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रविवार, 21 दिसंबर 2025

दिसंबर २२, गणितीय / आंकिक दोहे, आंकिक मुहावरे, रेफ, सॉनेट, नारी, मौन, हाइकु गीत, गणपति,

 सलिल सृजन- दिसंबर २२

गणितीय / आंकिक दोहे
.
क टाँग पर खड़े हो, एक करे दिन-रात
जब अभियंता तभी हो, राष्ट्र प्रगट-विख्यात
.
एक टाँग पर खड़े हो, एक करे दिन-रात
जब अभियंता तभी हो, राष्ट्र प्रगत-विख्यात
.
एक जान दो देह हैं, अभियंता-निर्माण
इसमें उसका प्राण है, उसमें इसका प्राण
.
माल जरूरत से अधिक, हो कौड़ी का तीन
चार चाँद यदि लगाना, बजा न नाहक बीन
.
पॉँच अँगुलियाँ बराबर, कभी न होतीं मान
चौके-छक्के जमा दे, जो- मारे मैदान
.
सात समंदर पार रह, आठ पहर मत सोच
नौ दो ग्यारह जो हुआ, हटा- न कर संकोच
.
दस में दस ही लक्ष्य जब, तब पौ बारह जान
तीन न तेरह की रहे, वरना 'सलिल' उड़ान
.
चौदहवीं का चाँद हो, मंजिल- मान न हार
सोलह आने ठीक कर, काम- मिले तब हार
.
जीत न बत्तीसी दिखा, लक्ष्य नहीं छत्तीस
त्रेसठ सम संबंध ही, साध्य- न हो तब टीस
.
निन्न्यानबे के फेर में, गँवा न देना प्यार
सौ सुनार भी हारते, जीते एक लुहार
.
जब तब जो बेबात ही, हो निपोरता खीस
उससे बचकर ही रहें, हो न चार सौ बीस
०००
पूर्णिका मौन . मौन रहकर मौन ने की मौन से जब बात। मौन हो कह दंग सुनता मौन ही जज्बात।। . मौन से ही वाक् प्रगटे, मौन ही है नाद मौन कलकल, मौन कलरव, मौन हलचल प्रात . मौन मन में मौन मितवा मौन से भुज भेंट मौन रह बिन कहे कहता 'हैं कठिन हालात' . मौन से जब मौन किसलय, प्रगट विकसे मौन मौन नभ में मौन बादल मौन हो बरसात . मौन पल्लव, मौन शाखें, कली, तितली मौन मौन भू को दे रहे हैं मौन हो सौगात . मौन भँवरा मौन गुंजन, मौन लीला रास मौन राधा मौन मौन कान्हा मौन होती बात . मौन सत् है, मौन चित् है, मौन है आनंद साधना कर मौन रह, संजीव हो हर प्रात २१.१२.२०२५ ०००
राष्ट्रीय गणित दिवस पर गणितीय सॉनेट
तीन-पाँच कर कर हम हारे,
नौ दो ग्यारह हुए न संकट,
एक-एक ग्यारह हों प्यारे।
हों छत्तीस तभी हम-कंटक।
आँखें चार न करे सफलता,
पाँचों उँगली हुई न घी में,
चार सौ बीसी कर जग छलता।
उन्नीस बीस न चाहे जी में।
चार बुलाए चौदह आए
एक आँख से देखें कैसे?
दो नावों पर पैर जमाए।
चारों खाने चित हों ऐसे।
दो दिन का मेहमान नहीं गम
सुनों बात दो टूक कहें हम।
२२.१२.२०१४
●●●
राष्ट्रीय गणित दिवस पर आंकिक मुहावरे
मुहावरा मूलत: अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है बातचीत करना या उत्तर देना। मुहावरे वे शाब्दिक अभिव्यक्तियाँ हैं जो आम जनों के मुँह से बहुधा विशिष्ट अर्थ में कही जाती हैं। जब किसी शब्द या शब्द-समूह का सामान्य अर्थ में प्रयोग होता है, तब वहाँ उसकी अभिधा शक्ति होती है। लक्षण आधारित अभिव्यक्तियाँ लक्षणा शक्ति का प्रयोग करती हैं। व्यंग्यपार्क अभिव्यक्तियाँ व्यंजना शक्ति प्रेरित होती हैं। मुहावरों में सादृश्य, विरोध अथवा स्मृति अंतर्निहित होते हैं, मुहावरों में अलंकार लालित्य वृद्धि करते हैं। मुहावरों में मिथकों, प्रतीकों, परंपराओं आदि का प्रयोग उन्हें लोकप्रिय बनाता है।
*
औने पौने करना - मूल्य कम आँकना
एक अनार सौ बीमार - वस्तु कम और चाहने वाले अधिक
एक और एक ग्यारह होना - एकता में शक्ति होना
एक आँख न भाना - अच्छा न लगना
एक आँख से देखना - प्रत्येक के साथ समान व्यवहार करना
एक एक कौड़ी का हिसाब लेना - बहुत बारीकी करना
एक के दस बनाना - झूठी बातें मिलाना, अतिशयोक्ति
एक पंथ दो काज - एक कार्य करते समय दूसरा कार्य हो जाना
एक प्राण दो शरीर - घनिष्ठ मित्र
एक म्यान दो तलवार - एक स्थान के दो दावेदार
एक दिन की बादशाहत - क्षणिक सुख
एक लाठी से हाँकना - यथोचित सम्मान न देना
एक हाथ से ताली न बजना - किसी एक की गलती न होना
एक एक ग्यारह होना - एकता में शक्ति
एक टाँग पर खड़े होना - हमेशा तत्पर रहना
आकाश पाताल एक करना - अत्यधिक प्रयत्न करना / बहुत परिश्रम करना
खून पसीना एक करना - अत्यधिक परिश्रम करना
दिन-रात एक करना - कठिन परिश्रम करना
डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाना - मिलकर कार्य न करना, सबसे अलग रहना
दिन दूनी रात चौगुनी - बहुत तेज गति से
दूज का चाँद होना- बहुत दिनों बाद दिखना
दो गज लंबी जुबान होना - अधिक और निरर्थक बात करना
दो जिस्म एक जान - अंतरंग, आत्मीय, अत्यधिक निकट
दो-दो चार करना - जोड़ना
दो और दो पाँच करना - गलत बात कहना
दो कौड़ी का होना - मूल्यहीन होना
दो टूक बात कहना - साफ कहना / स्पष्ट बात करना
दो दिन का मेहमान - शीघ्र मरने वाला
दो दो हाथ करना - लड़ना, टकराना
दो नावों पर पैर रखना - दो विरोधी कार्य एक साथ करना
दिन दूना रात चौगुना होना - अत्यधिक प्रगति होना
टके के तीन - बहुत सस्ता, मूल्यहीन
तीन पाँच करना / तिया-पाँचा करना -
तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा - अधिक लोगों में उत्तरदायित्व का अभाव
तीन तिलंगे - तीन मित्रों का समूह
तीन - तेरह करना - तितर - बितर करना / इधर - उधर फैला देना
न तीन में न तेरह में - असंबद्ध, महत्वहीन
ढाक के तीन पात - ज्यों का त्यों रहना
कौड़ी के तीन होना - बहुत सस्ता होना / बेकदर होना
चार चाँद लगाना - प्रतिष्ठा बढ़ाना / मान बढ़ाना / शोभा बढ़ाना
चार दिन की चाँदनी, फिर अँधियारी रात - थोड़े दिन का सुख फिर दुख
चार बुलाए चौदह आए - बिन बुलाए मेहमान
चार सौ बीसी करना - छल-कपट या धोखा करना
चारों खाने चित गिरना - पूरी तरह से पस्त होना
चांडाल चौकड़ी - उद्दंड जनों का समूह
आँखें चार होना - प्रेम होना
चार चाँद लगना - शोभा बढ़ना
चार दिन की चाँदनी - कुछ दिन का सुख
चार पैसे आना - आजीविका चलना, आय होना
चारों खाने चित करना - पराजित करना
चारों खाने चित्त होना - हारना
चौके-छक्के जमाना - तेजी से कार्य करना
नजरें चार होना - आँखें मिलना, आमने-सामने होना
पाँचों उँगलिया घी में होना - खूब सुख-आनंद की स्थिति होना
पाँचों उँगलियाँ बराबर न होना- भिन्नता होना
छठी का दूध याद आना - बहुत घबरा जाना / बुरा हाल होना
छठी का दूध याद दिलाना - औकात दिखाना
दिमाग सातवें आसमान पर होना - बहुत अधिक घमंड होना
सात परदों में/के पीछे - गोपनीय
सात समंदर पार से - बहुत दूर से
आठों पहर की चिंता - बहुत फिक्र करना
न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी - न साधन होंगे, न काम होगा
नौ दिन चले अढ़ाई कोस - आलसी हीना, मंद गति से काम करना
नौ दो ग्यारह होना - भाग जाना या पलायन कर जाना
नौ नक़द न तेरह उधार - कम मिलना अधिक मिलने के वायदे से बेहतर
दस में से दस - शत-प्रतिशत
दस सर/हाथ का होना - अत्यधिक/असंभव सामर्थ्य /काम होना
पौ बारह होना - अत्यधिक लाभ होना
बारह बजना - संकट आना, दिमाग खराब होना
चौदहवीं का चाँद होना - बहुत दिनों बाद दिखना
सोलह आने सही होना - शत प्रतिशत या पूरी तरह ठीक होना
उन्नीस बीस का अंतर होना - बहुत थोड़ा अंतर होना
बत्तीसी दिखाना - उपहास करना / खुश होना
छत्तीस का आँकड़ा - आपस में अनबन रहना या किसी से ना बनाना
तिरेसठ होना - एक दूसरे के अनुकूल होना
निन्यानवें के फेर में पड़ना - धन जमा करने की चिंता में रहना
सौ सुनार की एक लुहार की - कई कमजोरों पर एक बलवान की जीत
चार सौ बीस - धोखेबाज
*
हाइकु गीत
समय चक्र
सतत गतिमान
कहे न रुको।
बढ़ते पग / गिरकर उठते / थकते नहीं
रुकते नहीं/कभी चुकते नहीं / झुकते नहीं
तम से लड़े
जलकर भी बाती
कहे न बुझो।
कहे कहानी/लोक अपने आप/बिना प्रचार
जिए जवानी/मरकर हमेशा/माने न हार
अस्त हो सूर्य
फिर उगने हेतु
तुम भी उगो।
करते रहे/पल-पल समर/जो सब मिटे
कुछ हो गए /मरकर अमर/जो थे पिटे
मानें न हार
मनुज मतिमान
विजयी बनो।
●●●
मुक्तक
उत्कर्ष पर पर पग सतत बढ़ते रहें
नित नई मंजिल मिले-वरते रहें
नाप लें आकाश भू में जड़ जमा
आदमी इंसान बन मिलते रहें
***
हाइकु गीत
जोड़-घटाना
प्रेम-नफरत को,
जीवन जीना.....
गुणा करना / परिश्रम का मीत / मत थकना।
भाग करना / थकावट का, जीत / मत रुकना।।
याद रखना
वस्त्र फ़टे या दिल
तुरंत सीना.....
प्रेम परिधि / संदेह के चाप से / कट न सके।
नेह निधि / आय घट-बढ़ से / घट न सके।।
नहीं फलता
गैर का प्राप्य यदि
तुमने छीना.....
जीवन रेखा / सरल हो या वक्र / टूट न सके।
भाग्य का लेखा / हाथ में लिया हाथ / छूट न सके।।
लाज का पर्दा
लोहे से मजबूत
किंतु है झीना.....
संजीव
२२-१२-२०२२, २०.३३
जबलपुर
***
सॉनेट
गणपति
*
जय जय गणपति!, ऋद्धि-सिद्धिपति, मंगलकर्ता, हे प्रथमेश।
भव बाधा हर, हे शब्देश्वर!, सदय रहो प्रभु जोड़ूँ हाथ।
जयति गजानन, जय मतिदाता, शिवा तनय जय, हे विघ्नेश।।
राह न भटकूँ, कहीं न अटकूँ, पैर न पटकूँ, बल दो नाथ।।
वंदन-चंदन, कर अभिनंदन, करूँ स्तवन नित, हे सर्वेश!
जगजननी-जगपिता की कृपा, हो हम पर ऐसा वर दो।
विधि-हरि, शारद-रमा कृपा पा, भज पाएँ हम तुम्हें हमेश।।
करें काम निष्काम भाव से, शांति निकेतन सा घर दो।।
सत्य सनातन कह पाएँ जो ऐसी रचनाएँ हो दैव।
समयसाsक्षी घटनाओं में देखें-दिखा प्रगति की रेख।
चित्र गुप्त हो हरदम उज्जवल, निर्मल हो आचार सदैव।।
सकल सृष्टि परिवार हमारा, प्रकृति मैया पाएँ लेख।।
जय जय दीनानाथ! दयामय, द्रुतलेखी जय जय कलमेश!
रहे नर्मदा जीवन यात्रा, हर लो सारे कष्ट-कलेश।।
२२-१२-२०२१
***
सॉनेट
विवाह
*
चट मँगनी पट माँग भराई।
दुलहा सूरज दुल्हन धूप है।
उषा निहारे खूब रूप है।।
सास धरा को बहू सुहाई।।
द्वार हरिद्रा-छाप लगाई।
छाप पाँव की शुभ अनूप है।
सुतवधु रानी, पुत्र भूप है।।
जोड़ी विधि ने भली मिलाई।।
भौजाई की कर पहुनाई।
है हर्षाई ननदी कोयल।
नाचे मिट्ठू, देवर झूमे।।
ससुर गगन दे मुँह दिखराई।
सँकुचाई बरबस वधु चंचल।
नजर बजा सूरज वधु चूमे।।
२२-१२-२०२१
***
सॉनेट
नारी
*
शारद-रमा-उमा की जय-जय, करती दुनिया सारी।
भ्रांति मिटाने साथ हाथ-पग बढ़ें तभी हो क्रांति।
एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से भारी नारी।।
सफल साधना तभी रहे जब जीवन में सुख-शांति।।
जाया-माया, भोगी-भोग्या, चित-पट अनगिन रंग।
आशा पुष्पा दे बगिया को, सुषमा-किरण अनंत।
पूनम तब जब रहे ज्योत्सना, रजनीपति के संग।।
उषा-दुपहरी-संध्या सहचर दिनपति विभा दिगंत।।
शिक्षा-दीक्षा, रीति-नीति बिन सार्थक हुई न श्वासा।
क्षुधा-पिपासा-तृष्णा बिना हो, जग-जीवन बेरंग।
कीर्ति-प्रतिष्ठा, सज्जा-लज्जा से जीवन मधुमासा।।
राधा धारा भक्ति-मुक्ति की, शुभ्रा-श्वेता संग।।
अमला विमला धवला सरला, सुख प्रदायिनी नारी।
मैया भगिनि भामिनि भाभी पुत्री सखी दुलारी।।
२२-१२-२०२१
***
सुभाषित
*अस्थिरं जीवितं लोके, अस्थिरे धनयौवने।*
*अस्थिरा: पुत्रदाराश्च, धर्मकीर्तिद्वयं स्थिरं*।।
अस्थिर जीवित लोक, धन यौवन स्थिर है नहीं।
सुत-स्त्री अस्थिर यहाँ, धर्म-कीर्ति स्थिर रहे।।
अर्थात्- इस जगत में जीवन सदा नही रहने वाला है, धन और यौवन भी सदा नहीं रहने वाले हैं, पुत्र और स्त्री भी सदा नहीं रहने वाले हैं ;केवल धर्म और कीर्ति ही सदा रहने वाले हैं॥
***
मुक्तिका
प्रात नमन स्वीकार कीजिए हे माधव।
स्वप्न सभी साकार कीजिए हे माधव।।
राघव सा लाघव, सीता सी मर्यादा
युत हमको आचार दीजिए हे माधव।।
वृंदा को जो छले न ऐसे हरि हों हम
शूर्पणखा हित लखन भेजिए हे माधव।।
नगरवधू से मुक्त समूचा भारत हो
गृहवधुओं सज्जित गृह करिए हे माधव।।
नेता हों रणछोड़; न लूटें जनगण को
गो गिरि वन नद पीड़ा हरिए हे माधव।।
हिरणकशिपु सेठों की भस्म करें लंका
जनहित-पथ पर फिर पग धरिए हे माधव।।
कंस प्रशासन ऐश कर रहा जन-धन पर
दर्प हरें कालिय फण नचिए हे माधव।।
न्याय व्यवस्था बंदी काले कोटों की
इन्हें दूर कर श्वेत-सरल करिए माधव।।
श्रीराधे को हृदय बसी छवि जो मधुरिम
वह से सलिल-हृदय में हँस बसिए माधव।।
२२-१२-२०१९
***
मुक्तक:
*
दे रहे सब कौन सुनता है सदा?
कौन किसका कहें होता है सदा?
लकीरों को पढ़ो या कोशिश करो-
वही होता जो है किस्मत में बदा।
*
ठोकर खाएँ नहीं हम हार मानते।
कारण बिना नहीं किसी से रार ठानते।।
कुटिया का छप्पर भी प्यारा लगता-
संगमर्मरी ताजमहल हम न जानते।।
*
तम तो पहले भी होता था, ​अब भी होता है।
यह मनु पहले भी रोता था, अब रोता है।।
पहले थे परिवार, मित्र, संबंधी उसके साथ-
आज न साया संग इसलिए धीरज खोता है।।
२२.१२.२०१८
***
मुक्तक
*
जब बुढ़ापा हो जगाता रात भर
याद के मत साथ जोड़ो मन इसे.
प्रेरणा, जब थी जवानी ली नहीं-
मूढ़ मन भरमा रहा अब तू किसे?
२२-१२-२०१६
***
सामयिक गीत :
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
तुम ही नहीं सयाने जग में
तुम से कई समय के मग में
धूल धूसरित पड़े हुए हैं
शमशानों में गड़े हुए हैं
अवसर पाया काम करो कुछ
मिलकर जग में नाम करो कुछ
रिश्वत-सुविधा-अहंकार ही
झिला रहे हो, झेल रहे हो
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
दलबंदी का दलदल घातक
राजनीति है गर्हित पातक
अपना पानी खून बताएँ
खून और का व्यर्थ बहाएँ
सच को झूठ, झूठ को सच कह
मैली चादर रखते हो तह
देशहितों की अनदेखी कर
अपनी नाक नकेल रहे हो
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
२१-१२-२०१५
***
मुक्तिका:
नए साल का अभिनन्दन
अर्पित है अक्षत-चन्दन
तम हरने दीपक जलता
कब कहता है लगी अगन
कोशिश हार न मानेगी
मरु को कर दे नंदन वन
लक्ष्य वही वर पाता है
जो प्रयास में रहे मगन
बाधाओं को विजय करे
दृढ़ हो जिसका अंतर्मन
गिर मत रुक, उठ आगे बढ़
मत चुकने दे 'सलिल' लगन
बंदूकों से 'सलिल' न डर
जीता भय पर सदा अमन
***
मुक्तिका:
नए साल का अभिनंदन
अर्पित है अक्षत-चंदन
तम हरने दीपक जलता
कब कहता है लगी अगन
कोशिश हार न मानेगी
मरु को कर दे नंदन वन
लक्ष्य वही वर पाता है
जो प्रयास में रहे मगन
बाधाओं को विजय करे
दृढ़ हो जिसका अंतर्मन
गिर मत रुक, उठ आगे बढ़
मत चुकने दे 'सलिल' लगन
बंदूकों से 'सलिल' न डर
जीता भय पर सदा अमन
२२.१२.२०१४
***
धूप -छाँव: बात निकलेगी तो फिर
गुजरे वक़्त में कई वाकये मिलते हैं जब किसी साहित्यकार की रचना को दूसरे ने पूरा किया या एक की रचना पर दूसरे ने प्रति-रचना की. अब ऐसा काम नहीं दिखता। संयोगवश स्व. डी. पी. खरे द्वारा गीता के भावानुवाद को पूर्ण करने का दायित्व उनकी सुपुत्री श्रीमती आभा खरे द्वारा सौपा गया. किसी अन्य की भाव भूमि पर पहुँचकर उसी शैली और छंद में बात को आगे बढ़ाना बहुत कठिन मशक है. धूप-छाँव में हेमा अंजुली जी के कुछ पंक्तियों से जुड़कर कुछ कहने की कोशिश है. आगे अन्य कवियों से जुड़ने का प्रयास करूंगा ताकि सौंपे हुए कार्य के साथ न्याय करने की पात्रता पा सकूँ. पाठक गण निस्संकोच बताएं कि पूर्व पंक्तियों और भाव की तारतम्यता बनी रह सकी है या नहीं? हेमा जी को उनकी पंक्तियों के लिये धन्यवाद।
हेमा अंजुली
इतनी शिद्दत से तो उसने नफ़रत भी नहीं की ....
जितनी शिद्दत से हमने मुहब्बत की थी.
.
सलिल:
अंजुली में न नफरत टिकी रह सकी
हेम पिघला फिसल बूँद पल में गई
साथ साये सरीखी मोहब्बत रही-
सुख में संग, छोड़ दुख में 'सलिल' छल गई
*
हेमा अंजुली
तुम्हारी वो एक टुकड़ा छाया मुझे अच्छी लगती है
जो जीवन की चिलचिलाती धूप में
सावन के बादल की तरह
मुझे अपनी छाँव में पनाह देती है
.
सलिल
और तुम्हारी याद
बरसात की बदरी की तरह
मुझे भिगाकर अपने आप में सिमटना
सम्हलना सिखा आगे बढ़ा देती है.
*
हेमा अंजुली
कभी घटाओं से बरसूँगी ,
कभी शहनाइयों में गाऊँगी,
तुम लाख भुलाने कि कोशिश कर लो,
मगर मैं फिर भी याद आऊँगी ...
.
सलिल
लाख बचाना चाहो
दामन न बचा पाओगे
राह पर जब भी गिरोगे
तुम्हें उठायेंगे
*
हेमा अंजुली
छाने नही दूँगी मैं अँधेरो का वजूद
अभी मेरे दिल के चिराग़ बाकी हैं
.
सलिल
जाओ चाहे जहाँ मुझको करीब पाओगे
रूह में खनक के देखो कि आग बाकी है
*
हेमा अंजुली
सूरत दिखाने के लिए तो
बहुत से आईने थे दुनिया में
काश! कि कोई ऐसा आईना होता
जो सीरत भी दिखाता
.
सलिल
सीरत 'सलिल' की देख टूट जाए न दर्पण
बस इसलिए ही आइना सूरत रहा है देख
***
मुक्तक
मन-वीणा जब करे ओम झंकार
गीत हुलास कर खटकाते हैं द्वार
करे संगणक स्वागत टंकण यंत्र-
सरस्वती मैया की जय-जयकार
***
मातृ वंदना -
*
ममतामयी माँ नंदिनी-करुणामयी माँ इरावती।
सन्तान तेरी मिल उतारें, भाव-भक्ति से आरती...
लीला तुम्हारी हम न जानें, भ्रमित होकर हैं दुखी।
सत्पथ दिखाओ माँ, बने सन्तान सब तेरी सुखी॥
निर्मल ह्रदय के भाव हों, किंचित न कहीं अभाव हों-
सात्विक रहे आचार, माता सदय रहो निहारती..
कुछ काम जग के आ सकें, महिमा तुम्हारी गा सकें।
सत्कर्म कर आशीष मैया!, पुत्र तेरे पा सकें॥
निष्काम औ' निष्पक्ष रह, सब मोक्ष पायें अंत में-
निश्छल रहें मन-प्राण, वाणी नित तम्हें गुहारती...
चित्रेश प्रभु केकृपा मैया!, आप ही दिलवाइये।
जैसे भी हैं, हैं पुत्र माता!, मत हमें ठुकराइए॥
कंकर से शंकर बन सकें, सत-शिव औ' सुंदर वर सकें-
साधना कर सफल, क्यों मुझ 'सलिल' को बिसारती...
२१-१२-२०१२
***
विचार-विमर्श नारी प्रताड़ना का दंड? संजीव 'सलिल'
*
दिल्ली ही नहीं अन्यत्र भी भारत हो या अन्य विकसित, विकासशील या पिछड़े देश, भाषा-भूषा, धर्म, मजहब, आर्थिक स्तर, शैक्षणिक स्तर, वैज्ञानिक उन्नति या अवनति सभी जगह नारी उत्पीडन एक सा है. कहीं चर्चा में आता है, कहीं नहीं किन्तु इस समस्या से मुक्त कोई देश या समाज नहीं है.
फतवा हो या धर्मादेश अथवा कानून नारी से अपेक्षाएं और उस पर प्रतिबन्ध नर की तुलना में अधिक है. एक दृष्टिकोण 'जवान हो या बुढ़िया या नन्हीं सी गुडिया, कुछ भी हो औरत ज़हर की है पुड़िया' कहकर भड़ास निकलता है तो दूसरा नारी संबंधों को लेकर गाली देता है.
यही समाज नारी को देवी कहकर पूजता है यही उसे भोगना अपना अधिकार मानता है.
'नारी ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया' यदि मात्र यही सच है तो 'एक नहीं दो-दो मात्राएँ नर से भारी नारी' कहनेवाला पुरुष आजीवन माँ, बहन, भाभी, बीबी या कन्या के स्नेहानुशासन में इतना क्यों बंध जाता है 'जोरू का गुलाम कहलाने लगता है.
स्त्री-पीड़ित पुरुषों की व्यथा-कथा भी विचारणीय है.
घर में स्त्री को सम्मान की दृष्टि से देखनेवाला युवा अकेली स्त्री को देखते ही भोगने के लिए लालायित क्यों हो जाता है?
ऐसे घटनाओं के अपराधी को दंड क्या और कैसे दिया जाए? इन बिन्दुओं पर विचार-विमर्श आवश्यक प्रतीत होता है. आपका स्वागत है।
२२-१२-२०१२
***
विमर्श : रेफ युक्त शब्द
राकेश खंडेलवाल
रेफ़ वाले शब्दों के उपयोग में अक्सर गलती हो जाती हैं। हिंदी में 'र' का संयुक्त रूप से तीन तरह से उपयोग होता है। '
१. कर्म, धर्म, सूर्य, कार्य
२. प्रवाह, भ्रष्ट, ब्रज, स्रष्टा
३. राष्ट्र, ड्रा
जो अर्ध 'र' या रेफ़ शब्द के ऊपर लगता है, उसका उच्चारण हमेशा उस व्यंजन ध्वनि से पहले होता है, जिसके ऊपर यह लगता है। रेफ़ के उपयोग में ध्यान देने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वर के ऊपर नहीं लगाया जाता। यदि अर्ध 'र' के बाद का वर्ण आधा हो, तब यह बाद वाले पूर्ण वर्ण के ऊपर लगेगा, क्योंकि आधा वर्ण में स्वर नहीं होता। उदाहरण के लिए कार्ड्‍‍स लिखना गलत है। कार्ड्स में ड् स्वर विहीन है, जिस कारण यह रेफ़ का भार वहन करने में असमर्थ है। इ और ई जैसे स्वरों में रेफ़ लगाने की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए स्पष्ट है कि किसी भी स्वर के ऊपर रेफ़ नहीं लगता।
ब्रज या क्रम लिखने या बोलने में ऐसा लगता है कि यह 'र' की अर्ध ध्वनि है, जबकि यह पूर्ण ध्वनि है। इस तरह के शब्दों में 'र' का उच्चारण उस वर्ण के बाद होता है, जिसमें यह लगा होता है ,
जब भी 'र' के साथ नीचे से गोल भाग वाले वर्ण मिलते हैं, तब इसके /\ रूप क उपयोग होता है, जैसे-ड्रेस, ट्रेड, लेकिन द और ह व्यंजन के साथ 'र' के / रूप का उपयोग होता है, जैसे- द्रवित, द्रष्टा, ह्रास।
संस्कृत में रेफ़ युक्त व्यंजनों में विकल्प के रूप में द्वित्व क उपयोग करने की परंपरा है। जैसे- कर्म्म, धर्म्म, अर्द्ध। हिंदी में रेफ़ वाले व्यंजन को द्वित्व (संयुक्त) करने का प्रचलन नहीं है। इसलिए रेफ़ वाले शब्द गोवर्धन, स्पर्धा, संवर्धन शुद्ध हैं।
''जो अर्ध 'र' या रेफ़ शब्द के ऊपर लगता है, उसका उच्चारण हमेशा उस व्यंजन ध्वनि से पहले होता है। '' के संबंध में नम्र निवेदन है कि रेफ कभी भी 'शब्द' पर नहीं लगाया जाता. शब्द के जिस 'अक्षर' या वर्ण पर रेफ लगाया जाता है, उसके पूर्व बोला या उच्चारित किया जाता है।
- संजीव सलिल:
''हिंदी में 'र' का संयुक्त रूप से तीन तरह से उपयोग होता है.'' के संदंर्भ में निवेदन है कि हिन्दी में 'र' का संयुक्त रूप से प्रयोग चार तरीकों से होता है। उक्त अतिरिक्त ४. कृष्ण, गृह, घृणा, तृप्त, दृष्टि, धृष्ट, नृप, पृष्ठ, मृदु, वृहद्, सृष्टि, हृदय आदि। यहाँ उच्चारण में छोटी 'इ' की ध्वनि समाविष्ट होती है जबकि शेष में 'अ' की।
यथा: कृष्ण = krishn, क्रम = kram, गृह = ग्रिह grih, ग्रह = grah, श्रृंगार = shringar, श्रम = shram आदि।
राकेश खंडेलवाल :
एक प्रयोग और: अब सन्दर्भ आप ही तलाशें:
दोहा:-
सोऽहं का आधार है, ओंकार का प्राण।
रेफ़ बिन्दु वाको कहत, सब में व्यापक जान।१।
बिन्दु मातु श्री जानकी, रेफ़ पिता रघुनाथ।
बीज इसी को कहत हैं, जपते भोलानाथ।२।
हरि ओ३म तत सत् तत्व मसि, जानि लेय जपि नाम।
ध्यान प्रकाश समाधि धुनि, दर्शन हों बसु जाम।३।
बांके कह बांका वही, नाम में टांकै चित्त।
हर दम सन्मुख हरि लखै, या सम और न बित्त।४।
रेफ का अर्थ:
-- वि० [सं०√रिफ्+घञवार+इफन्] १. शब्द के बीच में पड़नेवाले र का वह रूप जो ठीक बाद वाले स्वरांत व्यंजन के ऊपर लगाया जाता है। जैसे—कर्म, धर्म, विकर्ण। २. र अक्षर। रकार। ३. राग। ४. रव। शब्द। वि० १. अधम। नीच। २. कुत्सित। निन्दनीय। -भारतीय साहित्य संग्रह.
-- पुं० [ब० स०] १. भागवत के अनुसार शाकद्वीप के राजा प्रियव्रत् के पुत्र मेधातिथि के सात पुत्रों में से एक। २. उक्त के नाम पर प्रसिद्ध एक वर्ष अर्थात् भूखंड।
रेफ लगाने की विधि : डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक', शब्दों का दंगल में
हिन्दी में रेफ अक्षर के नीचे “र” लगाने के लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है?
यदि ‘र’ का उच्चारण अक्षर के बाद हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के नीचे लगेगी जिस के बाद ‘र’ का उच्चारण हो रहा है। यथा - प्रकाश, संप्रदाय, नम्रता, अभ्रक, चंद्र।
हिन्दी में रेफ या अक्षर के ऊपर "र्" लगाने के लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र्’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है ? “र्" का उच्चारण जिस अक्षर के पूर्व हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के ऊपर लगेगी जिस के पूर्व ‘र्’ का उच्चारण हो रहा है । उदाहरण के लिए - आशीर्वाद, पूर्व, पूर्ण, वर्ग, कार्यालय आदि ।
रेफ लगाने के लिए जहाँ पूर्ण "र" का उच्चारण हो रहा है वहाँ उस अक्षर के नीचे रेफ लगाना है जिसके पश्चात "र" का उच्चारण हो रहा है। जैसे - प्रकाश, संप्रदाय , नम्रता, अभ्रक, आदि में "र" का पूर्ण उच्चारण हो रहा है ।
*
६३ ॥ श्री अष्टा वक्र जी ॥
दोहा:-
रेफ रेफ तू रेफ है रेफ रेफ तू रेफ ।
रेफ रेफ सब रेफ है रेफ रेफ सब रेफ ॥१॥
*
१५२ ॥ श्री पुष्कर जी ॥
दोहा:-
रेफ बीज है चन्द्र का रेफ सूर्य का बीज ।
रेफ अग्नि का बीज है सब का रेफैं बीज ॥१॥
रेफ गुरु से मिलत है जो गुरु होवै शूर ।
तो तनकौ मुश्किल नहीं राम कृपा भरपूर ॥२॥
*
चलते-चलते : अंग्रेजी में रेफ का प्रयोग सन्दर्भ reference और खेल निर्णायक refree के लिये होता है.
***

शनिवार, 20 दिसंबर 2025

दिसंबर २०, सोलह संस्कार, कृष्ण, सॉनेट, यमकीय दोहा, दोहा कहे मुहावरा, कविता, नव वर्ष

सलिल सृजन दिसंबर २०
*
गीत
०००
नव वर्ष!
परिपाटी पुरानी हम न छोड़ेंगे
चुनावी वादे करेंगे और तोड़ेंगे
.
बाड़ हँस खेती चरेगी
पाप की नौका तरेगी
स्वर्ण मृग की चाह पाले
सिया रावण को वरेगी
नव वर्ष!
ईमां की कसम खाकर
रकम रिश्वत की निरंतर लूट जोड़ेंगे
नव वर्ष!
परिपाटी पुरानी हम न छोड़ेंगे
.
विवश जनता क्या करेगी?
बिना मारे ही मरेगी
झेल गाली, लट्ठ, गोली
सिसककर सजदा करेगी
नव वर्ष!
'लोक' होंगे 'तंत्र' के चाकर
गुलामी फिर बिछा - ओढ़ेंगे
नव वर्ष!
परिपाटी पुरानी हम न छोड़ेंगे
.
नफरती खेती बढ़ेगी
बेल दूरी की चढ़ेगी
भाईचारे का दहनकर
द्वार से खिड़की लड़ेगी
नव वर्ष!
काबिल, अकाबिल के हाथ जोड़ेंगे
नव वर्ष!
परिपाटी पुरानी हम न छोड़ेंगे
२० . १२ . २०२५
०००
सॉनेट
नमन
साँवरे कन्हाई को नमन।
शरारत सुहाई को नमन।
बाबा-मताई को नमन।।
बावरी लुनाई को नमन।।
बाँसुरी बजाई को नमन।
प्रीत उर जगाई को नमन।
कर्म की बड़ाई को नमन।।
भक्त से मिताई को नमन।।
जमुना लहराई को नमन।
रास मिल रचाई को नमन।
शक्ति टकराई को नमन।।
भक्ति मुस्कुराई को नमन।।
भयंकर लड़ाई को नमन।
क्रांति, शांति आई को नमन।।
२०-१२-२०२२
जबलपुर, ६•४०
●●●
सॉनेट
बासंती कृष्ण
पीतांबरी बसंत खिलखिल।
ब्रज-रज, गोवर्धन पर छाया।
गोप-गोपियों के मन भाया।।
छटा श्यामली से गल-भुज मिल।।
अमलतास कचनार फूलते।
फाग कहें जमुना की लहरें।
रास रचा पग तनिक न ठहरें।।
नथ-लट-बेंदे झूम झूलते।।
चंचल लहर लहर लहराई।
चपला भँवर भँवर मुस्काई।
श्यामा-श्याम छटा मन भाई।।
जन-मन मोहे बंसी की धुन।
अपने सपने नए रहे बुन।
सँग बसंत आ छाया फागुन।।
संजीव
२०-१२-२०२२
९४२५१८३२४४, ७•२७,
जबलपुर
●●●
सोलह संस्कार
सोलह संस्कारों के नाम और संक्षिप्त परिचय :-
१. गर्भाधानम्
२. पुंसवनम्
३. सीमन्तोन्नयनम्
४. जातकर्मसंस्कारः
५. नामकरणम्
६. निष्क्रमणसंस्कारः
७. अन्नप्राशनसंस्कारः
८. चूडाकर्मसंस्कारः
९. कर्णवेधसंस्कारः
१०. उपनयनसंस्कारः
११. वेदारम्भसंस्कारः
१२. समावर्त्तनसंस्कारः
१३. विवाहसंस्कारः
१४. वानप्रस्थाश्रमसंस्कारः
१५. संन्यासाश्रमसंस्कारः
१६. अन्त्येष्टिकर्मविधिः
★ १. गर्भाधानम् - गर्भाधान उसको कहते हैं कि जो " गर्भस्याऽऽधानं वीर्यस्थापनं स्थिरीकरणं यस्मिन् येन वा कर्मणा , तद् गर्भाधानम् ।" गर्भ का धारण , अर्थात् वीर्य का स्थापन गर्भाशय में स्थिर करना जिससे होता है । उसी को गर्भाधान संस्कार कहते है ।
● २. पुंसवनम् - पुंसवन उसको कहते हैं जो ऋतुदान देकर गर्भस्थिती से दूसरे वा तीसरे महीने में पुंसवन संस्कार किया जाता है ।
अर्थात् गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में जो संस्कार किया जाता है । उसे पुंसवन संस्कार कहते है ।
■ ३. सीमन्तोन्नयनम् - जिससे गर्भिणी स्त्री का मन संतुष्ट आरोग्य गर्भ स्थिर उत्कृष्ट होवे और प्रतिदिन बढ़ता जावे । उसे सीमन्तोन्नयन कहते हैं ।
◆ गर्भमास से चौथे महीने में शुक्लपक्ष में जिस दिन मूल आदि पुरुष नक्षत्रों से युक्त चन्द्रमा हो उसी दिन सीमन्तोन्नयन संस्कार करें और पुंसवन संस्कार के तुल्य छठे आठवें महीने में पूर्वोक्त पक्ष नक्षत्रयुक्त चन्द्रमा के दिन सीमन्तोन्नयन संस्कार करें ।
★ ४. जातकर्मसंस्कारः - संतान के जन्म के तुरंत बाद जो संस्कार किया जाता है । उसे जातकर्म संस्कार कहते हैं ।
★ ५. नामकरणम् - जन्मे हुए बालक का सुन्दर नाम धरे । ( सार्थक नाम रखना )
नामकरण का काल - जिस दिन जन्म हो उस दिन से लेके १० दिन छोड़ ग्यारहवें , वा एक सौ एकवें अथवा
दूसरे वर्ष के आरंभ में जिस दिन जन्म हुआ हो , नाम धरे ।
◆ ६. निष्क्रमणसंस्कारः - निष्क्रमणसंस्कार उसको कहते हैं कि जो बालक को घर से जहाँ का वायुस्थान शुद्ध हो वहाँ भ्रमण कराना होता है । उसका समय जब अच्छा देखें तभी बालक को बाहर घुमावें अथवा चौथे मास में तो अवश्य भ्रमण करावें ।
निष्क्रमण संस्कार के काल के दो भेद हैं - एक बालक के जन्म के पश्चात् तीसरे शुक्लपक्ष की तृतीया , और दूसरा चौथे महीने में जिस तिथि में बालक का जन्म हुआ हो । उस तिथि में यह संस्कार करे ।
★ ७. अन्नप्राशनसंस्कारः - अन्नप्राशन संस्कार तभी करे जब बालक की शक्ति अन्न पचाने योग्य होवे ।
छठे महीने बालक को अन्नप्राशन करावे । जिसको तेजस्वी बालक करना हो , वह घृतयुक्त भात ( चावल ) अथवा दही , शहद और घृत तीनों भात के साथ मिलाके विधि अनुसार संस्कार करें ।
★ ८. चूडाकर्मसंस्कारः ( मुण्डन संस्कार ) - चूडाकर्म को केशछेदन संस्कार भी कहते है । ( सिर को केश व बाल रहित करना )
यह चूडाकर्म अथवा मुण्डन बालक के जन्म के तीसरे वर्ष वा एक वर्ष में करना ।उत्तरायणकाल शुक्लपक्ष में जिस दिन आनन्दमङ्गल हो , उस दिन यह संस्कार करे ।
★ ९. कर्णवेधसंस्कारः - बालक के कर्ण वा नासिका का छेदन करना कर्णवेधसंस्कार है ।
बालक के कर्ण वा नासिका के वेध का समय जन्म से तीसरे वा पांचवें वर्ष का उचित है ।
■ १०. उपनयनसंस्कारः ( यज्ञोपवीत , जनेऊ ) -
जिस दिन जन्म हुआ हो अथवा जिस दिन गर्भ रहा हो । उससे आठवें वर्ष में ब्राह्मण के ,जन्म वा गर्भ से ग्यारहवें वर्ष में क्षत्रिय के और जन्म वा गर्भ से बारहवें वर्ष में वैश्य के बालक का यज्ञोपवीत करें तथा ब्राह्मण के १६ सोलह , क्षत्रिय के २२ बाईस और वैश्य का बालक का २४ चौबीसवें वर्ष से पूर्व - पूर्व यज्ञोपवीत होना चाहिये । यदि पूर्वोक्त काल में यज्ञोपवीत व जनेऊ न हो वे पतित माने जावें ।
● जिसको शीघ्र विद्या , बल और व्यवहार करने की इच्छा हो और बालक भी पढ़ने समर्थ हो तो ब्राह्मण के लड़के का जन्म वा गर्भ से पांचवें , क्षत्रिय के लड़के का जन्म वा गर्भ से छठे और वैश्य के लड़के का जन्म वा गर्भ से आठवें वर्ष में यज्ञोपवीत करें ।
★ ११. वेदारम्भसंस्कारः - वेदारम्भ उसको कहते हैं जो गायत्री मन्त्र से लेके साङ्गोपाङ्ग ( अङ्ग - शिक्षा , कल्प , व्याकरण , निरुक्त , छन्द , ज्योतिष । उपाङ्ग - पूर्वमीमांसा , वैशेषिक , न्याय , योग , सांख्य और वेदांत । उपवेद - आयुर्वेद , धनुर्वेद , गान्धर्ववेद और अर्थवेद अर्थात् शिल्पशास्त्र । ब्राह्मण - ऐतरेय , शतपथ , साम और गोपथ । वेद - ऋक् , यजुः , साम और अथर्व इन सबको क्रम से पढ़े । ) चारों वेदों के अध्ययन करने के लिये नियम धारण करना ।
समय - जो दिन उपनयनसंस्कार का है , वही वेदारम्भ का है । यदि उस दिवस में न हो सके , अथवा करने की इच्छा न हो तो दूसरे दिन करे । यदि दूसरा दिन भी अनुकूल न हो तो एक वर्ष के भीतर किसी दिन करे ।
★ १२. समावर्त्तनसंस्कारः - समावर्त्तनसंस्कार उसको कहते हैं जिसमें ब्रह्मचर्यव्रत साङ्गोपाङ्ग वेदविद्या , उत्तमशिक्षा और पदार्थविज्ञान को पूर्ण रीति से प्राप्त होके विवाह विधानपूर्वक गृहाश्रम को ग्रहण करने के लिए घर की ओर आना ।
तीन प्रकार के स्नातक होते है ।
१. विद्यास्नातक - जो केवल विद्या को समाप्त तथा ब्रह्मचर्य व्रत को न समाप्त करके स्नान करता है वह विद्यास्नातक है ।
२. व्रतस्नातक - जो ब्रह्मचर्य व्रत को समाप्त तथा विद्या को न समाप्त करके स्नान करता है वह व्रतस्नातक है ।
३. विद्याव्रतस्नातक - जो विद्या और ब्रह्मचर्य व्रत दोनों को समाप्त करके स्नान करता है वह विद्यव्रतस्नातक कहाता है ।
इस कारण ४८ अड़तालीस वर्ष का ब्रह्मचर्य समाप्त करके ब्रह्मचारी विद्या व्रत स्नान करे ।
★ १३. विवाहसंस्कारः - विवाह उसको कहते हैं कि जो पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत से विद्या बल को प्राप्त तथा सब प्रकार से शुभ गुण , कर्म , स्वभावों और अपने - अपने वर्णाश्रम के अनुकूल उत्तम कर्म करने के लिये स्त्री और पुरुष का जो संबंध होता है ।
* उत्तरायण शुक्लपक्ष अच्छे दिन अर्थात् जिस दिन प्रसन्नता हो उस दिन विवाह करना चाहिये ।
* कितने आचार्यों का मत है कि सब काल में विवाह करना चाहिए ।
* जिस अग्नि का स्थापन विवाह में होता है , उस को आवसथ्य नाम है ।
* प्रसन्नता के दिन स्त्री का पाणिग्रहण , जो कि स्त्री सर्वथा शुभ गुणादि से उत्तम हो , करना चाहिए ।
■ विवाह - जब दो प्राणी प्रेमपूर्वक आकर्षित होकर अपने आत्मा , हृदय और शरीर को एक - दूसरे को अर्पित कर देते हैं , तब हम सांसारिक भाषा में उसे विवाह कहते है ।
★ १४. वानप्रस्थाश्रमसंस्कारः - वानप्रस्थसंस्कार उसको कहते हैं , जो विवाह से सन्तानोत्पत्ति करके पूर्ण ब्रह्मचर्य से पुत्र का भी विवाह करे , और पुत्र का भी एक संतान हो जाए । अर्थात् जब पुत्र का भी पुत्र हो जाए तब पुरुष वानप्रस्थाश्रम अर्थात् वन में जाकर वानप्रस्थाश्रम के कर्तव्य का निर्वहन करें।
★ १५.संन्यासाश्रमसंस्कारः - संन्यास संस्कार उसको कहते हैं कि जो मोहादि आवरण पक्षपात छोड़के विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकार्थ विचरे ।
★ १६ . अन्त्येष्टिकर्म - अन्त्येष्टि कर्म उसको कहते हैं कि जो शरीर के अंत का संस्कार है , जिसके आगे शरीर के लिए कोई भी अन्य संस्कार नहीं हैं । इसी को नरमेध , पुरुषमेध , नरयाग , पुरुषयाग भी कहते हैं ।
* भस्मान्त ँ् शरीरम् । ( यजुर्वेद ४०.१५ )
इस शरीर का संस्कार ( भस्मान्तम् ) अर्थात् भस्म करने पर्यंत है ।
***
नवगीत
अपना अपना सच
*
सबका अपना अपना सच है
*
निज सच को
मत थोप अन्य पर,
सत्य और का
झूठ न मानो।
क्या-क्यों कहता?
यह भी जानो।
आत्म मुग्ध हो
पोथे लिखकर
बने मसीहा निज मुख खुद ही
अन्य न माने।
नहीं मुखापेक्षी अब कच है
सबका अपना अपना सच है
*
शहर-गाँव
दोनों परेशां,
तंत्र हावी है,
उपेक्षित है लोक।
अधर पर मुस्कान झूठी
छिपा मन में शोक।
दो दुहाई तुम
विधान की
मनमानी कर
गीत न जाने।
लिखी भुखमरी, तुम्हें अपच है
सबका अपना अपना सच है
*
२०-१२-२०२०
***
गीत -
एक दिन ही नया
*
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
मन सनातन सत्य
निश-दिन गुनगुनाना।
*
समय कब रुकता?
निरंतर चला करता।
स्वर्ण मृग
संयम सिया को
छला करता।
लक्ष्मण-रेखा कहे
मत पार जाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
निठुर है बाज़ार
क्रय-विक्रय न भूले।
गाल पिचका
आम के
हैं ख़ास फूले।
रोकड़़ा पाए अधिक जो
वह सयाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
सबल की मनमानियाँ
वैश्वीकरण है।
विवश जन को
दे नहीं
सत्ता शरण है।
तंत्र शोषक साधता
जन पर निशाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
२०. १२.२०१५
नवगीत
भीड़ में
*
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
नाम के रिश्ते कई हैं
काम का कोई नहीं
भोर के चाहक अनेकों
शाम का कोई नहीं
पुरातन है
हर नवेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
गलत को कहते सही
पर सही है कोई नहीं
कौन सी है आँख जो
मिल-बिछुड़कर कोई नहीं
पालता फिर भी
झमेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
जागती है आँख जो
केवल वही सोई नहीं
उगाती फसलें सपन की
जो कभी बोईं नहीं
कौन सा संकट
न झेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
२०-१२-२०१५
***
यमकीय दोहा:
नाहक हक ना त्याग तू, ना हक पीछे भाग
ना ज्यादा अनुराग रख, ना हो अधिक विराग
*
मन उन्मन मत हो पुलक, चल चिलमन के गाँव
चिलम न भर चिल रह 'सलिल', तभी मिले सुख-छाँव
*
गए दवाखाना तभी, पाया यह संदेश
भूल दवा खाना गए, खा लें था निर्देश
*
ठाकुर को सिर झुकाकर, ठाकुर करें प्रणाम
ठकुराइन मुस्का रहीं, आज पड़ा फिर काम
*
नम न हुए कर नमन तो, समझो होती भूल
न मन न तन हो समन्वित, तो चुभता है शूल
*
बख्शी को बख्शी गयी, जैसे ही जागीर
थे फकीर कहला रहे, पुरखे रहे अमीर
*
घट ना फूटे सम्हल जा, घट ना जाए मूल
घटना यदि घट जाए तो, व्यर्थ नहीं दें तूल
*
चमक कैमरे ले रहे, जहाँ-तहाँ तस्वीर
दुर्घटना में कै मरे,जानो कर तदबीर
*
तिल-तिल कर जलता रहा, तिल भर किया न त्याग
तिल-घृत की चिंताग्नि की, सहे सुयोधन आग
*
'माँग भरें' वर माँगकर, गौरी हुईं प्रसन्न
वर बन बौरा माँग भर, हुए अधीन- न खिन्न
२०-१२-२०१४
***
कविता क्या???
लगभग ३००० साल प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार कविता ऐसी रचना है जिसके शब्दों-अर्थों में दोष कदापि न हों, गुण अवश्य हों चाहे अलंकार कहीं-कहीं पर भी न हों१। दिग्गज काव्याचार्यों ने काव्य को रमणीय अर्थमय२ चित्त को लोकोत्तर आनंद देने में समर्थ३, रसमय वाक्य४, काव्य को शोभा तथा धर्म को अलंकार५, रीति (गुणानुकूल शब्द विन्यास/ छंद) को काव्य की आत्मा६, वक्रोक्ति को काव्य का जीवन७, ध्वनि को काव्य की आत्मा८, औचित्यपूर्ण रस-ध्वनिमय९, कहा है। काव्य (ग्रन्थ} या कविता (पद्य रचना) श्रोता या पाठक को अलौकिक भावलोक में ले जाकर जिस काव्यानंद की प्रतीति कराती हैं वह वस्तुतः शब्द, अर्थ, रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध्य, तथा औचित्य की समन्वित-सम्मिलित अभिव्यक्ति है।
सन्दर्भ :
१. तद्दोशौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि -- मम्मट, काव्य प्रकाश,
२. रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम -- पं. जगन्नाथ,
३. लोकोत्तरानंददाता प्रबंधः काव्यनामभाक -- अम्बिकादत्त व्यास,
४. रसात्मकं वाक्यं काव्यं -- महापात्र विश्वनाथ,
५. काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते -- डंडी, काव्यादर्श,
६. रीतिरात्मा काव्यस्य -- वामन, ९०० ई., काव्यालंकार सूत्र,
७. वक्रोक्तिः काव्य जीवितं -- कुंतक, १००० ई., वक्रोक्ति जीवित,
८. काव्यस्यात्मा ध्वनिरितिः, आनंदवर्धन, ध्वन्यालोक,
९. औचित्यम रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यं जीवितं -- क्षेमेन्द्र, ११०० ई., औचित्य विचार चर्चा,
०००
हाइकु गीत:
आँख का पानी
संजीव 'सलिल'
*
आँख का पानी,
मर गया तो कैसे
धरा हो धानी?...
*
तोड़ बंधन
आँख का पानी बहा.
रोके न रुका.
आसमान भी
हौसलों की ऊँचाई
के आगे झुका.
कहती नानी
सूखने मत देना
आँख का पानी....
*
रोक न पाये
जनक जैसे ज्ञानी
आँसू अपने.
मिट्टी में मिला
रावण जैसा ध्यानी
टूटे सपने.
आँख से पानी
न बहे, पर रहे
आँख का पानी...
*
पल में मरे
हजारों बेनुगाह
गैस में घिरे.
गुनहगार
हैं नेता-अधिकारी
झूठे-मक्कार.
आँख में पानी
देखकर रो पड़ा
आँख का पानी...
***
हाइकु मुक्तक :
जापानी छंद / पाँच सात औ' पाँच / देता आनंद
तजिए द्वंद / सदा कहिए साँच / तजिए गंद
तोड़िए फंद / साँच को नहीं आँच / सूर्य अमंद
आनंदकंद / मन दर्पण काँच / परमानंद
२० . १२ . २०१४
०००
दोहा सलिला:
दोहा कहे मुहावरा...
*
दोहा कहे मुहावरा, सुन-गुन समझो मीत.
कम कहिये समझें अधिक, जन-जीवन की रीत.१.
*
दोहा संग मुहावरा, दे अभिनव आनंद.
'गूंगे का गुड़' जानिए, पढ़िये-गुनिये छंद.२.
*
हैं वाक्यांश मुहावरे, जिनका अमित प्रभाव.
'सिर धुनते' हैं नासमझ, समझ न पाते भाव.३.
*
'पत्थर पड़ना अकल पर', आज हुआ चरितार्थ.
प्रतिनिधि जन को छल रहे, भुला रहे फलितार्थ.४.
*
'अंधे की लाठी' सलिल, हैं मजदूर-किसान.
जिनके श्रम से हो सका भारत देश महान.५.
*
कवि-कविता ही बन सके, 'अंधियारे में ज्योत'
आपद बेला में सकें, साहस-हिम्मत न्योत.६.
*
राजनीति में 'अकल का, चकराना' है आम.
दक्षिण के सुर में 'सलिल', बोल रहा है वाम.७.
*
'अलग-अलग खिचडी पका', हारे दिग्गज वीर.
बतलाता इतिहास सच, समझ सकें मतिधीर.८.
*
जो संसद में बैठकर, 'उगल रहा अंगार'
वह बीबी से कह रहा, माफ़ करो सरकार.९.
*
लोकपाल के नाम पर, 'अगर-मगर कर मौन'.
सारे नेता हो गए, आगे आए कौन?१०?
*
'अंग-अंग ढीला हुआ', तनिक न फिर भी चैन.
प्रिय-दर्शन पाये बिना आकुल-व्याकुल नैन.११.
*
'अपना उल्लू कर रहे, सीधा' नेता आज.
दें आश्वासन झूठ नित, तनिक न आती लाज.12.
*
'पानी-पानी हो गये', साहस बल मति धीर.
जब संयम के पल हुए, पानी की प्राचीर.13.
*
चीन्ह-चीन्ह कर दे रहे, नित अपनों को लाभ.
धृतराष्ट्री नेता हुए, इसीलिये निर-आभ.14.
*
पंथ वाद दल भूलकर, साध रहे निज स्वार्थ.
संसद में बगुला भगत, तज जनहित-परमार्थ.15.
*
छुरा पीठ में भौंकना, नेता जी का शौक.
लोकतंत्र का श्वान क्यों, काट न लेता भौंक?16.
*
राजनीति में संत भी, बदल रहे हैं रंग.
मैली नाले सँग हुई, जैसे पावन गंग.17.
*
दरिया दिल हैं बात के, लेकिन दिल के तंग.
पशोपेश उनको कहें, हम अनंग या नंग?18.
*
मिला हाथ से हाथ वे, चला रहे सरकार.
भुला-भुना आदर्श को, पाल रहे सहकार.19.
*
लिये हाथ में हाथ हैं, खरहा शेर सियार.
मिलते गले चुनाव में, कल झगड़ेंगे यार.20.
*
गाल बजाते फिर रहे, गली-गली सरकार.
गाल फुलाये जो उन्हें, करें नमन सौ बार.21.
*
राम नाप जपते रहे,गैरों का खा माल.
राम नाम सत राम बिन, करते राम कमाल.22.
*
'राम भरोसे' हो रहे, पूज्य निरक्षर संत.
'मुँह में राम बगल लिये, छुरियाँ' मिले महंत.२३.
*
'नाच न जानें' कह रहे, 'आंगन टेढ़ा' लोग.
'सच से आँखें मूंदकर', 'सलिल' न मिटता रोग.२४.
*
'दिन दूना'और 'रात को, चौगुन' कर व्यापार.
कंगाली दिखला रहे, स्याने साहूकार.२५.
*
'साढ़े साती लग गये', चल शिंगनापुर धाम.
'पैरों का चक्कर' मिटे, दुःख हो दूर तमाम.२६.
*
'तार-तार कर' रहे हैं, लोकतंत्र का चीर.
लोभतंत्र ने रच दिया, शोकतंत्र दे पीर.२७.
*
'बात बनाना' ही रहा, नेताओं का काम.
'बात करें बेबात' ही, संसद सत्र तमाम.२८.
*
'गोल-मोल बातें करें', 'करते टालमटोल'.
असफलता को सफलता, कहकर 'पीटें ढोल'.२९.
*
'नौ दिन' चलकर भी नहीं, 'चले अढ़ाई कोस'.
किया परिश्रम स्वल्प पर, रहे 'भाग्य को कोस'.३०.
२०-१२-२०१३
***