस जाड थर-थर तन काँपा। सूरुज जाइ लंकदिसि चाँपा॥
बिरह बाढ दारुन भा सीऊ। कँपि-कँपि मरौं लेइ-हरि जीऊ ॥
कंत कहा लागौ ओहि हियरे। पंथ अपार सूझ नहिं नियरे॥
सौंर सपेती आवै जूडी। जानहु सेज हिवंचल बूडी॥
चकई निसि बिछुरै दिन मिला। हौं दिन रात बिरह कोकिला॥
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसे जियै बिछोही पँखी॥
बिरह सचान भयउ तन जाडा। जियत खाइ और मुए न छाँडा॥
रकत ढुरा माँसू गरा हाड भएउ सब संख।
धनि सारस होइ ररि मुई आई समेटहु पंख॥

लागेउ माघ परै अब पाला। बिरहा काल भएउ जड काला॥
पहल-पहल तन रुई जो झाँपै। हहरि-हहरि अधिकौ हिय काँपै॥
नैन चुवहिं जस माहुटनीरू। तेहि जल अंग लाग सर-चीरू॥
टप-टप बूँद परहिं जस ओला। बिरह पवन होई मारै झोला॥
केहिक सिंगार को पहिरु पटोरा? गीउ न हार रही होई होरा॥
तुम बिनु काँपौ धनि हिया तन तिनउर-भा डोल।
तेहि पर बिरह जराई कै चहै उडावा झोल॥

फागुन पवन झकोरा बहा। चौगुन सीउ जाई नहिं सहा॥
तन जस पियर पात भा मोरा। तेहि पर बिरह देइ झझकोरा॥
परिवर झरहि झरहिं बन ढाँखा। भई ओनंत फूलि फरि साखा॥
करहिं बनसपति हिये हुलासू। मो कह भा जग दून उदासू।
फागु करहिं सब चाँचरि जोरी। मोहि तन लाइ दीन्हि जस होरी॥
जौ पै पीउ जरत अस पावा। जरत मरत मोहिं रोष न आवा॥
राति-दिवस बस यह जिउ मोरे। लगौं निहोर कंत अब तोरे॥
यह तन जारौं छार कै कहौ कि "पवन उडाउ।
मकु तेहि मारग उडि पैरों कंत धरैं जहँ पाँउ॥
*
बारहमासा- तुलसी साहब 

सत सावन बरषा भई, सुरत बही गंगधार।
गगन गली गरजत चली, उतरी भौजल पार॥

भादौं भजन बिचारिया, शब्दहि सुरत मिलाप।
आप अपनपौ लख पड़े, छूटे छल बल पाप॥

कुसल क्वार सतसंग में, रंग रँगो सतनाम।
और काम आवें नहीं, तिरिया सुत धन धाम॥

कातिक करतब जब बने, मन इन्द्री सुख त्याग।
भोग भरम भवरस तजै, छूटै तब लव लाग॥

अगहन अमी रस बस रहौ, अमृत चुवत अपार।
पाँइ परसि गुरु को लखौ, होय परम पद पार॥

पूस ओस जल बुंद ज्यों, बिनसत बदन विचार।
तन बिनसे पावे नहीं, नर तन दुर्लभ छार॥

माह महल पिया को लखो, चखो अमर रस सार।
वार पार पद पेखिया, सत्त सुरत की लार॥

फिर फागुन सुन में तको, शब्दा होत रसाल।
निरख लखौ दुरबीन से, ज्यों मत मीन निहाल॥

चैत चेत जग झूठ है, मत भरमो भव जाल।
काल हाल सिर पर खड़ा, छूटे तन धन माल॥

सुनो साख बैसाख की, भाषि गुरुन गति गाय।
सब संतन मत की कहूँ, बूझें सत मत पाय॥

जबर जेठ जग रीति है, प्रीति परस रस जान।
आन बात बस ना रहौ, सब मति गति पहिचान॥

जो असाढ़ अरजी करौ, धरो संत श्रुति ध्यान।
ज्ञान मान मति छांड़ के, बूझौ अकथ अनाम॥

बारह मास मत भापिया, जानें संत सुजान।
तुलसिदास विधि सब कही, छूटै चारौ खान॥

सत्त यानी सत साहेब (तुलसी साहब) फ़रमाते हैं कि सावन में वर्षा होती है और सुरत की धार गंगा की धार की तरह गरजती हुई गगन की गली की ओर चलती है और भव जल के पार पहुँचती है। भादों का महीना भजन में लगने का जिससे सुरत अपने पिया से मिलती है और अपने रूप को लखती है। सब छल बल और पाप नष्ट हो जाते हैं। अश्विन के महीने में जीव का भला इसी में है कि सतसंग करे और सत्तनाम के रंग में रंग जावे। सत्तनाम के अलावा और कोई जैसे तिरिया, सुत, धन-धाम इत्यादि काम नहीं आएगा। इनमें नहीं फँसना चाहिए। कार्तिक के महीने में इसका काम पूरा होगा, जब यह मन और इंद्रियों के सुखों का परित्याग कर देगा। जब यह दुनिया के भरम और रस को छोड़ेगा तब इसकी संसार की लाग छूटेगी। अगहन में अमृत की अपार धार टपक रही है। उसके आनंद में मगन रहो। गुरु के दर्शन पाकर और चरण स्पर्श कर भवसागर के पार परम पद में पहुँचोगे। पूस मास में इस बात को समझो कि शरीर पानी के ओले की तरह नाश होने वाला है। जब तन नाश हो जाएगा तो अपना उद्देश्य कैसे पाओगे? यह नर शरीर जो अति दुर्लभ है, वृथा बरबाद जाएगा। माघ में पिया के महल को लखो और सच्चा अमर आनंद प्राप्त करो। तब तुम्हें सुरत से वह देश जो भवसागर के पार है, दिखलाई पड़ेगा। फिर फागुन मास में सुन्न में पहुँचकर उसे लखो जहाँ मधुर शब्द हो रहा है। दूरबीन से उसको निरखो और जैसे मछली पानी में मगन होती है उस तरह मगन होओ। चैत के महीने में चेतो और समझो कि यह जगत झूठा है। इसके जाल में मत फँसो और मत भरमो। काल तुम्हारे सिर पर घात करने को खड़ा है और एक दिन तुम्हारा तन और धन माल सब छूट जाएगा। बैसाख में जीवों की साख का हाल सुनो जो संत दया करके फ़रमाते हैं। मैं सब संतों के मत का वर्णन करता हूँ। अगर कोई संत मत को धारण करे तो वह मेरी बात समझ सकता है। जगत का हाल जेठ महीने की तरह तपन देने वाला और दुखदाई है। तुम इस बात को जानो कि शब्द के परस से प्रेम का सुख प्राप्त होता है। अन्य बातों के वशीभूत मत होओ और सत्त मत की गति को पहचानो यानी संत मत को बूझो। असाढ़ महीने में प्रार्थना करो और सुरत से संतों का ध्यान करो। वाचक ज्ञान में अहंकार की मति छोड़कर अकथ और अनाम मालिक को बूझो। मैंने जो कुछ बारहमास का वर्णन किया है उसे संत जानते हैं। तुलसी साहब फ़रमाते हैं कि मैंने सब विधि बयान की है। उसके अनुसार जो चले, उसका चारों खान में भरमना छूट जाएगा।
***
रुकें और दूसरों के बारे में सोचें 

"कौन बनेगा करोड़पति" के एक एपिसोड में, "फास्टेस्ट फिंगर" राउंड में सबसे तेज जवाब देकर नीरज सक्सेना ने हॉट सीट पर जगह बनाई। वह बहुत शांति से बैठे रहे, न चिल्लाए, न नाचे, न रोए, न हाथ उठाए और न ही अमिताभ को गले लगाया। नीरज एक वैज्ञानिक, पी-एच. डी., कोलकाता में एक विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। उनका व्यक्तित्व सरल और सौम्य है। उन्होंने खुद को सौभाग्यशाली माना कि उन्हें डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम के साथ काम करने का अवसर मिला। उन्होंने बताया कि शुरू में वे केवल खुद के बारे में सोचते थे, लेकिन कलाम के प्रभाव में उन्होंने दूसरों और राष्ट्र के बारे में भी सोचना शुरू किया।

नीरज ने खेलते हुए एक बार ऑडियंस पोल का उपयोग किया, लेकिन उनके पास "डबल डिप" लाइफलाइन होने के कारण उसे दोबारा इस्तेमाल करने का मौका मिला। उन्होंने सभी सवालों का आसानी से जवाब दिया।  उनकी बुद्धिमत्ता प्रभावित करने वाली थी। उन्होंने ₹ ३,२०,००० और इसके बराबर बोनस राशि जीती, फिर एक ब्रेक हुआ। ब्रेक के बाद, अमिताभ ने घोषणा की, "आइए आगे बढ़ते हैं, डॉक्टर साहब। यह रहा ग्यारहवाँ सवाल..." तभी नीरज ने कहा, "सर, मैं क्विट करना चाहूँगा।" अमिताभ चौंक गए। इतना अच्छा खेल, तीन लाइफलाइन बची हुईं, एक करोड़ रुपए जीतने का अच्छा मौका , फिर भी नीरज खेल छोड़ रहे थे? अमिताभ ने कारण पूछते हुए कहा- ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।  

नीरज ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया, "अन्य खिलाड़ी इंतजार कर रहे हैं और वे मुझसे छोटे हैं। उन्हें भी एक मौका मिलना चाहिए। मैंने पहले ही काफी पैसा जीत लिया है। मुझे लगता है 'जो मेरे पास है, वह पर्याप्त है।' मुझे और की चाह नहीं है।" अमिताभ स्तब्ध रह गए, और कुछ समय के लिए सन्नाटा छा गया। फिर सभी खड़े होकर उनके लिए लंबे समय तक तालियाँ बजाते रहे। अमिताभ ने कहा- "आज हमने बहुत कुछ सीखा। ऐसा व्यक्ति दुर्लभ होता है।'' सच कहूँ तो, पहली बार मैंने किसी को ऐसे मौके के सामने देखा है, जो दूसरों को मौका देने और जो उसके पास है उसे पर्याप्त मानने की सोच रखता है। मैंने उन्हें मन ही मन सलाम किया। 

आज के समय में लोग केवल पैसे के पीछे भाग रहे हैं। चाहे जितना भी कमा लें, संतोष नहीं मिलता और लालच कभी खत्म नहीं होता। वे पैसे के पीछे परिवार, नींद, खुशी, प्यार, और दोस्ती खो रहे हैं। ऐसे समय में, डॉ. नीरज सक्सेना जैसे लोग एक याद दिलानेवाले बनकर आते हैं। इस दौर में संतुष्ट और निस्वार्थ लोग मिलना कठिन है। नीरज के खेल छोड़ने के बाद, एक लड़की ने हॉट सीट पर जगह बनाई और अपनी कहानी साझा की: "मेरे पिता ने हमें, मेरी माँ सहित, सिर्फ इसलिए घर से निकाल दिया क्योंकि हम तीन बेटियाँ हैं। अब हम एक अनाथालय में रहते हैं..."

अगर नीरज ने खेल न छोड़ा होता, तो आखिरी दिन होने के कारण किसी और को मौका नहीं मिलता। उनके त्याग के कारण इस गरीब लड़की को कुछ पैसे कमाने का अवसर मिला। आज के समय में लोग अपनी विरासत में से एक पैसा भी छोड़ने को तैयार नहीं होते। हम संपत्ति के लिए झगड़े और यहां तक कि हत्याएं भी देखते हैं। स्वार्थ का बोलबाला है। लेकिन यह उदाहरण एक अपवाद है। भगवान नीरज जैसे लोगों में निवास करते हैं, जो दूसरों और देश के बारे में सोचते हैं। 
***

● मधुकामिनी के पौधे को ६-७ घंटे धूप की आवश्यकता होती है।

● मधुकामिनी को अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी में लगाए, पानी बिल्कुल एकत्र न हो। खेत की मिट्टी ५०%+ वर्मीकम्पोस्ट/ गोबर की खाद ३०% + बालू/ कोकोपीट २०%, एक मुट्ठी नीम खली, एक चम्मच बोनमील/राॅक फास्फेट और १-२ चम्मच जाइम (zyme) मिलाएँ।

● मधुकामिनी मार्च-अप्रैल से लेकर अक्टूबर-नवम्बर तक फूलती है। फूल खिलकर सूख जाए तो उसके टिप्स काट दें, इससे नई शाखाएँ और अधिक फूल निकलते हैं।

● फूल खिल चूकने के बाद मार्च-अप्रैल और बरसात में इसकी फुनगियाँ अलग (सेमी-हार्ड प्रूनिंग) कर दें, इससे पौधा सघन बनकर फूल ज्यादा आते हैं। दिसंबर-फरवरी तक डोरमेंसी पीरियड (सुप्तावस्था) में मधुकामिनी की प्रूनिंग न करें, न ही खाद दें।

● मधुकामिनी फूलने के लिए पोटैशियम रिच फर्टिलाइजर (आर्गेनिक फर्टिलाइजर: केले के छिलके, प्याज के छिलके और उपयोग के बाद धोई हुई चायपत्ती को एक लीटर पानी में डालकर ३-४ दिन तक सड़ने (डिकम्पोस्ट होने) के बाद छानकर २ लीटर पानी मिलाकर, हर १५ दिन बाद पौधों में डालें) या केमिकल फर्टिलाइजर( पोटेशियम नाइट्रेट, म्यूरेट ऑफ़ पोटाश या N:P:K ०:५२:३४ की २ ग्राम/ लीटर मात्रा पानी में मिलाकर पौधे की पत्तियों पर छिड़कें। कुछ समय बाद आपके मधुकामिनी में फूल आना शुरू हो जाएंगे।

● साल में दो बार मार्च-अप्रैल और सितंबर-अक्टूबर में सरसों की खली का लिक्विड फर्टिलाइजर (१०० ग्राम सरसों की खली १ लीटर पानी में अच्छे से मिलाकर ४-५ दिन सड़ने दें, तैयार घोल को १० लीटर पानी में मिलाकर पौधे की मिट्टी में डालें। ८-१० दिनों में आपके पौधे में कोंपलें और कलियाँ आने लगेंगी।
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मुक्तक 
हो जिनका कुल श्रेष्ठ, बाँधते संबंधों के बंध
हिलमिल रहते साथ, निभाते नातों के अनुबंध 
सत्य सनातन प्रीति पुरातन, सदा साध्य हो उनको-
राज करें राजेन्द्र सदृश,  तोड़ें कुरीति-तटबंध 
५.११.२०२४ 
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हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी, अम्ब विमल मति दे......
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।
जग सिरमौर बनाएँ भारत,
वह बल विक्रम दे।
वह बल विक्रम दे ।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे। अम्ब विमल मति दे ।।१।।
साहस शील हृदय में भर दे,
जीवन त्याग-तपोमय कर दे,
संयम सत्य स्नेह का वर दे,
स्वाभिमान भर दे।
स्वाभिमान भर दे ।।२।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।
लव, कुश, ध्रुव, प्रहलाद बनें हम
मानवता का त्रास हरें हम,
सीता, सावित्री, दुर्गा माँ,
फिर घर-घर भर दे।
फिर घर-घर भर दे ।।३।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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लघुकथा
मुस्कुराहट
*
साहित्यकारों की गोष्ठी में अखबारों तथा अंतर्जाल पर नकारात्मक समाचारों के बाहुल्य पर चिंता व्यक्त की गई। हर अखबार और चैनल की वैचारिक प्रतिबद्धता को स्वतंत्र चेतना हेतु घातक बताते हुए सभी विचारधाराओं और असहमत जनों के प्रति सहिष्णुता पर बल दिया गया।
नेताओं पर अपने विचारों के पिंजरे में कैद रहने की प्रवृत्ति की कटु आलोचना करते हुए, विविध विचारों के समन्वय पर बल दिया गया।
एक साहित्यकार ने पटल पर कुछ अन्य साहित्यकारों द्वारा भिन्न विधा संबंधी शंका-समाधान पर प्रश्न उठाते हुए निंदा प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया। प्रश्नकर्ता कहता ही रह गया कि एक विधा मुख्य होते हुए भी भिन्न विधाओं की चर्चा करना, जानकारी लेना-देना अपराध नहीं है। सब विधाएँ एक-दूसरे की पूरक हैं किंतु आपत्तिकर्ता शांत होने के स्थान पर अधिकाधिक उग्र होते गए। विवश संयोजक ने शांति स्थापित करने हेतु एक को छोड़कर अन्य विधाओं को प्रतिबंधित कर दिया।
कोने में रखी, मकड़जाल में कैद सरस्वती प्रतिमा के अधरों पर विचार और आचार के विरोधाभास को देख, झलक रही थी व्यंग्यपरक मुस्कुराहट।
५-११-२०१९
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भूगोलीय मुक्तक
*
धरती गोल-गोल हैं, बातें धत्तेरे की।
वादे-पर्वत पोले, घातें धत्तेरे की।।
लोकहितों की नदिया, करे सियासत गंदी
अमावसी पूनम की रातें धत्तेरे की।।
*
आसमान में ग्रह-उपग्रह करते हैं दंगा।
बने नवग्रह-पति जो नाचे होकर नंगा।।
दावानल-बड़वानल पक्ष-विपक्ष बने हैं-
भाटा-ज्वार समुद-संसद में लेते पंगा।।
*
पत्रकारिता भूकंपी सनसनी बन गई।
ज्वालामुखी सियासत जनता झुलस-भुन गई।।
धूमकेतु बोफोर्स-रफाल न पिंड छूटता-
धर्म-ध्वजा झुक काम-लोभ के पंक सन गई।।
*
महासागरी तूफानों सा जनाक्रोश है।
आइसबर्गों सम पिघलेगा किसे होश है?
दिग-दिगंत काँपेंगे, जब प्रकृति रौंदेगी-
तिनके सम मिट जाएगा जो उठा जोश है।।
*
सूर्य-चंद्र नैतिक मूल्यों पर लगा ग्रहण है।
आय और आवश्यकता में भीषण रण है।।
सच अभिमन्यु शहीद, स्वार्थ-संशप्तक विजयी-
तंत्र-प्रशासन दांव सम्मुख मानव तृण है।।
५.११.२०१८
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एक रचना:
जमींदार
*
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
.
इन्हें किया था नामजद
किसी शाह ने रीझ.
बख्शी थी जागीर कह
'कर मनमानी खूब.
पाल-पोस चेले बढ़ा
कह औरों को दूब.
बदल समय के साथ मत
खुद पर खुद ही खीझ.
लँगड़ा करता है सफर
खुद की बाजू थाम.
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
.
बँधवाया, अब बाँधना
तू गंडा-ताबीज़.
शब्द न समझें लोग जो
लिखना खोज अजूब.
गलत और का सही भी
कहना मद में डूब.
निज पीड़ा संवेदना
दर्द अन्य का चीज.
दाम-नाम के लिये कर
शब्दों का व्यायाम.
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
*
पंक्ति एक की तीन कर
तुक को मान कनीज़
तोड़ छंद को, सुनाते
निज प्रशस्ति बिन ऊब.
खामी को खूबी कहें
मठाधीश मंसूब।
पेट पूज कोई करे
जैसे पूजन तीज.
श्रेष्ठ बताते आप को
आप, अन्य बेनाम
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
***
मुक्तिका:
*
ज़िंदगी जीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
होंठ हँस सीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
क्या कहे? कैसे कहें? किससे कहें? बहरा समय
अश्रु चुप पीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
तुहिन, ओले, आग, बरखा, ठंड, गर्मी या तुषार
झेलते रीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
मिल तो अंगूर मीठे, ना मिले खट्टे हुए
फेंकते तीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
सत्य से साक्षात् कर ये ज़िंदगी दूभर हुई
राम तज सीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
नहीं अबला, ना बला, सबला लगाते पार हम
पल नहीं बीते रहे हम पुस्तकों के बीच में?
.
माँगकर जिनको लिया, लौटा रहे नाहक ईनाम
जीत को जीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
५-११-२०१५
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द्विपदियाँ :
मैं नर्मदा तुम्हारी मैया, चाहूँ साफ़ सफाई
माँ का आँचल करते गंदा, तुम्हें लाज ना आई?
भरो बाल्टी में जल- जाकर, दूर नहाओ खूब
देख मलिन जल और किनारे, जाओ शर्म से डूब
कपड़े, पशु, वाहन नहलाना, बंद करो तत्काल
मूर्ति सिराना बंद करो, तब ही होगे खुशहाल
पौध लगाकर पेड़ बनाओ, वंश वृद्धि तब होगी
पॉलीथीन बहाया तो, संतानें होंगी रोगी
दीपदान तर्पण पूजन, जलधारा में मत करना
मन में सुमिरन कर, मेरा आशीष सदा तुम वरना
जो नाले मुझमें मिलते हैं, उनको साफ़ कराओ
कीर्ति-सफलता पाकर, तुम मेरे सपूत कहलाओ
जो संतानें दीन उन्हें जब, लँहगा-चुनरी दोगे
ग्रहण करूँगी मैं, तुमको आशीष अपरिमित दूँगी
वृद्ध अपंग भिक्षुकों को जब, भोजन करवाओगे
तृप्ति मिलेगी मुझको, सेवा सुत से तुम पाओगे
पढ़ाई-इलाज कराओ किसी का, या करवाओ शादी
निश्चय संकट टल जाये, रुक जाएगी बर्बादी
पथवारी मैया खुश हो यदि रखो रास्ते साफ़
भारत माता, धरती माता, पाप करेंगी माफ़
हिंदी माता की सेवा से, पुण्य यज्ञ का मिलता
मात-पिता की सेवा कर सुत, भाव सागर से तरता
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मुक्तिका:
अवगुन चित न धरो
*
सुन भक्तों की प्रार्थना, प्रभुजी हैं लाचार
भक्तों के बस में रहें, करें गैर-उद्धार
कोई न चुने चुनाव में, करें नहीं तकरार
संसद टीवी से हुए, बाहर बहसें हार
मना जन्म उत्सव रहे, भक्त चढ़ा-खा भोग
टुकुर-टुकुर ताकें प्रभो,हो बेबस-लाचार
सब मतलब से पूजते, सब चाहें वरदान
कोई न कन्यादान ले, दुनिया है मक्कार
ब्याह गयी पर माँगती, है फिर-फिर वर दान
प्रभु की मति चकरा रही, बोले:' है धिक्कार'
वर माँगे वर-दान- दें कैसे? हरि हैरान
भला बनाया था हुआ, है विचित्र संसार
अवगुन चित धरकर कहे, 'अवगुन चित न धरो
प्रभु के विस्मय का रहा, कोई न पारावार
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नवगीत:
धैर्य की पूँजी
न कम हो
मनोबल
घटने न देना
जंग जीवट- जिजीविषा की
मौत के आतंक से है
आस्था की कली कोमल
भेंटती शक-डंक से है
नाव निज
आरोग्य की
तूफ़ान में
डिगने न देना
मूल है किंजल्क का
वह पंक जिससे भागते हम
कमल-कमला को हमेशा
मग्न हो अनुरागते हम
देह ही है
गेह मन का
देह को
मिटने न देना
चिकित्सा सेवा अधिक
व्यवसाय कम है ध्यान रखना
मौत के पंजे से जीवन
बचाये बिन नहीं रुकना
लोभ को,
संदेह को
मन में तनिक
टिकने न देना
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मुक्तिका:
हाथ मिले
माथ उठे
मन अनाम
देह बिके
कौन कहाँ
पत्र लिखे?
कदम बढ़े
बाल दिये
वसन न्यून
आँख सिके
द्रुपद सुता
सती रहे
सत्य कहे
आप दहे
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बाल कविता
हम बच्चे हैं मन के सच्चे सबने हमें दुलारा है
देश और परिवार हमें भी सचमुच लगता प्यारा है
अ आ इ ई, क ख ग संग ए बी सी हम सीखेंगे
भरा संस्कृत में पुरखों ने ज्ञान हमें उपकारा है
वीणापाणी की उपासना श्री गणेश का ध्यान करें
भारत माँ की करें आरती, यह सौभाग्य हमारा है
साफ-सफाई, पौधरोपण करें, घटायें शोर-धुआं
सच्चाई के पथ पग रख बढ़ना हमने स्वीकारा है
सद्गुण शिक्षा कला समझदारी का सतत विकास करें
गढ़ना है भविष्य मिल-जुलकर यही हमारा नारा है
५-११-२०१४
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एक दोहा
लोकतंत्र में लोभ तंत्र की, मची हुई है धूम
कोकतंत्र से शोकतंत्र तक, बम बम बम बम बूम
५.११.२०१३
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नवगीत:
महका-महका :
*
महका-महका
मन-मंदिर रख सुगढ़-सलौना
चहका-चहका
*
आशाओं के मेघ न बरसे
कोशिश तरसे
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घर से
बासन माँजे, कपड़े धोए
काँख-काँखकर
समझ न आए पर-सुख से
हरसे या तरसे
दहका-दहका
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका-लहका
*
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाए
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताए
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी
आँखें चमकें
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हों न पराए
बहका-बहका
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका
*
लख मयंक की छटा अनूठी
तारे हरषे.
नेह नर्मदा नहा चन्द्रिका
चाँदी परसे.
नर-नरेंद्र अंतर से अंतर
बिसर हँस रहे.
हास-रास मधुमास न जाए-
घर से, दर से.
दहका-दहका
सूर्य सिंदूरी, उषा-साँझ संग
धधका-दहका...
५.११.२०१० 
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