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शुक्रवार, 16 मई 2025

मई १६, लुप्तप्राय प्रजाति, चित्रगुप्त, भोजपुरी, विमोह छंद, दोहा, आँख, कोरोना, Poem

सलिल सृजन मई १६
लुप्तप्राय प्रजाति (Endangered Species) दिवस
*
लुप्तप्राय प्रजातियाँ, ऐसे जीवों की आबादी है, जिनके लुप्त होने का जोखिम है, क्योंकि वे या तो संख्या में कम है, या बदलते पर्यावरण या परभक्षण मानकों द्वारा संकट में हैं। साथ ही, यह वनों की कटाई के कारण भोजन और/या पानी की कमी को भी द्योतित कर सकता है। प्रकृति के संरक्षणार्थ अंतर्राष्ट्रीय संघ (IUCN) ने २००६ के दौरान मूल्यांकन किए गए प्रजातियों के नमूने के आधार पर, सभी जीवों के लिए लुप्तप्राय प्रजातियों की प्रतिशतता की गणना ४० प्रतिशत के रूप में की है। IUCN अपने संक्षिप्त प्रयोजनों के लिए सभी प्रजातियों को वर्गीकृत करता है। कई देशों में संरक्षण निर्भर प्रजातियों के रक्षणार्थ क़ानून बने हैं: उदाहरण के लिए, शिकार का निषेध, भूमि विकास या परिरक्षित स्थलों के निर्माण पर प्रतिबंध. विलुप्त होने की संभावना वाली कई प्रजातियों में से वास्तव में केवल कुछ ही इस सूची में दर्ज हो पाते हैं और क़ानूनी सुरक्षा प्राप्त करते हैं। कई प्रजातियाँ विलुप्त हो जाती हैं, या बिना सार्वजनिक उल्लेख के संभावित रूप से लुप्त हो जाती हैं।

किसी प्रजाति के संरक्षण की स्थिति उन लुप्तप्राय प्रजातियों के जीवित न रहने की सूचक है। एक प्रजाति के संरक्षण की स्थिति का आकलन करते समय कई कारकों का ध्यान रखा जाता है; केवल बाक़ी संख्या ही नहीं, बल्कि समय के साथ-साथ उनकी आबादी में समग्र वृद्धि या कमी, प्रजनन सफलता की दर, ज्ञात जोख़िम और ऐसे ही अन्य कारक. IUCN लाल सूची सर्वाधिक ज्ञात संरक्षण स्थिति सूचीकरण है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, १९४ देशों ने लुप्तप्राय और अन्य जोख़िम वाली प्रजातियों के संरक्षण के लिए जैव विविधता कार्य-योजना तैयार करने के लिए सहमति जताने वाले समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में इस योजना को आम तौर पर प्रजाति रिकवरी प्लान कहा जाता है।

लुप्तप्राय प्रजातियों की IUCN लाल सूची में लुप्तप्राय प्रजाति, संकटग्रस्त प्रजातियों की विशिष्ट श्रेणी को संदर्भित करता है और इसमें गंभीर रूप से संकटग्रस्त प्रजाति भी शामिल हो सकते हैं।

संकटापन्न प्रजातियों की IUCN लाल सूची में जोख़िम की एक विशिष्ट श्रेणी के तौर पर लुप्तप्राय प्रजातियां शब्द का प्रयोग किया जाता है। IUCN वर्ग और मानदंडों के अधीन लुप्तप्राय प्रजाति, गंभीर रूप से संकटग्रस्त और असुरक्षित के बीच में है। इसके अलावा, गंभीर रूप से संकटग्रस्त प्रजाति को लुप्तप्राय प्रजाति के रूप में भी गिन सकते हैं और सभी मानदंडों को भर सकते हैं।

विलोपन की जोख़िम वाली प्रजातियों के लिए IUCN द्वारा प्रयुक्त अधिक सामान्य शब्द है संकटापन्न प्रजातियां, जिसमें लुप्तप्राय और गंभीर संकटग्रस्त सहित कम जोखिम वाली असुरक्षित प्रजातियों की श्रेणी भी सम्मिलित हैं। IUCN श्रेणियों में शामिल हैं:लुप्त : प्रजातियों का अंतिम शेष सदस्य मर चुका है, या यथोचित संदेह से परे यह माना जाता है कि मर चुका हैं। उदाहरण: थैलासाइन, डोडो, यात्री कबूतर, टाइरानोसारस, कैरेबियन मॉन्क सील
जंगल में लुप्त : बंदी प्राणी जीवित रह सकते हैं, लेकिन कोई मुक्त, प्राकृतिक आबादी मौजूद नहीं है। उदाहरण: एलागोस कुरासो
गंभीरतः संकटग्रस्त : निकट भविष्य में विलोपन के अत्यंत उच्च जोखिम का सामना कर रहे हैं। उदाहरण: अरकान वन कछुए, जावन राइनो, ब्राजील के मरगैनसर, घडियाल
लुप्तप्राय :निकट भविष्य में विलुप्त होने की बहुत ही उच्च जोखिम का सामना कर रहे हैं। उदाहरण: नीला व्हेल, विशालकाय पांडा, बर्फ़ीला तेंदुआ, अफ्रीकी जंगली कुत्ता, शेर, एलबेटरॉस, क्राउंड सालिटरी ईगल, ढोले, रंगस
असुरक्षित : मध्यम दर्जे के विलोपन के उच्च जोखिम का सामना कर रहे हैं। उदाहरण: चीता, गौर, सिंह, आलसी भालू, वोल्वोराइन, मानाटी, ध्रुवीय भालू। 
संरक्षण निर्भर : निम्नलिखित पशु को गंभीर ख़तरा नहीं है, लेकिन ये पशु संरक्षण कार्यक्रम पर निर्भर हैं। उदाहरण: चित्तीदार हैना, तेंदुआ शार्क, काला कैमान। 
संकट के निकट : निकट भविष्य में इनके लिए ख़तरा हो सकता है। उदाहरण: ब्लू-बिल्ड डक, सॉलिटरी ईगल, स्माल-क्लाड औटर, मेन्ड वुल्फ़
बहुत ही कम चिंताजनक : इन प्रजातियों के अस्तित्व के लिए कोई तात्कालिक ख़तरा नहीं है। उदाहरण: नूटका साइप्रेस, काठ कबूतर, हार्प सील।  संयुक्त राज्य अमेरिका में लुप्तप्राय प्रजाति अधिनियम के अंतर्गत, दो श्रेणियों में "लुप्तप्राय" अधिक संरक्षित है। साल्ट क्रीक बाघ बीटल (सिसिनडेला नेवाडिका लिकोलनियाना) ESA के तहत संरक्षित उप-प्रजाति का एक उदाहरण है।

अकेले संयुक्त राज्य अमेरिका में, "विलुप्त होने के ख़तरे वाली ज्ञात प्रजातियों की संख्या लुप्तप्राय प्रजाति अधिनियम के तहत संरक्षित संख्या से दस गुणा अधिक है" (विलकोव एंड मास्टर, २००८, पृ. ४१४). अमेरिकी मछली और वन्य-जीव सेवा और साथ ही, राष्ट्रीय समुद्री मत्स्य सेवा को लुप्तप्राय प्रजातियों के वर्गीकरण और संरक्षण के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है, तथापि, सूची में किसी विशिष्ट प्रजाति को जोड़ना, काफ़ी लंबी, विवादास्पद प्रक्रिया है और वास्तव में यह जोख़िम वाले वनस्पति और प्राणी जीवन के केवल एक अंश का ही प्रतिनिधित्व करता है।  

कुछ लुप्तप्राय प्रजातियों के क़ानून विवादास्पद रहे हैं। विवाद के विशिष्ट क्षेत्रों में शामिल हैं: लुप्तप्राय प्रजातियों की सूची में किसी प्रजाति को रखने के लिए मानदंड और उनकी आबादी की बरामदगी पर सूची में से किसी प्रजाति को हटाने के लिए मानदंड; भले ही भूमि विकास पर प्रतिबंध का मतलब सरकार द्वारा भूमि का "अधिग्रहण" हो; संबंधित सवाल है कि क्या निजी ज़मीन के मालिकों को उनकी भूमि के उपयोग के प्रति नुक्सान के लिए मुआवजा दिया जाना चाहिए और संरक्षण क़ानूनों के प्रति समुचित अपवाद हासिल करना चाहिए या नहीं. बुश प्रशासन के तहत, संघीय अधिकारियों द्वारा लुप्तप्राय प्रजातियों को नुक्सान पहुंचाने वाली कार्रवाई से पूर्व, वन्य-जीव विशेषज्ञों से परामर्श लेने की पिछली नीति को हटा लिया गया। ओबामा प्रशासन के तहत, इस नीति को पुनः बहाल किया गया है। 

लुप्तप्राय प्रजातियों के रूप में सूचीकरण का नकारात्मक प्रभाव हो सकता है, क्योंकि यह प्रजाति को विशेष रूप से संग्रहकर्ताओं और शिकारियों के लिए और अधिक वांछनीय बना सकती हैं।  इस प्रभाव को संभावित रूप से कम किया जा सकता है, जैसे कि चीन में व्यावसायिक रूप से कछुए उत्पन्न करने से, शिकार के प्रति संकटग्रस्त प्रजातियों पर दबाव कुछ कम हो रहा है। 

सूचीबद्ध प्रजातियों के साथ एक और समस्या, किसी ज़मीन से लुप्तप्राय प्रजातियों को साफ़ करने के 'गोली मारो, ठेलो और चुप रहो " तरीक़े के उपयोग को उकसाने के प्रति उसका प्रभाव है। संप्रति कुछ ज़मीन मालिक, अपनी ज़मीन पर लुप्तप्राय जानवर के पाए जाने के बाद उसकी क़ीमत में कमी अनुभव करते हैं। उन्होंने कथित तौर पर, अपनी ज़मीन से समस्या के निदान के लिए, चुपचाप जानवरों को मारने और दफनाने या उनके निवास स्थान को नष्ट करने का विकल्प चुना है, लेकिन ऐसे में उसके साथ-साथ, लुप्तप्राय प्रजातियों की आबादी भी कम हो जाती है। लुप्तप्राय प्रजाति अधिनियमकी प्रभावशीलता पर, जिसने "लुप्तप्राय प्रजातियां" शब्द को गढ़ा है, व्यापार तथा उसके प्रकाशनों के समर्थक समूहों द्वारा सवाल उठाया गया है, लेकिन फिर भी इन प्रजातियों के साथ काम करने वाले, वन्य-जीव वैज्ञानिकों द्वारा, इसे व्यापक रूप से प्रभावी बरामदगी उपकरण के रूप में मान्यता दी गई है। उन्नीस प्रजातियों को सूची से हटाया तथा बरामद कर लिया गया है और पूर्वोत्तर संयुक्त राज्य अमेरिका में सूचीबद्ध प्रजातियों में से 93% में पुनर्लाभ या स्थिर आबादी है। 

इस समय, दुनिया में १५५६ ज्ञात प्रजातियों की विलुप्त होने के रूप में पहचान की गई है और वे सरकारी क़ानून (ग्लेन, २००६, वेबपेज) द्वारा सुरक्षा के तहत हैं। यह सन्निकटन, बहरहाल, लुप्तप्राय प्रजाति अधिनियम जैसे क़ानूनों के संरक्षण के तहत असम्मिलित, संकटग्रस्त प्रजातियों की संख्या को हिसाब में नहीं लेता है। नेचरसर्व के वैश्विक संरक्षण की स्थिति के अनुसार, लगभग तेरह प्रतिशत कशेरुकी (समुद्री मछली को छोड़ कर), सत्रह प्रतिशत संवहनी पौधे और छह से अठारह प्रतिशत तक कवक जोख़िम के तहत माने गए हैं (विलकोव एंड मास्टर, २००८, पृ. ४१५-४१६)।  कुल मिला कर, सात से अठारह प्रतिशत तक, अमेरिका के ज्ञात जानवर, कवक और पौधे, विलोपन के नज़दीक हैं (विलकोव एंड मास्टर, २००८, पृ. ४१६). यह कुल संख्या संयुक्त राज्य अमेरिका में लुप्तप्राय प्रजाति अधिनियम के तहत संरक्षित प्रजातियों की संख्या से अधिक है, जिसका अर्थ है कि कई प्रजातियां धीरे-धीरे विलोपन के क़रीब होती जा रही हैं।
***
मेरी बहिना
.
मेरी बहिना कभी न हारी...
.
पथ में थीं बाधाएँ अनगिन
किया पराजित तुमने गिन गिन
असफलता को असफल करतीं
सफल रहीं तुम सदा सभी दिन
चुनौतियों को जीता तुमने
कर में ले कोशिश दोधारी
मेरी बहिना कभी न हारी...
.
किरण सूर्य की तम हर लेती
किरण चंद्र की शांति लुटाती
राज बहादुर ही करते हैं
किरण जान रहती मुस्काती
श्री वास्तव में सखी तुम्हारी
मेरी बहिना कभी न हारी...
.
नव आशा नव पुष्पा सुषमा
सफल साधना की गढ़ प्रतिमा
गहते हैं हनुमान हाथ बढ़ 
निहारिका निशिता नव गरिमा
अपनी किस्मत आप सँवारी
मेरी बहिना कभी न हारी...
.
अँगना आ सिद्धार्थ विहँसते
खिल प्रसून दिन-रात विकसते
कर अभिषेक जुही हर्षाती
रम रमेश अर्चना पुलकते
अतुल-अर्पिता युग छवि न्यारी
मेरी बहिना कभी न हारी...
१६.५.२०२५
...
चित्रगुप्त वंदना भोजपुरी
*
करत रहल बा चित्रगुप्त प्रभु!, सगरो जै-जैकार।
मति; मेहनत अरु मेल-जोल बर; आए सरन तोहार।।
जगवा में केहू नईखे हे, तोहरे बिना सहाई।
डोल रहल बा दा न जगाई, काहे भगिया हमार।।
छोड़ी चरनिया तोहरो, बारह भाई कहाँ हम जाई।
कृपा करल बा दूनो माई, फेरी दा न दिनवा हमार।।
कलम-दावत-कृपाण सजाइब, चूनर लाल चढ़ाई।
ओंकार केर जै गुंजाई, काहे न सुनल पुकार।।
श्रीफल कदली फल स्वीकारब, भगवन भोग मिठाई।
सर पर हाथ धरल दोऊ माई, किरपा दृष्टि निहार।।
***
दोहा सलिला
अनिल अनल भू नभ सलिल, अजय उच्च रख माथ।
राम नाथ सीता सहित, रखिए सिर पर हाथ।।
राम नाथ अब अवध में, थामे हैं धनु-बाण।
अब तक दयानिधान थे, अब हरते हैं प्राण।।
राम नाथ भी थे विवश, सके न सिय को रोक।
समय बली विपरीत था, कोई सका न टोक।।
आ! वारा तुझ पर ह्रदय, शारद मातु पुनीत।
आवारा थे शब्द कर, वंदन हुए सुगीत।।
ललिता लय लालित्य ले, नमन करे हो लीन।
मीनाकारी स्वरों की, सुमधुर जैसे बीन।।
सँग नारायण शरद जी, जड़कर नीलम रत्न।
खरे-खरे दोहे कहें, मुक्तक-गीत सुयत्न।।
राम; केश सिय के लिए, सजा रहे हैं फूल।
राम-केश हँस बाँधतीं, सीता सब दुःख भूल।।
कंकर में शंकर बसे, शिमला शर्मा मौन।
सूर्य तपे शिव जी कहें, हिम ला देगा कौन?
चंदा दो चंदा कहे, गई चाँदनी भाग।
नीता-शीला अब न वह, चंद्रकला अनुराग।।
मारीशस से मिल गले, भारत माता झूम।
प्रेमलता महका रही, भुज भर माथा चूम।।
मँज री मति! गुरु निकट जा, माँजेंगे गुरु खूब।
अर्पित कर मन-मंजरी, भाव-भक्ति में डूब।।
अनामिका मति साधिका, रम्य राधिका भ्रांत।
सुमित अमित परिमित सतत, करे न मन को भ्रांत।।
वह बोली आदाब पर, यह समझा आ दाब।
आगे बढ़ते ही पड़ा, थप्पड़ एक जनाब।।
१६-५-२०२२
***
Poem
I
*
I don't care to those
Who don't care to me
I prefer to play with them
Who prefer to play with me.
Mountain for mountains
For seas I also am a sea
Being nowhere I'm everywhere
Want to meet?, Try to see
Forget I and You
Remember only Us
No place for no
Always welcome yes.
15-5-2022
***
कोरोना गीत
सूरज! आओ भेंट तुम्हें हैं रेल कटे मजदूर
भूखे पेट अँतड़ियाँ ऐंठी कितना सहते?
रोजी-रोटी गँवा उधारी कितनी गहते
बिन भाड़ा झोपड़ पट्टी में जगह न मिलती
घर से दूर अभाव आग में कितना दहते?
विवश चले पैदल भारत के बेटे हो मजबूर
खाकी लट्ठ बरसते फिर भी बढ़ते जाते
नेताओं की निष्ठुरता चुप पढ़ते जाते
कृषक-श्रमिक संघों को सूँघा साँप अचानक
शासन के अखबार कसीदे पढ़ते जाते
इंसानों को भून रहा बदहाली का तंदूर
उजड़ीं माँगें टूटे मंगलसूत्र चूड़ियाँ टूटीं
बिना लुटेरे अबलाएँ असहाय गई हैं लूटीं
कौन सहारा दे किसको, है दोष सभी का साझा
पैसेवाले ठठा रहे, निर्धन तकदीरें फूटीं
तुम तो तनिक बहा लो आँसू हे दिनकर अक्रूर
१६-५-२०२०***
द्विपदी
दोस्ती की दरार छोटी पर
साँप शक का वहीं मिला लंबा।
१६-५-२०१९
***
छंद बहर का मूल है १३
*
संरचना- २१२ २१२, सूत्र- रर.
वार्णिक छंद- ६ वर्णीय गायत्री जातीय विमोह छंद.
मात्रिक छंद- १० मात्रिक देशिक जातीय छंद
*
सत्य बोलो सभी
झूठ छोडो कभी
*
रीतती रात भी
जीतता प्रात ही
*
ख्वाब हो ख्वाब ही
आँख खोलो तभी
*
खाद-पानी मिले
फूल हो सौरभी
*
मुश्किलों आ मिलो
मात ले लो अभी
१३-४-२०१७
९.४५ पूर्वाह्न
***
दोहा
चित्र गुप्त जिसका वही, लेता जब आकार
ब्रम्हा-विष्णु-महेश तब, होते हैं साकार
*
माँ ममता का गाँव है, शुभाशीष की छाँव.
कैसी भी सन्तान हो, माँ-चरणों में ठाँव..
*
ॐ जपे नीरव अगर, कट जाएँ सब कष्ट
मौन रखे यदि शोर तो, होते दूर अनिष्ट
*
स्नेह सरोवर सुखाकर करते जो नाशाद
वे शादी कर किस तरह, हो पायेंगे शाद?
*
मुक्तक
तुझको अपना पता लगाना है?
खुद से खुद को अगर मिलाना है
मूँद कर आँख बैठ जाओ भी
दूर जाना करीब आना है
*
***
द्विपदी
ठिठक कर जो रुक गयीं तुम
आ गया भूकम्प झट से.
*
दाग न दामन पर लगा है
बोल सियासत ख़ाक करी है
*
मौन से बातचीत अच्छी है
भाप प्रेशर कुकर से निकले तो
*
तीन अंगुलिया उठतीं खुद पर
एक किसी पर अगर धरी है
*
सिर्फ कहना सही ही काफी नहीं है
बात कहने का सलीका है जरूरी
*
अजय हैं न जय कर सके कोई हमको
विजय को पराजय को सम देखते हैं
*
किस्से दिल में न रखें किससे कहें यह सोचें
गर न किस्से कहे तो ख्वाब भी मुरझाएंगे
*
सखापन 'सलिल' का दिखे श्याम खुद पर
अँजुरी में सूर्स्त दिखे देख फिर-फिर
*
दुष्ट से दुष्ट मिले कष्ट दे संतुष्ट हुए
दोनों जब साथ गिरे हँसी हसीं कहके 'मुए'
*
जो गिर-उठकर बढ़ा मंजिल मिली है
किताबों में मिला हमको लिखित है
*
घुँघरू पायल के इस कदर बजाए जाएँ
नींद उड़ जाए औ' महबूब दौड़ते आयें
*
रन करते जब वीर तालियाँ दुनिया देख बजाती है
रन न बनें तो हाय प्रेमिका भी आती है पास नहीं
*
रंज मत कर बिसारे, जिसने सुधि-अनुबंध
वही इस काबिल न था कि पा सके मन-रंजना
*
रूप देखकर नजर झुका लें कितनी वह तहजीब भली थी
रूप मर गया बेहूदों ने आँख फाड़कर उसे तका है
१६-५-२०१५
दोहा का रंग आँखों के संग
*
आँख अबोले बोलती, आँख समझती बात.
आँख राज सब खोलत, कैसी बीती रात?
*
आँख आँख से मिल झुके, उठे लड़े झुक मौन.
क्या अनकहनी कह गई, कहे-बताये कौन?.
*
आँख आँख में बस हुलस, आँख चुराती आँख.
आँख आँख को चुभ रही, आँख दिखाती आँख..
*
आँख बने दर्पण कभी, आँख आँख का बिम्ब.
आँख अदेखे देखती, आँखों का प्रतिबिम्ब..
*
गहरी नीली आँख क्यों, उषा गाल सम लाल?
नेह नर्मदा नहाकर, नत-उन्नत बेहाल..
*
देह विदेहित जब हुई, मिला आँख को चैन.
आँख आँख ने फेर ली, आँख हुई बेचैन..
*
आँख दिखाकर आँख को, आँख हुई नाराज़.
आँख मूँदकर आँख है, मौन कहो किस व्याज?
*
पानी आया आँख में, बेमौसम बरसात.
आँसू पोछे आँख चुप, बैरन लगती रात..
*
अंगारे बरसा रही आँख, धरा है तप्त.
किसकी आँखों पर हुई, आँख कहो अनुरक्त?.
*
आँख चुभ गई आँख को, आँख आँख में लीन.
आँख आँख को पा धनी, आँख आँख बिन दीन..
*
कही कहानी आँख की, मिला आँख से आँख.
आँख दिखाकर आँख को, बढ़ी आँख की साख..
*
आँख-आँख में डूबकर, बसी आँख में मौन.
आँख-आँख से लड़ पड़ी, कहो जयी है कौन?
*
आँख फूटती तो नहीं, आँख कर सके बात.
तारा बन जा आँख का, 'सलिल' मिली सौगात..
*
कौन किरकिरी आँख की, उसकी ऑंखें फोड़.
मिटा तुरत आतंक दो, नहीं शांति का तोड़..
*
आँख झुकाकर लाज से, गयी सानिया पाक.
आँख झपक बिजली गिरा, करे कलेजा चाक..
*
आँख न खटके आँख में, करो न आँखें लाल.
काँटा कोई न आँख का, तुम से करे सवाल..
*
आँख न खुलकर खुल रही, 'सलिल' आँख है बंद.
आँख अबोले बोलती, सुनो सृजन के छंद..
१६-५-२०१५
***

गुरुवार, 15 मई 2025

मई १५, लघुकथा, वस्तुवदनक छंद, सारस छंद, चित्रगुप्त, गोत्र, अल्ल, तितली, आँसू, ओस

सलिल सृजन मई १५
*
दोहा सलिला
संसार
*
अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्व मय सृष्टि।
ब्रह्म अनाहद नाद है, मूल करे शुभ वृष्टि।।
निराकार, साकार हम, मान पूजते मौन।
चित्र गुप्त हम जानते, नहीं पूछते कौन?
ध्वनि तरंग हो संघनित, बनती कण बिन भार।
भार गहें बोसान कण, मिल रचते संसार।।
कण से बने पदार्थ फिर, होते वे चैतन्य।
जाग्रत होती चेतना, उपजेन जीव अनन्य।।
बिना कोश फिर एक दो, बहुकोशी हों जीव।
जलचर थलचर गगनचर, विकसें सँग अजीव।।
जान न जानें सत्य हम, मान न मानें सत्य।
करते भरते भोगते, तजते नहीं असत्य।।
आ-रह-जा यह चक्र ही, परमेश्वर का खेल।
करें मुक्ति की चाह हम, अपनी गाड़ी ठेल।।
***
लघुकथा:
प्यार ही प्यार
*
'बिट्टो! उठ, सपर के कलेवा कर ले. मुझे काम पे जाना है. स्कूल समय पे चली जइयों।'
कहते हुए उसने बिटिया को जमीन पर बिछे टाट से खड़ा किया और कोयले का टुकड़ा लेकर दाँत साफ़ करने भेज दिया।
झट से अल्युमिनियम की कटोरी में चाय उड़ेली और रात की बची बासी रोटी के साथ मुँह धोकर आयी बेटी को खिलाने लगी। ठुमकती-मचलती बेटी को खिलते-खिलते उसने भी दी कौर गटके और टिक्कड़ सेंकने में जुट गयी। साथ ही साथ बोल रही थी गिनती जिसे दुहरा रही थी बिटिया।
सड़क किनारे नलके से भर लायी पानी की कसेंड़ी ढाँककर, बाल्टी के पानी से अपने साथ-साथ बेटी को नहलाकर स्कूल के कपडे पहनाये और आवाज लगाई 'मुनिया के बापू! जे पोटली ले लो, मजूरी खों जात-जात मोदी खों स्कूल छोड़ दइयो' मैं बासन माँजबे को निकर रई.' उसमे चहरे की चमक बिना कहे ही कह रही थी कि उसके चारों तरफ बिखरा है प्यार ही प्यार।
१५-५-२०१६
***
गीत:
आँसू और ओस
*
हम आँसू हैं,
ओस बूँद मत कहिये हमको...
*
वे पल भर में उड़ जाते हैं,
हम जीवन भर साथ रहेंगे,
हाथ न आते कभी-कहीं वे,
हम सुख-दुःख की कथा कहेंगे.
छिपा न पोछें हमको नाहक
श्वास-आस सम सहिये हमको ...
*
वे उगते सूरज के साथी,
हम हैं यादों के बाराती,
अमल विमल निस्पृह वे लेकिन
दर्द-पीर के हमीं संगाती.
अपनेपन को अब न छिपायें,
कभी कहें: 'अब बहिये' हमको...
*
ऊँच-नीच में, धूप-छाँव में,
हमने हरदम साथ निभाया.
वे निर्मोही-वीतराग हैं,
सृजन-ध्वंस कुछ उन्हें न भाया.
हारे का हरिनाम हमीं हैं,
'सलिल' संग नित गहिये हमको...
*
***
दोहा सलिला:
भोजपुरी का रंग - दोहा का संग
.
घाटा के सौदा बनल, खेत किसानी आज
गाँव-गली में सुबह बर, दारू पियल न लाज
.
जल जमीन वन-संपदा, लूटि लेल सरकार
कहाँ लोहिया जी गयल, आज बड़ी दरकार
..
खेती का घाटा बढ़ल, भूखा मरब किसान
के को के की फिकर बा, प्रतिनिधि बा धनवान
.
विपदा भी बिजनेस भयल, आफर औसर जान
रिश्वत-भ्रष्टाचार बा, अफसर बर पहचान
.
घोटाला अपराध बा, धंधा- सेवा नाम
चोर-चोर भाई भयल, मालिक भयल गुलाम
.
दंगा लूट फसाद बर, भेंट चढ़ल इंसान
नेता स्वारथ-मगन बा, सेठ भयल हैवान
.
आपन बल पहचान ले, छोड़ न आपन ठौर
भाई-भाई मिलकर रहल, जी ले आपन तौर
१५-५-२०१५
***
छंद सलिला:
वस्तुवदनक छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, पदांत चौकल-द्विकल
लक्षण छंद:
वस्तुवदनक कला चौबिस चुनकर रचते कवि
पदांत चौकल-द्विकल हो तो शांत हो मन-छवि
उदाहरण:
१. प्राची पर लाली झलकी, कोयल कूकी / पनघट / पर
रविदर्शन कर उड़े परिंदे, चहक-चहक/कर नभ / पर
कलकल-कलकल उतर नर्मदा, शिव-मस्तक / से भू/पर
पाप-शाप से मुक्त कर रही, हर्षित ऋषि / मुनि सुर / नर
२. मोदक लाईं मैया, पानी सुत / के मुख / में
आया- बोला: 'भूखा हूँ, मैया! सचमुच में'
''खाना खाया अभी, अभी भूखा कैसे?
मुझे ज्ञात है पेटू, राज छिपा मोदक में''
३. 'तुम रोओगे कंधे पर रखकर सिर?
सोचो सुत धृतराष्ट्र!, गिरेंगे सुत-सिर कटकर''
बात पितामह की न सुनी, खोया हर अवसर
फिर भी दोष भाग्य को दे, अंधा रो-रोकर
***
सारस  छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति १२-१२, चरणादि विषमक़ल तथा गुरु, चरणांत लघु लघु गुरु (सगण) सूत्र- 'शांति रखो शांति रखो शांति रखो शांति रखो'
विशेष: साम्य- उर्दू बहर 'मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन'
लक्षण छंद:
सारस मात्रा गुरु हो, आदि विषम ध्यान रखें
बारह-बारह यति गति, अन्त सगण जान रखें
उदाहरण:
१. सूर्य कहे शीघ्र उठें, भोर हुई सेज तजें
दीप जला दान करें, राम-सिया नित्य भजें
शीश झुका आन बचा, मौन रहें राह चलें
साँझ हुई काल कहे, शोक भुला आओ ढलें
२. पाँव उठा गाँव चलें, छाँव मिले ठाँव करें
आँख मुँदे स्वप्न पलें, बैर भुला मेल करें
धूप कड़ी झेल सकें, मेह मिले खेल करें
ढोल बजा नाच सकें, बाँध भुजा पीर हरें
३. क्रोध न हो द्वेष न हो, बैर न हो भ्रान्ति तजें
चाह करें वाह करें, आह भरें शांति भजें
नेह रखें प्रेम करें, भीत न हो कांति वरें
आन रखें मान रखें, शोर न हो क्रांति करें
१५-५-२०१४
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एक प्रश्न-एक उत्तर: चित्रगुप्त जयंती क्यों?...
योगेश श्रीवास्तव 2:45pm May 14
आपके द्वारा भेजी जानकारी पाकर अच्छा लगा . थैंक्स. अब यह बताएं कि चित्रगुप्त जयंती मनाने का क्या कारण है? इस सम्बन्ध में भी कोई प्रसंग है?. थैंक्स.
योगेश जी!
वन्दे मातरम.
चित्रगुप्त जी हमारी-आपकी तरह इस धरती पर किसी नर-नारी के सम्भोग से उत्पन्न नहीं हुए... न किसी नगर निगम ने उनका जन्म/मृत्यु प्रमाण पत्र बनाया।
कायस्थों से द्वेष रखनेवाले ब्राम्हणों ने एक पौराणिक कथा में उन्हें ब्रम्हा से उत्पन्न बताया... ब्रम्हा पुरुष तत्व है जिससे किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती। नव उत्पत्ति प्रकृति (स्त्री) तत्व से होती है.
'चित्र' का निर्माण आकार से होता है. जिसका आकार ही न हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता... जैसे हवा का चित्र नहीं होता। चित्र गुप्त होना अर्थात चित्र न होना यह दर्शाता है कि यह तत्व निराकार है। हम निराकार तत्वों को प्रतीकों से दर्शाते हैं... जैसे ध्वनि को अर्ध वृत्तीय रेखाओं से या हवा का आभास देने के लिये पेड़ों की पत्तियों या अन्य वस्तुओं को हिलता हुआ या एक दिशा में झुका हुआ दिखाते हैं।
कायस्थ परिवारों में आदि काल से चित्रगुप्त पूजन में दूज पर एक कोरा कागज़ लेकर उस पर 'ॐ' अंकितकर पूजने की परंपरा है। 'ॐ' परात्पर परम ब्रम्ह का प्रतीक है। सनातन धर्म के अनुसार परात्पर परमब्रम्ह निराकार विराट शक्तिपुंज हैं जिनकी अनुभूति सिद्ध जनों को 'अनहद नाद' (कानों में निरंतर गूंजनेवाली भ्रमर की गुंजार) के रूप में होती है और वे इसी में लीन रहे आते हैं। यही तत्व (ऊर्जा) सकल सृष्टि की रचयिता और कण-कण की भाग्य विधाता या कर्म विधान की नियामक है। सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रम्हांड हैं। हर ब्रम्हांड का रचयिता ब्रम्हा, पालक विष्णु और नाशक शंकर हैं किन्तु चित्रगुप्त कोटि-कोटि नहीं हैं, वे एकमात्र हैं... वे ही ब्रम्हा, विष्णु, महेश के मूल हैं। आप चाहें तो 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' की तर्ज़ पर उन्हें ब्रम्हा का आत्मज कह सकते हैं।
वैदिक काल से कायस्थ जन हर देवी-देवता, हर पंथ और हर उपासना पद्धति का अनुसरण करते रहे हैं। वे जानते और मानते रहे कि सभी तत्वों में मूलतः वही परात्पर परमब्रम्ह (चित्रगुप्त) व्याप्त है.... यहाँ तक कि अल्लाह और ईसा में भी... इसलिए कायस्थों का सभी के साथ पूरा ताल-मेल रहा। कायस्थों ने कभी ब्राम्हणों की तरह इन्हें या अन्य किसी को अस्पर्श्य या विधर्मी मान कर उसका बहिष्कार नहीं किया।
निराकार चित्रगुप्त जी संबंधी कोई मंदिर, कोई चित्र, कोई प्रतिमा, कोई मूर्ति, कोई प्रतीक, कोई पर्व, कोई जयंती, कोई उपवास, कोई व्रत, कोई चालीसा, कोई स्तुति, कोई आरती, कोई पुराण, कोई वेद हमारे मूल पूर्वजों ने नहीं बनाया चूँकि उनका दृढ़ मत था कि जिस भी रूप में जिस भी देवता की पूजा, आरती, व्रत या अन्य अनुष्ठान होते हैं, सब चित्रगुप्त जी के ही एक विशिष्ट रूप के लिए हैं। उदाहरण खाने में आप हर पदार्थ का स्वाद बताते हैं पर सबमें व्याप्त जल (जिसके बिना कोई व्यंजन नहीं बनता) का स्वाद अलग से नहीं बताते, यही भाव था... कालांतर में मूर्ति पूजा का प्रचलन बढ़ने और विविध पूजा-पाठों, यज्ञों, व्रतों से सामाजिक शक्ति प्रदर्शित की जाने लगी तो कायस्थों ने भी चित्रगुप्त जी का चित्र व मूर्ति गढ़कर जयंती मानना शुरू कर दिया। यह सब विगत ३०० वर्षों के बीच हुआ जबकि कायस्थों का अस्तित्व वेद पूर्व आदि काल से है।
वर्तमान में ब्रम्हा की काया से चित्रगुप्त के प्रगट होने की अवैज्ञानिक, काल्पनिक और भ्रामक कथा के आधार पर यह जयंती मनाई जाती है जबकि चित्रगुप्त जी अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय हैं। आंशिक सत्य के कई रूप होते हैं। इनमें सामाजिक सत्य भी है। वर्तमान में चित्रगुप्त संबंधी प्रगति कथा, मंदिर, मूर्ति, व्रत, चालीसा, आरती तथा जयंती को सामाजिक या पौराणिक सत्य कहा जा सकता है किन्तु यह आध्यात्मिक या वैज्ञानिक सत्य नहीं है।
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'गोत्र' तथा 'अल्ल'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न अखिल भारतीय कायस्थ महासभा तथा राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे पूछे जाते रहे हैं।
स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था। इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ। ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए।इसी कारण एक गोत्र वर्तमान में विभिन्न जातियों (जन्मना) में गोत्र मिलता है। ऋषि के पास विविध जातियों (वर्णानुसार) के शिष्य अध्ययन करने पहुँचते थे। महाभारत काल में ड्रोन, परशुराम आदि के शिष्य विविध जातियों, व्यवसायों, पदों के रहे। आजकल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रॉबर्टसन कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए। आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं।शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे। अतः, सामान्यत: उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था। कुछ अपवाद भी रहे हैं।
एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं। 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से संबंधित होता है। कायस्थों को राजनैतिक कारणों से निरंतर पलायन करना पड़ा। नए स्थानों पर उन्हें उनकी योग्यता के कारण आजीविका साधन तो मिल गए किन्तु स्थानीय समाज ने इन नवागंतुकों के साथ विवाह संब्न्धिओं में रूचि नाहने ली, फलत: कायस्थों को पूर्व परिचित परिवारों (दूर के संबंधियों) में विवाह करने पड़े। इस करम एक गोत्र में विवाह न करने का नियम प्रचलन में न रह सका, तब एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित माना जाने लगा। आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते। सामाजिक ढाँचा नष्ट हो जाने के कारण अंतर्जातीय विवाहों का प्रचलन बढ़ रहा है।
हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं। हमारी अल्ल 'उमरे' है। मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति (श्री रामकुमार वर्मा आत्मज स्व. जंगबहादुर वर्मा, छिंदवाड़ा) मिला है। मेरे फूफा जी स्व, जगन्नाथ प्रसाद वर्मा की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है। उनके पूर्वजों में से कोई बैरकपुर (बंगाल) के भद्र परिवार से होंगे जो किसी कारण से नागपुर जा बसे थे।
१५-५-२०११
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अंतिम गीत
लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
ओ मेरी सर्वान्गिनी! मुझको याद वचन वह 'साथ रहेंगे'
तुम जातीं क्यों आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
दो अपूर्ण मिल पूर्ण हुए हम सुमन-सुरभि, दीपक-बाती बन.
अपने अंतर्मन को खोकर क्यों रह जाऊँ मैं केवल तन?
शिवा रहित शिव, शव बन जीना, मुझको अंगीकार नहीं है-
प्राणवर्तिका रहित दीप बन जीवन यह स्वीकार नहीं है.
तुमको खो सुधियों की समिधा संग मेरे भी प्राण जलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
नियति नटी की कठपुतली हम, उसने हमको सदा नचाया.
सच कहता हूँ साथ तुम्हारा पाने मैंने शीश झुकाया.
तुम्हीं नहीं होगी तो बोलो जीवन क्यों मैं स्वीकारूँगा?-
मौन रहो कुछ मत बोलो मैं पल में खुद को भी वारूँगा.
महाकाल के दो नयनों में तुम-मैं बनकर अश्रु पलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
हमने जीवन की बगिया में मिलकर मुकुलित कुसुम खिलाये.
खाया, फेंका, कुछ उधार दे, कुछ कर्जे भी विहँस चुकाये.
अब न पावना-देना बाकी, मात्र ध्येय है साथ तुम्हारा-
सिया रहित श्री राम न, श्री बिन श्रीपति को मैंने स्वीकारा.
साथ चलें हम, आगे-पीछे होकर हाथ न 'सलिल' मलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
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तितलियाँ : कुछ अश'आर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
*
तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया?
कहा तितली ने मिले सब दिल जले.
कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले..
*
पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
*
बागवां के गले लगकर तितलियाँ.
बिदा होते हुए खुद भी रो पडीं..
*
तितलियों से बाग की रौनक बढ़ी.
भ्रमर तो बेदाम के गुलाम हैं..
*
'आदाब' भँवरे ने कहा, तितली हँसी.
उड़ गयी 'आ दाब' कहकर वह तुरत..
१५-५-२०१०
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बुधवार, 14 मई 2025

मई १४, कुण्डलिया, सवैया, बाल गीत, लघुकथा, कुंवर सिंह, बुन्देली मुक्तिका, आलम, शेख,

सलिल सृजन मई १४
कुण्डलिया
कुण्डलिया हिंदी के कालजयी और लोकप्रिय छंदों में अग्रगण्य है। एक दोहा (दो पंक्तियाँ, १३-११ पर यति, विषम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरणान्त गुरु-लघु या लघु-लघु-लघु) तथा एक रोला (चार पंक्तियाँ, ११-१३ पर यति, विषम चरणान्त गुरु-लघु या लघु-लघु-लघु, सम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरण के अंत में २ गुरु, लघु-लघु-गुरु या ४ लघु) मिलकर षट्पदिक (छ: पंक्ति) कुण्डलिनी छंद को आकार देते हैं। दोहा और रोला की ही तरह कुण्डलिनी भी अर्ध सम मात्रिक छंद है। दोहा का अंतिम या चौथा चरण, रोला का प्रथम चरण बनाकर दोहराया जाता है। दोहा का प्रारंभिक शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश रोला का अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश होता है। प्रारंभिक और अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश की समान आवृत्ति से ऐसा प्रतीत होता है मानो जहाँ से आरम्भ किया वही लौट आये, इस तरह शब्दों के एक वर्तुल या वृत्त की प्रतीति होती है। सर्प जब कुंडली मारकर बैठता है तो उसकी पूँछ का सिरा जहाँ होता है वहीं से वह फन उठाकर चतुर्दिक देखता है।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: बाहर१. कुण्डलिनी छंद ६ पंक्तियों का छंद है जिसमें एक दोहा और एक रोला छंद होते हैं।
२. दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण होता है।
३. दोहा का आरंभिक शब्द, शब्दांश, शब्द समूह या पूरा चरण रोला के अंत में प्रयुक्त होता है।
४. दोहा तथा रोला अर्ध सम मात्रिक छंद हैं। इनके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
अ. दोहा में २ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में १३+११=२४ मात्राएँ होती हैं. दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे) चरण में १३ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे) चरण में ११ मात्राएँ होती हैं।
आ. दोहा के विषम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
इ. दोहा के विषम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
ई. दोहा के सम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
उदाहरण:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर।।
उ. दोहा के लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर २३ प्रकार होते हैं।
५. रोला भी अर्ध सम मात्रिक छंद है अर्थात इसके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
क. रोला में ४ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में ११+१३=२४ मात्राएँ होती हैं। दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें) चरण में ११ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे, छठवें, आठवें) चरण में १३ मात्राएँ होती हैं।
का. रोला के विषम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
कि. रोला के सम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
की. रोला के सम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
उदाहरण: सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़।
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय।।
६. कुण्डलिनी:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है, है वहीं, सच मानो अंधेर।।
सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़।
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
करें देश हित कार्य, सियासत भूल हर समय।।
*
कुण्डलिया छन्द का विधान उदाहरण सहित
दोहा:
समय-समय की बात है
१११ १११ २ २१ २ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
समय-समय का फेर।
१११ १११ २ २१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
जहाँ देर है, है वहीं
१२ २१ २ १२ २ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
सच मानो अंधेर
११ २२ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
रोला:
सच मानो अंधेर (दोहा के अंतिम चरण का दोहराव)
११ २२ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
मचा संसद में हुल्लड़
१२ २११ २ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु [प्रभाव गुरु गुरु] के साथ यति
हर सांसद को भाँग
११ २११ २ २१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
पिला दो भर-भर कुल्हड़
१२ २ ११ ११ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु (प्रभाव गुरु गुरु) के साथ यति
भाँग चढ़े मतभेद
२१ १२ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
दूर हो, करें न संशय
२१ २ १२ १ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु के साथ यति
करें देश हित कार्य
करें देश-हित कार्य = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
सियासत भूल हर समय
१२११ २१ ११ १११ = १३ मात्रा / अंत में लघु लघु लघु के साथ यति
उदाहरण -
०१. कुण्डलिया है जादुई, छन्द श्रेष्ठ श्रीमान।
दोहा रोला का मिलन, इसकी है पहिचान।।
इसकी है पहिचान, मानते साहित सर्जक।
आदि-अंत सम-शब्द, साथ बनता ये सार्थक।।
लल्ला चाहे और, चाहती इसको ललिया।
सब का है सिरमौर छन्द, प्यारे, कुण्डलिया।। - नवीन चतुर्वेदी
०२. भारत मेरी जान है, इस पर मुझको नाज़।
नहीं रहा बिल्कुल मगर, यह कल जैसा आज।।
यह कल जैसा आज, गुमी सोने की चिड़िया।
बहता था घी-दूध, आज सूखी हर नदिया।।
करदी भ्रष्टाचार- तंत्र ने, इसकी दुर्गत।
पहले जैसा आज, कहाँ है? मेरा भारत।। - राजेंद्र स्वर्णकार
०३. भारत माता की सुनो, महिमा अपरम्पार ।
इसके आँचल से बहे, गंग जमुन की धार ।।
गंग जमुन की धार, अचल नगराज हिमाला ।
मंदिर मस्जिद संग, खड़े गुरुद्वार शिवाला ।।
विश्वविजेता जान, सकल जन जन की ताकत ।
अभिनंदन कर आज, धन्य है अनुपम भारत ।। - महेंद्र वर्मा
०४. भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल।
फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल।।
तज भेदों के, शूल / अनवरत, रहें सृजनरत।
मिलें अँगुलिका, बनें / मुष्टिका, दुश्मन गारत।।
तरसें लेनें. जन्म / देवता, विमल विनयरत।
'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत।।
(यहाँ अंतिम पंक्ति में ११ -१३ का विभाजन 'नित' ले मध्य में है अर्थात 'सलिल' पखारे पग नि/त पूजे, माता भारत में यति एक शब्द के मध्य में है यह एक काव्य दोष है और इसे नहीं होना चाहिए। 'सलिल' पखारे चरण करने पर यति और शब्द एक स्थान पर होते हैं, अंतिम चरण 'पूज नित माता भारत' करने से दोष का परिमार्जन होता है।)
०५. कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत मतिमान।
इसका लोहा मानते, कोटि-कोटि विद्वान।।
कोटि-कोटि विद्वान, कहें- मानव किंचित डर।
तुझे बना ले, दास अगर हो, हावी तुझ पर।।
जीव श्रेष्ठ, निर्जीव हेय, सच है यह अंतर।
'सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर।।
('सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर' यहाँ 'बेहतर' पढ़ने पर अंतिम पंक्ति में २४ के स्थान पर २५ मात्राएँ हो रही हैं। उर्दूवाले 'बेहतर' या 'बिहतर' पढ़कर यह दोष दूर हुआ मानते हैं किन्तु हिंदी में इसकी अनुमति नहीं है। यहाँ एक दोष और है, ११ वीं-१२ वीं मात्रा है 'बे' है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। 'सलिल' न बेहतर मानव से' करने पर अक्षर-विभाजन से बच सकते हैं पर 'मानव' को 'मा' और 'नव' में तोड़ना होगा, यह भी निर्दोष नहीं है। 'मानव से अच्छा न, 'सलिल' कोई कंप्यूटर' करने पर पंक्ति दोषमुक्त होती है।)
०६. सुंदरियाँ घातक 'सलिल', पल में लें दिल जीत।
घायल करें कटाक्ष से, जब बनतीं मन-मीत।।
जब बनतीं मन-मीत, मिटे अंतर से अंतर।
बिछुड़ें तो अवढरदानी भी हों प्रलयंकर।।
असुर-ससुर तज सुर पर ही रीझें किन्नरियाँ।
नीर-क्षीर बन, जीवन पूर्ण करें सुंदरियाँ।।
(इस कुण्डलिनी की हर पंक्ति में २४ मात्राएँ हैं। इसलिए पढ़ने पर यह निर्दोष प्रतीत हो सकती है। किंतु यति स्थान की शुद्धता के लिये अंतिम ३ पंक्तियों को सुधारना होगा।
'अवढरदानी बिछुड़ / हो गये थे प्रलयंकर', 'रीझें सुर पर असुर / ससुर तजकर किन्नरियाँ', 'नीर-क्षीर बन करें / पूर्ण जीवन सुंदरियाँ' करने पर छंद दोष मुक्त हो सकता है।)
०७. गुन के गाहक सहस नर, बिन गन लहै न कोय।
जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग सब लगै अपावन।।
कह 'गिरधर कविराय', सुनो हे ठाकुर! मन के।
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के।। - गिरधर
कुण्डलिनी छंद का सर्वाधिक और निपुणता से प्रयोग करनेवाले गिरधर कवि ने यहाँ आरम्भ के अक्षर, शब्द या शब्द समूह का प्रयोग अंत में ज्यों का त्यों न कर, प्रथम चरण के शब्दों को आगे-पीछे कर प्रयोग किया है। ऐसा करने के लिये भाषा और छंद पर अधिकार चाहिए।
०८. हे माँ! हेमा है कुशल, खाकर थोड़ी चोट
बच्ची हुई दिवंगता, थी इलाज में खोट
थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आये
अभिनेता हैं खास, आम जन हुए पराये
सहकर पीड़ा-दर्द, जनता करती है क्षमा?
समझें व्यथा-कथा, आम जन का कुछ हेमा
यहाँ प्रथम चरण का एक शब्द अंत में है किन्तु वह प्रथम शब्द नहीं है।
०९. दल का दलदल ख़त्म कर, चुनिए अच्छे लोग।
जिन्हें न पद का लोभ हो, साध्य न केवल भोग।।
साध्य न केवल भोग, लक्ष्य जन सेवा करना।
करें देश-निर्माण, पंथ ही केवल वरना।।
कहे 'सलिल' कवि करें, योग्यता को मत ओझल।
आरक्षण कर ख़त्म, योग्यता ही हो संबल।।
यहाँ आरम्भ के शब्द 'दल' का समतुकांती शब्द 'संबल' अंत में है। प्रयोग मान्य हो या न हो, विचार करें।
१०. हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।
जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।।
वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।
ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- ना दाल गलेगी।।
कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।
ऊँचाई दिख सके, सदा ही नीचाई से।।
यहाँ प्रथम शब्द 'है' तथा अंत में प्रयुक्त शब्द 'से' दोनों गुरु हैं। प्रथम दृष्टया भिन्न प्रतीत होने पर भी दोनों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान होने से छंद निर्दोष है।
***
सवैया
*
सरस सवैया रच पढ़ें
गण की आवृत्ति सात हों, दो गुरु रहें पदांत।
सरस सवैया नित पढो, 'सलिल' न तनिक रसांत।।
बाइस से छब्बीस वर्णों के (सामान्य वृत्तो से बड़े और दंडक छंदों से छोटे) छंदों को सवैया कहा जाता है। सवैया वार्णिक छंद हैं। विविध गणों में से किसी एक गण की सात बार आवृत्तियाँ तथा अंत में दो दीर्घ अक्षरों का प्रयोग कर सवैये की रचना की जाती है। यह एक वर्णिक छन्द है। सवैया को वार्णिक मुक्तक अर्थात वर्ण संख्या के आधार पर रचित मुक्तक भी कहा जाता है। इसका कारन यह है की सवैया में गुरु को लघु पढ़ने की छूट है। जानकी नाथ सिंह ने अपने शोध निबन्ध 'द कंट्रीब्युशन ऑफ़ हिंदी पोयेट्स टु प्राजोडी के चौथे अध्याय में सवैया को वार्णिक सम वृत्त मानने का कारण हिंदी में लय में गाते समय 'गुरु' का 'लघु' की तरह उच्चारण किये जाने की प्रवृत्ति को बताया है। हिंदी में 'ए' के लघु उच्चारण हेतु कोई वर्ण या संकेत चिन्ह नहीं है। रीति काल और भक्ति काल में कवित्त और सवैया बहुत लोकप्रिय रहे हैं. कवितावलि में तुलसी ने इन्हीं दो छंदों का अधिक प्रयोग किया है। कवित्त की ही तरह सवैया भी लय-आधारित छंद है।
विविध गणों के प्रयोग के आधार पर इस छन्द के कई प्रकार (भेद) हैं। यगण, तगण तथा रगण पर आधारित सवैये की गति धीमी होती है जबकि भगण, जगण तथा सगण पर आधारित सवैया तेज गति युक्त होता है। ले के साथ कथ्य के भावपूर्ण शब्द-चित्र अंकित होते हैं। श्रृंगार तथा भक्ति परक वर्ण में विभव, अनुभव, आलंबन, उद्दीपन, संचारी भाव, नायक-नायिका भेद आदि के शब्द-चित्रण में तुलसी, रसखान, घनानंद, आलम आदि ने भावोद्वेग की उत्तम अभिव्यक्ति के लिए सवैया को ही उपयुक्त पाया। भूषण ने वीर रस के लिए सवैये का प्रयोग किया किन्तु वह अपेक्षाकृत फीका रहा।
प्रकार-
सवैया के मुख्य १४ प्रकार हैं।
१. मदिरा, २. मत्तगयन्द, ३. सुमुखि, ४. दुर्मिल, ५. किरीट, ६. गंगोदक, ७. मुक्तहरा, ८. वाम, ९. अरसात, १०. सुन्दरी, ११. अरविन्द, १२. मानिनी, १३. महाभुजंगप्रयात, १४. सुखी सवैया।
मत्तगयंद (मालती) सवैया
इस वर्णिक छंद के चार चरण होते हैं। हर चरण में सात भगण (S I I) के पश्चात् अंत में दो गुरु (SS) वर्ण होते हैं।
उदाहरण:
१.
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू, तैंसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत-खात फिरें अँगना, पग पैंजनिया, कटी पीरि कछौटी।।
वा छवि को रसखान विलोकत, वारत काम कलानिधि कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों ली गयो माखन-रोटी।।
२.
यौवन रूप त्रिया तन गोधन, भोग विनश्वर है जग भाई।
ज्यों चपला चमके नभ में, जिमि मंदर देखत जात बिलाई।।
देव खगादि नरेन्द्र हरी मरते न बचावत कोई सहाई।
ज्यों मृग को हरि दौड़ दले, वन-रक्षक ताहि न कोई लखाई।।
३.
मोर पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गले पहिरौंगी।
ओढ़ी पीताम्बर लै लकुटी, वन गोधन गजधन संग फिरौंगी।।
भाव तो याहि कहो रसखान जो, तेरे कहे सब स्वांग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी।।
दुर्मिल (चन्द्रकला) सवैया
इस वर्णिक छंद के चार चरणों में से प्रत्येक में आठ सगण (I I S) और अंत में दो गुरु मिलाकर कुल २५ वर्ण होते हैं.
उदाहरण:
बरसा-बरसा कर प्रेम सुधा, वसुधा न सँवार सकी जिनको।
तरसा-तरसा कर वारि पिता, सु-रसा न सुधार सकी जिनको।।
सविता-कर सी कविता छवि ले, जनता न पुकार सकी जिनको।
नव तार सितार बजा करके, नरता न दुलार सकी जिनको।।
उपजाति सवैया (जिसमें दो भिन्न सवैया एक साथ प्रयुक्त हुए हों) तुलसी की देन है। सर्वप्रथम तुलसी ने 'कवितावली' में तथा बाद में रसखान व केशवदास ने इसका प्रयोग किया।
मत्तगयन्द - सुन्दरी
प्रथम पद मत्तगयन्द (७ भगण + २ गुरु) - "या लटुकी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुरको तजि डारौ"। तीसरा पद सुन्दरी (७ सगन + १ गुरु) - "रसखानि कबों इन आँखिनते, ब्रजके बन बाग़ तड़ाग निहारौ"।
मदिरा - दुर्मिल
तुलसी ने एक पद मदिरा का रखकर शेष दुर्मिल के पद रखे हैं। केशव ने भी इसका अनुसरण किया है। पहला मदिरा का पद (७ भगण + एक गुरु) - "ठाढ़े हैं नौ द्रम डार गहे, धनु काँधे धरे कर सायक लै"। दूसरा दुर्मिल का पद (८ सगण) - "बिकटी भृकुटी बड़री अँखियाँ, अनमोल कपोलन की छवि है"।
मत्तगयन्द-वाम और वाम-सुन्दरी की उपजातियाँ तुलसी (कवितावली) में तथा केशव (रसिकप्रिया) में सुप्राप्य है। कवियों ने भाव-चित्रण में अधिक सौन्दर्य तथा चमत्कार उत्पन्न करने हेतु ऐसे प्रयोग किये हैं।
आधुनिक कवियों में भारतेंदु हरिश्चन्द्र, लक्ष्मण सिंह, नाथूराम शंकर आदि ने इनका सुन्दर प्रयोग किया है। जगदीश गुप्त ने इस छन्द में आधुनिक लक्षणा शक्ति का समावेश किया है।
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अठ सलल सवैया
११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-११
जय हिंद कहें, सब संग रहें, हँस हाथ गहें, मिल जीत वरें हम
अरि जूझ थकें, हथियार धरें, अरमान यही, कबहूँ न डरें हम
मत-भेद भले, मन-भेद नहीं, हम एक रहे, सच नेक रहें हम
अरि मार सकें, रण जीत तरें, हँस स्वर्ग वरें, मर न मरें हम
१२.३.२०१९
*
बातों ही बातों में, रातों ही रातों में, लूटेंगे-भागेंगे, व्यापारी घातें दे आज
वादों ही वादों में, राजा जी चेलों में, सत्ता को बाँटेंगे, लोगों को मातें दे आज
यादें ही यादें हैं, कुर्सी है प्यादे हैं, मौका पा लादेंगे, प्यारे जो लोगों को आज
धोखा ही धोखा है, चौका ही चौका है, छक्का भी मारेंगे, लूटेंगे-बाँटेंगे आज
२१.२.२०१९
*
मत्त गयंद सवैया
आज कहें कल भूल रहे जुमला बतला छलते जनता को
बाप-चचा चित चुप्प पड़े नित कोस रहे अपनी ममता को
केर व बेर हुए सँग-साथ तपाक मिले तजते समता को
चाह मिले कुरसी फिर से ठगते जनको भज स्वाराथता को
२.२.२०१९
कमलेश्वरी सवैया प्रति पद 7 (यगण) +लघु
न हल्ला मचाएँ, धुआँ भी न फैला, करें गंदगी भी न मैं आप।
न पूरे तलैया, न तालाब राहों, नदी को न मैली करें आप।।
न तोड़ें घरौंदा, न काटें वनों को, न खोदें पहाड़ी सरे आम-
न रूठे धरा ये, न गुस्सा करें मेघ, इन्सान न पाए कहीं शाप।।
*
कन्हैया! कन्हैया!! बजा बाँसुरी, रूठ राधा न जाए, बजा बाँसुरी माधव!
मना राधिका नाज़ लेना उठा, रास लेना रचा तू, चला आ दिखा लाघव.
चलो ग्वाल-बालों!, नहीं बात टालो, करें रासलीला, नहीं चूको, करें गायन.
सुना फ़ाग-रासें, लला रंग डालें, लली भाग जाएँ करो बाँसुरी वादन.
६.११.२०१७
*
जगो रे!, उठो रे!!, खिलो फ़ूल जैसे, सुगंधें बिखेरो, सवेरे-सवेरे चलो.
न सोना, न खोना, नहीं मीत रोना, न हाथों धरो हाथ, मौके न खोना, चलो.
नदी सा बहो रे!, न मौजे तहो रे! उठा शंख-सीपी, न भागो, गहो रे चलो.
तुम्हीं को पुकारें, तुम्हीं को निहारें, भुला मन्ज़िले दें न, जीतो सितारे चलो.
६.११.२०१७
*
कहाँ वो छिपेगी?, कहीं तो मिलेगी, कभी तो मिलेगी, हसीना लुभाए जो।
छलावा-भुलावा?, नहीं वो दिखावा, अदाएँ हजारों, दिखाती-सुहाती जो।।
गुलाबी-गुलाबी, शराबी-शराबी, नशीली-नशीली सूरा सी पिलाती हो।
न भूला उसे मैं, न भूली मुझे वो, भले बाँह में ले, गले ना लगाती हो।।
५.११.२०१७
*
न पौधे लगाएँ, न पानी पिलाएँ, न पीड़ा मिटाएँ, करें वोट की माँग।
गरीबी मिटी क्या?, अशिक्षा हटी क्या?, कुरीती तजी क्या?, धरे संत का स्वाँग।।
न भूषा, न भाषा, निराशा-हताशा, न बाकी सुआशा, न छोड़ें अड़ी टाँग।
न लेना, न देना, चबाओ चबेना, भगा दो- भुला दो, पिला दो इन्हें भाँग।।
५.११.२०१७
***
बाल गीत
पानी दो, अब पानी दो
मौला धरती धानी दो, पानी दो...
*
तप-तप धरती सूख गयी
बहा पसीना, भूख गई.
बहुत सयानी है दुनिया
प्रभु! थोड़ी नादानी दो, पानी दो...
*
टप-टप-टप बूँदें बरसें
छप-छपाक-छप मन हर्षे
टर्र-टर्र बोले दादुर
मेघा-बिजुरी दानी दो, पानी दो...
*
रोको कारें, आ नीचे
नहा-नाच हम-तुम भीगे
ता-ता-थैया खेलेंगे
सखी एक भूटानी दो, पानी दो...
*
सड़कों पर बहता पानी
याद आ रही क्या नानी?
जहाँ-तहाँ लुक-छिपते क्यों?
कर थोड़ी मनमानी लो, पानी दो...
*
छलकी बादल की गागर
नचे झाड़ ज्यों नटनागर
हर पत्ती गोपी-ग्वालन
करें रास रसखानी दो, पानी दो...
***
लघुकथा
कानून के रखवाले
*
'हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े तक ख़राब हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम किसी को अपना विरोध नहीं करने देंगे।'
वक्ता की बात पूर्ण होने के पूर्व हो एक जागरूक श्रोता ने पूछा- ''आपका संविधान और कानून के जानकार है और अपने मुवक्किलों को उसके न्याय दिलाने का पेशा करते हैं। कृपया, बताइये संविधान के किस अनुच्छेद या किस कानून की किस कंडिका के तहत आपको एक सामान्य नागरिक होते हुए अन्य नागरिक विचाराभिव्यक्ति से रोकने और खुद दण्डित करने का अधिकार प्राप्त है?"
अन्य श्रोता ने पूछा 'क्या आपसे असहमत अन्य नागरिक आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करे तो वह उचित होगा?'
"यदि नागरिक विवेक के अनुसार एक-दूसरे को दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं तो शासन, प्रशासन और न्यायालय किसलिए है? ऐसी स्थिति में आपका पेशा ही समाप्त हो जायेगा। आप क्या कहते हैं?" चौथा व्यक्ति बोल पड़ा।
प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर-नतमस्तक खड़े थे कानून के तथाकथित रखवाले।
१४-५-२०१६
***
काव्यांजलि:
अमर शहीद कुंवर सिंह
*
भारत माता पराधीन लख,दुःख था जिनको भारी
वीर कुंवर सिंह नृपति कर रहे थे गुप-चुप तैयारी
अंग्रेजों को धूल चटायी जब-जब वे टकराये
जगदीशपुर की प्रजा धन्य थी परमवीर नृप पाये
समय न रहता कभी एक सा काले बादल छाये
अंग्रेजी सैनिक की गोली लगी घाव कई खाये
धार रक्त की बही न लेकिन वे पीड़ा से हारे
तुरत उठा करवाल हाथ को काट हँसे मतवारे
हाथ बहा गंगा मैया में 'सलिल' हो गया लाल
शुभाशीष दे मैया खद ही ज्यों हो गयी निहाल
वीर शिवा सम दुश्मन को वे जमकर रहे छकाते
छापामार युद्ध कर दुश्मन का दिल थे दहलाते
नहीं चिकित्सा हुई घाव की जमकर चढ़ा बुखार
भागमभाग कर रहे अनथक तनिक न हिम्मत हार
छब्बीस अप्रैल अट्ठारह सौ अट्ठावन दिन काला
महाकाल ने चुपके-चुपके अपना डेरा डाला
महावीर की अगवानी कर ले जाने यम आये
नील गगन से देवों ने बन बूंद पुष्प बरसाये
हाहाकार मचा जनता में दुश्मन हर्षाया था
अग्निदेव ने लीली काया पर मन भर आया था
लाल-लाल लपटें ज्वाला की कहती अमर रवानी
युग-युग पीढ़ी दर पीढ़ी दुहराकर अमर कहानी
सिमट जायेंगे निज सीमा में आंग्ल सैन्य दल भक्षक
देश विश्व का नायक होगा मानवता का रक्षक
शीश झुककर कुंवर सिंह की कीर्ति कथा गाएगी
भारत माता सुने-हँसेगी, आँखें भर आएँगी
***
मुक्तक सलिला :
.
हमसे छिपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं
दूर जाते भी नहीं, पास बुलाते भी नहीं
इन हसीनों के फरेबों से खुदा भी हारा-
गले लगते भी नहीं और लगाते भी नहीं
*
पीठ फेरेंगे मगर मुड़ के फिर निहारेंगे
फेर नजरें यें हसीं दिल पे दिल को वारेंगे
जीत लेने को किला दिल का हौसला देखो-
ये न हिचकेंगे 'सलिल' तुमपे दिल भी हारेंगे
*
उड़ती जुल्फों में गिरफ्तार कभी मत होना
बहकी अलकों को पुरस्कार कभी मत होना
थाह पाओगे नहीं अश्क की गहराई की-
हुस्न कातिल है, गुनाहगार कभी मत होना
*
***
सामयिक गीति रचना
देव बचाओ
*
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
पाला-पोसा, लिखा-पढ़ाया
जिसने वह समाज पछताये
दूध पिलाकर जिनको पाला
उनसे विषधर भी शर्माये
रुपया इनकी जान हो गया
मोह जान का इन्हें न व्यापे
करना इनका न्याय विधाता
वर्षों रोगी हो पछताये
रिश्ते-नाते
इन्हें न भाते
इनकी अकल ठिकाने लाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
बैद-हकीम न शेष रहे अब
नीम-हकीम डिगरियांधारी
नब्ज़ देखना सीख न पाये
यंत्र-परीक्षण आफत भारी
बीमारी पहचान न पायें
मँहगी औषधि खूब खिलाएं
कैंची-पट्टी छोड़ पेट में
सर्जन जी ठेंगा दिखलायें
हुआ कमीशन
ज्यादा प्यारा
हे हरि! इनका लोभ घटाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
इसके बदले उसे बिठाया
पर्चे कराया कर, नकल करी है
झूठी डिग्री ले मरीज को
मारें, विपदा बहुत बड़ी है
मरने पर भी कर इलाज
पैसे मांगे, ये लाश न देते
निष्ठुर निर्मम निर्मोही हैं
नाव पाप की खून में खेते
देख आइना
खुद शर्मायें
पीर हारें वह राह दिखाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
***
***
नवगीत:
*
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
कौन किसी का
कभी हुआ है?
किसको फलता
सदा जुआ है?
वही गिरा
आखिर में भीतर
जिसने खोदा
अंध कुआ है
बिन देखे जो
कूद रहा निश्चित
है गिर पड़ना
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
चोर-चोर
मौसेरे भाई
व्यापारी
अधिकारी
जनप्रतिनिधि
करते जनगण से
छिप-मिलकर
गद्दारी
लोकतंत्र को
लूट रहे जो
माफ़ नहीं करना.
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
नाग-साँप
जिसको भी
चुनिए चट
डंस लेता है
सहसबाहु
लूटे बिचौलिया
न्याय न
देता है
ज़िंदा रहने
खातिर हँसकर
सीखो मर मरना
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
***
नवगीत:
*
कुदरत का
अपना हिसाब है
.
कब, क्या, कहाँ,
किस तरह होता?
किसको कौन बताये?
नहीं किसी से
कोई पूछे
और न टांग अड़ाये
नफरत का
गायब नकाब है
कुदरत का
अपना हिसाब है
.
जब जो जहाँ
घटे या जुड़ता
क्रम नित नया बनाये
अटके-भटके,
गिरे-उठे-बढ़
मंजिल पग पा जाए
मेहनत का
उड़ता उकाब है
.
भोजन जीव
जीव का होता
भोज्य न शिकवा करता
मारे-खाये
नहीं जोड़ या
रिश्वत लेकर धरता
पाप न कुछ
सब कुछ
सबाब है.
१४-५-२०१५
***
एक गीति रचना:
करो सामना
*
जब-जब कंपित भू हुई
हिली आस्था-नीव
आर्तनाद सुनते रहे
बेबस करुणासींव
न हारो करो सामना
पूर्ण हो तभी कामना
ध्वस्त हुए वे ही भवन
जो अशक्त-कमजोर
तोड़-बनायें फिर उन्हें
करें परिश्रम घोर
सुरक्षित रहे जिंदगी
प्रेम से करो बन्दगी
संरचना भूगर्भ की
प्लेट दानवाकार
ऊपर-नीचे चढ़-उतर
पैदा करें दरार
रगड़-टक्कर होती है
धरा धीरज खोती है
वर्तुल ऊर्जा के प्रबल
करें सतत आघात
तरु झुक बचते, पर भवन
अकड़ पा रहे मात
करें गिर घायल सबको
याद कर सको न रब को
बस्ती उजड़ मसान बन
हुईं प्रेत का वास
बसती पीड़ा श्वास में
त्रास ग्रस्त है आस
न लेकिन हारेंगे हम
मिटा देंगे सारे गम
कुर्सी, सिल, दीवार पर
बैंड बनायें तीन
ईंट-जोड़ मजबूत हो
कोने रहें न क्षीण
लचीली छड़ें लगाओ
बीम-कोलम बनवाओ
दीवारों में फंसायें
चौखट काफी दूर
ईंट-जुड़ाई तब टिके
जब सींचें भरपूर
रैक-अलमारी लायें
न पल्ले बिना लगायें
शीश किनारों से लगा
नहीं सोइए आप
दीवारें गिर दबा दें
आप न पायें भाँप
न घबरा भीड़ लगायें
सजग हो जान बचायें
मेज-पलंग नीचे छिपें
प्रथम बचाएं शीश
बच्चों को लें ढांक ज्यों
हुए सहायक ईश
वृद्ध को साथ लाइए
ईश-आशीष पाइए
१३-५-२०१५
***
अभिनव प्रयोग:
गीत
वात्सल्य का कंबल
*
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
अब मिले सरदार सा सरदार भारत को
अ-सरदारों से नहीं अब देश गारत हो
असरदारों की जरूरत आज ज़्यादा है
करे फुलफिल किया वोटर से जो वादा है
एनिमी को पटकनी दे, फ्रेंड को फ्लॉवर
समर में भी यूँ लगे, चल रहा है शॉवर
हग करें क़ृष्णा से गंगा नर्मदा चंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
मनी फॉरेन में जमा यू टर्न ले आये
लाहौर से ढाका ये कंट्री एक हो जाए
दहशतों को जीत ले इस्लाम, हो इस्लाह
हेट के मन में भरो लव, शाह के भी शाह
कमाई से खर्च कम हो, हो न सिर पर कर्ज
यूथ-प्रायरटी न हो मस्ती, मिटे यह मर्ज
एबिलिटी ही हो हमारा,ओनली संबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
कलरफुल लाइफ हो, वाइफ पीसफुल हे नाथ!
राजमार्गों से मिलाये हाथ हँस फुटपाथ
रिच-पुअर को क्लोद्स पूरे गॉड! पहनाना
चर्च-मस्जिद को गले, मंदिर के लगवाना
फ़िक्र नेचर की बने नेचर, न भूलें अर्थ
भूल मंगल अर्थ का जाएँ न मंगल व्यर्थ
करें लेबर पर भरोसा, छोड़ दें गैंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
१४-५-२०१४
(इस्लाम = शांति की चाह, इस्लाह = सुधार)
***
बुन्देली मुक्तिका
*
१.
मन खों रखियो हर दम बस में.
पानी बहै न रस में नस में.
कसर न करियो स्रम करबे में.
खा खें तोड़ न दइयो कसमें.
जी से मिलबे खों जी तरसे
जी भर जी सें करियो रसमें.
गरदिस में जो संग निभाएं
संग उनई खों धरियों जस में.
कहूँ न ऐसो मजा मिलैगो
जैसो मजा मिलै बतरस में.
===
दोहा गाथा : ६
दोहा दिल में झांकता...
संजीव
दोहा दिल में झांकता, कहता दिल की बात.
बेदिल को दिलवर बना, जगा रहा ज़ज्बात.
अरुण उषा के गाल पर, मलता रहा गुलाल.
बदल अवसर चूक कर, करता रहा मलाल.
मनु तनहा पूजा करे, सरस्वती की नित्य.
रंग रूप रस शब्द का, है संसार अनित्य.
कवि कविता से खेलता, ले कविता की आड़.
जैसे माली तोड़ दे, ख़ुद बगिया की बाड.
छंद भाव रस लय रहित, दोहा हो बेजान.
अपने सपने बिन जिए, ज्यों जीवन नादान.
अमां मियां! दी टिप्पणी, दोहे में ही आज.
दोहा-संसद के बनो, जल्दी ही सरताज.
अद्भुत है शैलेश का, दोहा के प्रति नेह.
अनिल अनल भू नभ सलिल, बिन हो देह विदेह.
निरख-निरख छवि कान्ह की, उमडे स्नेह-ममत्व.
हर्ष सहित सब सुर लखें, मानव में देवत्व.
याद रखें दोहा में अनिवार्य है:
१. दो पंक्तियाँ, २. चार चरण .
३. पहले एवं तीसरे चरण में १३-१३ मात्राएँ.
४. दूसरे एवं चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ.
५. दूसरे एवं चौथे चरण के अंत में लघु गुरु होना अनिवार्य.
६. पहले तथा तीसरे चरण के आरम्भ में जगण = जभान = १२१ का प्रयोग एक शब्द में वर्जित है किंतु दो शब्दों में जगण हो तो वर्जित नहीं है.
७. दूसरे तथा चौथे चरण के अंत में तगण = ताराज = २२१, जगण = जभान = १२१ या नगण = नसल = १११ होना चाहिए. शेष गण अंत में गुरु या दीर्घ मात्रा = २ होने के कारण दूसरे व चौथे चरण के अंत में नहीं रखे जा सकते .
उक्त तथा अपनी पसंद के अन्य दोहों में इन नियमों के पालन की जांच करिए, शंका होने पर चर्चा करें.
दोहा 'सत्' की साधना, करें शब्द-सुत नित्य.
दोहा 'शिव' आराधना, 'सुंदर' सतत अनित्य.
कविता से छल कवि करे, क्षम्य नहीं अपराध.
ख़ुद को ख़ुद ही मारता, जैसे कोई व्याध.
तप न करे जो वह तपन, कैसे पाये सिद्धि?
तप न सके यदि सूर्ये तो, कैसे होगी वृद्धि?
उक्त दोहा में 'तप' शब्द के दो भिन्न अर्थ तथा उसमें निहित अलंकार उसके विषय में लीजिए।
अजित अमित औत्सुक्य ही, -- पहला चरण, १३ मात्राएँ
१ १ १ १ १ १ २ २ १ २ = १३
भरे ज्ञान - भंडार. -- दूसरा चरण, ११ मात्राएँ
१ २ २ १ २ २ १ = ११
मधु-मति की रस सिक्तता, -- तीसरा चरण, १३ मात्राएँ
१ १ १ १ २ १ १ २ १ २ = १३
दे आनंद अपार. -- चौथा चरण, ११ मात्राएँ
२ २ २ १ १ २ १ = ११ मात्राएँ.
दो पंक्तियाँ (पद) तथा चार चरण सभी को ज्ञात हैं. पहली तथा तीसरी आधी पंक्ति (चरण) दूसरी तथा चौथी आधी पंक्ति (चरण) से अधिक लम्बी हैं क्योकि पहले एवं तीसरे चरण में १३-१३ मात्राएँ हैं जबकि दूसरे एवं चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ हैं. मात्रा से दूर रहनेवाले विविध चरणों को बोलने में लगने वाले समय, उतार-चढाव तथा लय का ध्यान रखें.
दूसरे एवं चौथे चरण के अंत पर ध्यान दें. किसी भी दोहे की पंक्ति के अंत में दीर्घ, गुरु या बड़ी मात्रा नहीं है. दोहे की पंक्तियों का अंत सम (दूसरे, चौथे) चरण से होता है. इनके अंत में लघु या छोटी मात्रा तथा उसके पहले गुरु या बड़ी मात्रा होती ही है. अन्तिम शब्द क्रमशः भंडार तथा अपार हैं. ध्यान दें की ये दोनों शब्द गजल के पहले शे'र की तरह सम तुकांत हैं दोहे के दोनों पदों की सम तुकांतता अनिवार्य है. भंडार तथा अपार का अन्तिम अक्षर 'र' लघु है जबकि उससे ठीक पहले 'डा' एवं 'पा' हैं जो गुरु हैं. अन्य दोहो में इसकी जांच करिए तो अभ्यास हो जाएगा.
ऊपर बताये गए नियम (' पहले तथा तीसरे चरण के आरम्भ में जगण = जभान = १२१ का प्रयोग एक शब्द में वर्जित है किंतु दो शब्दों में जगण हो तो वर्जित नहीं है.') की भी इसी प्रकार जांच कीजिये. इस नियम के अनुसार पहले तथा तीसरे चरण के प्रारम्भ में पहले शब्द में लघु गुरु लघु (१+२+१+४) मात्राएँ नहीं होना चाहिए. उक्त दोहों में इस नियम को भी परखें. किसी दोहे में दोहाकार की भूल से ऐसा हो तो दोहा पढ़ते समय लय भंग होती है. दो शब्दों के बीच का विराम इन्हें संतुलित करता है.
अन्तिम नियम दूसरे तथा चौथे चरण के अंत में तगण = ताराज = २२१, जगण = जभान = १२१ या नगण = नसल = १११ होना चाहिए. शेष गणों के अंत में गुरु या दीर्घ मात्रा = २ होने के कारण दूसरे व चौथे चरण के अंत में प्रयोग नहीं होते. एक बार फ़िर गण-सूत्र देखें- 'य मा ता रा ज भा न स ल गा'
गण का नाम विस्तार
यगण यमाता १+२+२
मगण मातारा २+२+२
तगण ताराज २+२+१
रगण राजभा २+१+२
जगण जभान १+२+१
भगण भानस २+१+१
नगण नसल १+१+१
सगण सलगा १+१+२
उक्त गण तालिका में केवल तगण व जगण के अंत में गुरु+लघु है. नगण में तीनों लघु है. इसका प्रयोग कम ही किया जाता है. नगण = न स ल में न+स को मिलकर गुरु मात्रा मानने पर सम पदों के अंत में गुरु लघु की शर्त पूरी होती है.
सारतः यह याद रखें कि दोहा ध्वनि पर आधारित सबसे अधिक पुराना छंद है. ध्वनि के ही आधार पर हिन्दी-उर्दू के अन्य छंद कालांतर में विकसित हुए. ग़ज़ल की बहर भी लय-खंड ही है. लय या मात्रा का अभ्यास हो तो किसी भी विधा के किसी भी छंद में रचना निर्दोष होगी.
किस्सा आलम-शेख का...
लालमणि मिश्र  प्रसिद्ध ब्रज कवि सिद्धहस्त दोहाकार थे। उनके घर में मैले कपड़े लेने के लिए शेख नाम की धोबिन (रंगरेजिन)  आती  थी, गोरी छरहरी कमसिन शेख की शोखी ने लालमणि का मन मोह लिया। उनके मुँह से एक पंक्ति निकली 'कनक छुरी सी कामिनी, काहे को कति छीन'।  यह पंक्ति  लिखने के बाद  अटक गए, बहुत कोशिश की पर दूसरा पद नहीं बन पाया, मित्र भी असफल रहे। पहला पद भूल न जाएँ सोचकर लालमणि ने कागज़ की एक पर्ची पर पहला पद लिखकर पगड़ी में खोंस लिया। लालमणि ने संकल्प किया कि जो इस दोहे को पूरा करेगा वे उसकी एक इच्छा पूरी करेंगे। लालमणि ने घर आकर पगड़ी उतारी और सो गए। कुछ देर बाद 'शेख' आई तो परिवारजनों ने लालमणि की पगड़ी मैली देख कर उसे धोने के लिए दे दी। शेख ने कपड़े धोते समय पगड़ी में रखी पर्ची देखी, अधूरा दोहा पढ़ा और मुस्कुराई। उसने धुले हुए कपड़े लालमणि के घर वापिस पहुँचाने के पहले अधूरे दोहे को पूरा किया और पर्ची पहले की तरह पगड़ी में रख दी। कुछ समय बाद लालमणि को अधूरे दोहे की याद आई। पगड़ी के बारे में पूछा तो पता लगा शेख धोने के लिए ले गई है। लालमणि ने सिर पीट लिया कि दोहा तो गया। पगड़ी धुलकर आई तो लालमणि को न केवल पर्ची मिल गयी बल्कि दोहा भी पूरा हो गया था।  लालमणि मिश्र दोहा पूरा देख के खुश तो हुए पर यह चिंता भी हुई कि दोहा पूरा किसने किया? अपने कौल के अनुसार उन्हें दोहा पूरा करनेवाले की एक इच्छा पूरी करना थी।  परिवारजनों में से कोई दोहा रचना जानता नहीं था। इससे अनुमान लगाया कि दोहा रंगरेज के घर में किसी ने पूरा किया है, किसने किया?, कैसे पता चले?. उन्हें परेशां देखकर दोस्तों ने पतासाजी का जिम्मा लिया और कुछ दिन बाद भेद दिया कि रंगरेजिन शेख शेरो-सुखन का शौक रखती है, हो न हो यह कारनामा उसी का है। 
आलम ने अपनी छोटी बहिन और भौजाई का सहारा लिया ताकि सच्चाई मालूम कर अपना वचन पूरा कर सकें। आखिरकार सच सामने आ ही गया मगर परेशानी और बढ़ गई। बार-बार पूछने पर शेख ने दोहा पूरा करने की बात तो कुबूल कर ली पर अपनी इच्छा बताने को तैयार न हो। आलम की भाभी ने देखा कि लालमणि का ज़िक्र होते ही शेख सँकुचा  जाती थी। उन्होंने अंदाज़ लगाया कि कुछ न कुछ रहस्य ज़रूर है, कोशिश रंग लाई। भाभी ने शेख से कबुलवा लिया कि वह मन ही मन लालमणि को चाहती है। मुश्किल यह कि आलम ब्राम्हण और शेख मुसलमान... सबने शेख से कोई दूसरी इच्छा बताने को कहा, पर वह राजी न हुई। लालमणि भी अपनी बात से पीछे हटाने को तैयार न था। यह पेचीदा गुत्थी सुलझती ही न थी। तब लालमणि ने एक बड़ा फैसला लिया और आलम नाम रखकर, मजहब बदल कर शेख से शादी कर ली। आलम-शेख को मिलने वाला दोहा है- 
कनक छड़ी सी कामिनी, काहे को कटि छीन। 
कटि को कँचन काटि बिधि, कुचन मध्य धरि दीन।। 

दोहा-चर्चा का करें, चलिए यहीं विराम.
दोहे लिखिए-लाइए, खूब पाइए नाम.
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