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शनिवार, 1 नवंबर 2025

१ नवंबर, चिंतन, ऊँच-नीच, लघुकथा, दोहा, विवाह, नवंबर, मुक्तक, गीत, मुक्तिका

सलिल सृजन १ नवंबर
नवंबर  : कब - क्या?
०१ गुरु गोविंद सिंह पुण्यतिथि, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ दिवस
०४ गणितविद् शकुंतला देवी जयंती १९९९, प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जन्म
०६ अभिनेता संजीव कुमार निधन
०७ भौतिकीविद् चंद्रशेखर वेंकटेश्वर रमण जन्म १८८८। 
१० महाप्रसाद अग्निहोत्री निधन।
१२ महामना मालवीय निधन १९४६।
१४ बाल दिवस, जवाहरलाल नेहरू जयंती, विश्व मधुमेह दिवस।
१५ बिरसा मुंडा जयंती, संत विनोबा दिवस, जयशंकर प्रसाद निधन १९३७।
१६ विश्व सहिष्णुता दिवस, सचिव तेंदुलकर रिटायर २०१३।
१७ लाला लाजपतराय बलिदान दिवस १९२८, बाल ठाकरे दिवंगत २०१२।
१८ काशी विश्वनाथ प्रतिष्ठा दिवस।
१९ म. लक्ष्मीबाई जयंती १८२८, इंदिरा गाँधी जयंती १९१७, मातृ दिवस। 
२१- भौतिकीविद् चंद्र शेखर वेंकट रमण निधन १९७०
२२ झलकारी बाई जयंती, दुर्गादास पुण्यतिथि।
२३ सत्य साई जयंती, जगदीश चंद्र बसु निधन १९३७।
२४ गुरु तेगबहादुर बलिदान, अभिनेता महीपाल जन्म १९१९, अभिनेत्री टुनटुन निधन २००३, साहित्यकार महीप सिंह निधन २०१५, ।
२६ डॉ. हरि सिंह गौर जयंती।
२७ बच्चन निधन १९०७।
२८ जोतीबा फूले निधन १८९०।
२९ शरद सिंह १९६३।
३० जगदीश चंद्र बसु जन्म १८५८, मैत्रेयी पुष्पा जन्म।
***
चिंतन
सब प्रभु की संतान हैं, कोऊ ऊँच न नीच
*
'ब्रह्मम् जानाति सः ब्राह्मण:' जो ब्रह्म जानता है वह ब्राह्मण है। ब्रह्म सृष्टि कर्ता हैं। कण-कण में उसका वास है। इस नाते जो कण-कण में ब्रह्म की प्रतीति कर सकता हो वह ब्राह्मण है। स्पष्ट है कि ब्राह्मण होना कर्म और योग्यता पर निर्भर है, जन्म पर नहीं। 'जन्मना जायते शूद्र:' के अनुसार जन्म से सभी शूद्र हैं। सकल सृष्टि ब्रह्ममय है, इस नाते सबको सहोदर माने, कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान को देखे, सबसे समानता का व्यवहार करे, वह ब्राह्मण है। जो इन मूल्यों की रक्षा करे, वह क्षत्रिय है, जो सृष्टि-रक्षार्थ आदान-प्रदान करे, वह वैश्य है और जो इस हेतु अपनी सेवा समर्पित कर उसका मोल ले-ले वह शूद्र है। जो प्राणी या जीव ब्रह्मा की सृष्टि निजी स्वार्थ / संचय के लिए नष्ट करे, औरों को अकारण कष्ट दे वह असुर या राक्षस है।
व्यावहारिक अर्थ में बुद्धिजीवी वैज्ञानिक, शिक्षक, अभियंता, चिकित्सक आदि ब्राह्मण, प्रशासक, सैन्य, अर्ध सैन्य बल आदि क्षत्रिय, उद्योगपति, व्यापारी आदि वैश्य तथा इनकी सेवा व सफाई कर रहे जन शूद्र हैं। सृष्टि को मानव शरीर के रूपक समझाते हुए इन्हें क्रमशः सिर, भुजा, उदर व् पैर कहा गया है। इससे इतर भी कुछ कहा गया है। राजा इन चारों में सम्मिलित नहीं है, वह ईश्वरीय प्रतिनिधि या ब्रह्मा है। राज्य-प्रशासन में सहायक वर्ग कार्यस्थ (कायस्थ नहीं) है। कायस्थ वह है जिसकी काया में ब्रम्हांश जो निराकार है, जिसका चित्र गुप्त है, आत्मा रूप स्थित है।
'चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्व देहिनाम्।', 'कायस्थित: स: कायस्थ:' से यही अभिप्रेत है। पौरोहित्य कर्म एक व्यवसाय है, जिसका ब्राह्मण होने न होने से कोई संबंध नहीं है। ब्रह्म के लिए चारों वर्ण समान हैं, कोई ऊँचा या नीचा नहीं है। जन्मना ब्राह्मण सर्वोच्च या श्रेष्ठ नहीं है। वह अत्याचारी हो तो असुर, राक्षस, दैत्य, दानव कहा गया है और उसका वध खुद विष्णु जी ने किया है। गीता रहस्य में लोकमान्य टिळक जो खुद ब्राह्मण थे, ने लिखा है -
गुरुं वा बाल वृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतं
आततायी नमायान्तं हन्या देवाविचारयं
ब्राह्मण द्वारा खुद को श्रेष्ठ बताना, अन्य वर्णों की कन्या हेतु खुद पात्र बताना और अन्य वर्गों को ब्राह्मण कन्या हेतु अपात्र मानना, हर पाप (अपराध) का दंड ब्राह्मण को दान बताने दुष्परिणाम सामाजिक कटुता और द्वेष के रूप में हुआ।
***
लघुकथा:
समझदार
*
हमने बच्चे को पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बिहार के छोटे से कसबे से बेंगलोर जैसे शहर में आया। इतने साल पढ़ाई की। इतनी अच्छी कंपनी में इतने अच्छे वेतन पर है, देश-विदेश घूमता है। गाँव में खेती भी हैं और यहाँ भी पिलोट ले लिया है। कितनी ज्यादा मँहगाई है, १ करोड़ से कम में क्या बनेगा मकान? बेटी भी है ब्याहने के लिये, बाकी आप खुद समझदार हैं।
आपकी बेटी पढ़ी-लिखी है,सुन्दर है, काम करती है सो तो ठीक है, माँ-बाप पैदा करते हैं तो पढ़ाते-लिखाते भी हैं। इसमें खास क्या है? रूप-रंग तो भगवान का दिया है, इसमें आपने क्या किया? ईनाम - फीनाम का क्या? इनसे ज़िंदगी थोड़े तेर लगती है। इसलिए हमने बबुआ को कुछ नई करने दिया। आप तो समझदार हैं, समझ जायेंगे।
हम तो बाप-दादों का सम्मान करते हैं, जो उन्होंने किया वह सब हम भी करेंगे ही। हमें दहेज़-वहेज नहीं चाहिए पर अपनी बेटी को आप दो कपड़ों में तो नहीं भेज सकते? आप दोनों कमाते हैं, कोई कमी नहीं है आपको, माँ-बाप जो कुछ जोड़ते हैं बच्चियों के ही तो काम आता है। इसका चचेरा भाई बाबू है ब्याह में बहुरिया कर और मकान लाई है। बाकी तो आप समझदार हैं।
जी, लड़का क्या बोलेगा? उसका क्या ये लड़की दिखाई तो इसे पसंद कर लिया, कल दूसरी दिखाएंगे तो उसे पसंद कर लेगा। आई. आई. टी. से एम. टेक. किया है,इंटर्नेशनल कंपनी में टॉप पोस्ट पे है तो क्या हुआ? बाप तो हमई हैं न। ये क्या कहते हैं दहेज़ के तो हम सख्त खिलाफ हैं। आप जो हबी करेंगे बेटी के लिए ही तो करेंगे अब बेटी नन्द की शादी में मिला सामान देगई तो हम कैसे रोकेंगे? नन्द तो उसकी बहिन जैसी ही होगी न? घर में एक का सामान दूसरे के काम आ ही जाता है। बाकि तो आप खुद समझदार हैं।
मैं तो बहुत कोशिश करने पर भी नहीं समझ सका, आप समझें हों तो बताइये समझदार होने का अर्थ।
***
दोहा
*
अमित ऊर्जा-पूर्ण जो, होता वही अशोक
दस दिश पाता प्रीति-यश, कोई न सकता रोक
*
कतरा-कतरा दर्द की, करे अर्चना कौन?
बात राज की जानकर, समय हुआ क्यों मौन?
*
अमित ऊर्जा-पूर्ण जो, होता वही अशोक
दस दिश पाता प्रीति-यश, सका न कोई रोक
*
कतरा-कतरा दर्द की, करे अर्चना कौन?
बात राज की जानकर, समय हुआ क्यों मौन?
*
एक नयन में अश्रु बिंदु है, दूजा जलता दीप
इस कोरोना काल में, मुक्ता दुःख दिल सीप
*
गर्व पर्व पर हम करें, सबका हो उत्कर्ष
पर्व गर्व हम पर करे, दें औरों को हर्ष
*
श्रमजीवी के अधर पर, जब छाए मुस्कान
तभी समझना पर्व को, सके तनिक पहचान
*
झोपड़-झुग्गी भी सके, जब लछमी को पूज
तभी भवन में निरापद, होगी भाई दूज
***
मुक्तक
*
गुजारी उम्र सोकर ही, न अब तक जाग पाए हैं।
नहीं पग लक्ष्य को पहचान या अनुराग पाए हैं।।
बने अपने; न वो अपने रहे, पर याद आते हैं-
नहीं सुख को सुहाए हैं, न दुख-गम त्याग पाए हैं।।
*
अर्णव अरुण न रोके रुकता
कौन गह सके थाह।
तमहर अरुणचूर सह कहता
कर सच की परवाह।।
निज पथ चुन, चलता रह अनथक-
चुप रहकर दुख-दाह।।
*
स्वर्ण-रजत माटी मलय, पर्वत कब दें साथ?
'सलिल' मोह तज बुझाता, प्यास गहें जब हाथ।।
नहीं गर्व को सुहाता, बने नम्र या दीन-
तृप्ति तभी मिलती सखे!, जब होता नत माथ।
*
गाओ कोई राग, दुखी मन जो बहलाए।
लगे हृदय पर घाव, स्नेह से हँस सहलाए।।
शब्द-ब्रह्म आराध, कह रही है हर दिशा।
सलिल संग अखिलेश, पूर्णिमा है हर निशा।।
*
पुष्पाया है जीवन जिसका, उसका वंदन आज।
रहे पटल पर अग्र सुशोभित, शत अभिनंदन आज।।
स्वाति संग पा हों सब मोती,
मम नंदन हो आज-
सलिल-वृष्टि हो, पुष्प-वृष्टि हो,
मस्तक चंदन राज।।
*
जो कड़वी मीठी वही, जो लेता सच जान
श्वास-श्वास रस-खान सम, होता वही सुजान
मंजिल पाए बिन नहीं, रुकना यदि लें ठान
बनें सहायक विहँसकर, नटखट हो भगवान
*
नेह नर्मदा सलिल से, सिंचित हृदय प्रदेश
विंध्य-सतपुड़ा मेखला, प्रमुदित रहे हमेश
वाल्मीकि ग्वालिप तपी, सांदीपन जाबालि
बाण कालि की यह धरा,
शिव-हरि दें संदेश
*
कान्ह-हृदय ने मौन पुकारा श्री राधे।
कालिंदी जल ने उच्चारा श्री राधे।।
कुंज करील, कदंब बजाते कर-पल्लव-
गोवर्धन गिरि का जयकारा श्री राधे।।
*
शिखर न पहुँचे शून्य तक, यही समय का सत्य।
अकड़ गिरे हो शून्य ही, मात्र यही भवितव्य।।
अहंकार को भूलकर, रहो मिलाए हाथ
दिल तब ही मिल सकेंगे, याद रखो गंतव्य
*
गुरु गोविंद सिंह को नमन, सबको माना एक।
चुनकर प्यारे पाँच जो, थे बलिदानी नेक।।
थे बलिदानी नेक, न जिनको तनिक मोह था।
धर्म साध्य आतंक-राज्य प्रति अडिग द्रोह था।।
दिए अगिन बलिदान, हरा-भरा हो तब चमन।
सबको माना एक, गुरु गोविंद सिंह को नमन।।
*
मुक्तिका
४ (१२२२)
*
चले आओ; चले आओ; जहाँ भी हो; चले आओ
नहीं है गैर कोई भी; खुला है द्वार आ जाओ
सगा कोई नहीं है खास; कोई भी न बेगाना
रुचे जो गीत वो गाओ, उठो! जी जान से गाओ
करेंगी मंज़िलें सज्दा, न नाउम्मीद हो जाना
बढ़ो आगे; न पीछे देखना; रुस्वा न हो जाओ
जिएँ पुष्पा हजारों साल; बागों में बहारों सी
रहे संतोष साँसों को, हमेशा मौन-मुस्काओ
नहीं तन्हा कभी कोई; रहेंगी साथ यादें तो
दवा संजीवनी हैं ये, इन्हीं में हो फना जाओ।।
***
नवगीत:
राष्ट्रलक्ष्मी!
श्रम सीकर है
तुम्हें समर्पित
खेत, फसल, खलिहान
प्रणत है
अभियन्ता, तकनीक
विनत है
बाँध-कारखाने
नव तीरथ
हुए समर्पित
कण-कण, तृण-तृण
बिंदु-सिंधु भी
भू नभ सलिला
दिशा, इंदु भी
सुख-समृद्धि हित
कर-पग, मन-तन
समय समर्पित
पंछी कलरव
सुबह दुपहरी
संध्या रजनी
कोशिश ठहरी
आसें-श्वासें
झूमें-खांसें
अभय समर्पित
शैशव-बचपन
यौवन सपने
महल-झोपड़ी
मानक नापने
सूरज-चंदा
पटका-बेंदा
मिलन समर्पित
१-११-२०१९
***
एक रचना
हस्ती
*
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी
*
थर्मोडायनामिक्स बताता
ऊर्जा बना न सकता कोई
बनी हुई जो ऊर्जा उसको
कभी सकेगा मिटा न कोई
ऊर्जा है चैतन्य, बदलती
रूप निरंतर पराप्रकृति में
ऊर्जा को कैदी कर जड़ता
भर सकता है कभी न कोई
शब्द मनुज गढ़ता अपने हित
ऊर्जा करे न जल्दी-देरी
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी
*
तू-मैं, यह-वह, हम सब आये
ऊर्जा लेकर परमशक्ति से
निभा भूमिका रंगमंच पर
वरते करतल-ध्वनि विभक्ति से
जा नैपथ्य बदलते भूषा
दर्शक तब भी करें स्मरण
या सराहते अन्य पात्र को
अनुभव करते हम विरक्ति से
श्वास गली में आस लगाती
रोज सवेरे आकर फेरी
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी
*
साँझ अस्त होता जो सूरज
भोर उषा-संग फिर उगता है
रख अनुराग-विराग पूर्ण हो
बुझता नहीं सतत जलता है
पूर्ण अंश हम, मिलें पूर्ण में
किंचित कहीं न कुछ बढ़ता है
अलग पूर्ण से हुए अगर तो
नहीं पूर्ण से कुछ घटता है
आना-जाना महज बहाना
नियति हुई कब किसकी चेरी
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी
***
दोहा
*
अमित ऊर्जा-पूर्ण जो, होता वही अशोक
दस दिश पाता प्रीति-यश, कोई न सकता रोक
*
कतरा-कतरा दर्द की, करे अर्चना कौन?
बात राज की जानकर, समय हुआ क्यों मौन?
***
पुस्तक सलिला –
‘मैं सागर में एक बूँद सही’ प्रकृति से जुड़ी कविताएँ
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – मैं सागर में एक बूँद सही, बीनू भटनागर, काव्य संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-७४०८-९२५-०, आकार २२ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द, पृष्ठ २१५, मूल्य ४५०/-, अयन प्रकाशन १/२० महरौली नई दिल्ली , दूरभाष २६६४५८१२, ९८१८९८८६१३, कवयित्री सम्पर्क binubhatnagar@gmail.com ]
*
कविता की जाती है या हो जाती है? यह प्रश्न मुर्गी पहले हुई या अंडा की तरह सनातन है. मनुष्य का वैशिष्ट्य अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक संवेदनशील तथा अधिक अभिव्यक्तिक्षम होना है. ‘स्व’ के साथ-साथ ‘सर्व’ को अनुभूत करने की कामना वश मनुष्य अज्ञात को ज्ञात करता है तथा ‘स्व’ को ‘पर’ के स्थान पर कल्पित कर तदनुकूल अनुभूतियों की अभिव्यक्ति कर उसे ‘साहित्य’ अर्थात सबके हित हेतु किया कर्म मानता है. प्रश्न हो सकता है कि किसी एक की अनुभूति वह भी कल्पित सबके लिए हितकारी कैसे हो सकती है? उत्तर यह कि रचनाकार अपनी रचना का ब्रम्हा होता है. वह विषय के स्थान पर ‘स्व’ को रखकर ‘आत्म’ का परकाया प्रवेश कर ‘पर’ हो जाता है. इस स्थिति में की गयी अनुभूति ‘पर’ की होती है किन्तु तटस्थ विवेक-बुद्धि ‘पर’ के अर्थ/हित’ की दृष्टि से चिंतन न कर ‘सर्व-हित’ की दृष्टि से चिंतन करता है. ‘स्व’ और ‘पर’ का दृष्टिकोण मिलकर ‘सर्वानुकूल’ सत्य की प्रतीति कर पाता है. ‘सर्व’ का ‘सनातन’ अथवा सामयिक होना रचनाकार की सामर्थ्य पर निर्भर होता है.
इस पृष्ठभूमि में बीनू भटनागर की काव्यकृति ‘मैं सागर में एक बूँद सही’ की रचनाओं से गुजरना प्रकृति से दूर हो चुकी महानगरीय चेतना को पृकृति का सानिंध्य पाने का एक अवसर उपलब्ध कराती है. प्रस्तावना में श्री गिरीश पंकज इन कविताओं में ‘परंपरा से लगाव, प्रकृति के प्रति झुकाव और जीवन के प्रति गहरा चाव’ देखते हैं. ‘अवर स्वीटेस्ट सोंग्स आर दोज विच टेल ऑफ़ सैडेस्ट थौट’ कहें या ‘हैं सबसे मधुर वे गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’ यह निर्विवाद है कि कविता का जन्म ‘पीड़ा’से होता है. मिथुनरत क्रौन्च युग्म को देख, व्याध द्वारा नर का वध किये जाने पर क्रौंची के विलाप से द्रवित महर्षि वाल्मीकि द्वारा प्रथम काव्य रचना हो, या हिरनी के शावक का वध होने पर मातृ-ह्रदय के चीत्कार से निसृत प्रथम गजल दोनों दृष्टांत पीड़ा और कविता का साथ चोली दामन का सा बताती हैं. बीनू जी की कवितओं में यही ‘पीड़ा’ पिंजरे के रूप में है.
कोई रचनाकार अपने समय को जीता हुआ अतीत की थाती ग्रहण कर भविष्य के लिए रचना करता है. बीनू जी की रचनाएँ समय के द्वन्द को शब्द देते हुए पाठक के साथ संवाद कर लेती हैं. सामयिक विसंगतियों का इंगित करते समय सकारात्मक सोच रख पाना इन कविताओं की उपादेयता बढ़ाता है. सामान्य मनुष्य के व्यक्तित्व के अंग चिंतन, स्व, पर, सर्व, अनुराग, विराग, द्वेष, उल्लास, रुदन, हास्य आदि उपादानों के साथ गूँथी हुई अभिव्यक्तियों की सहज ग्राह्य प्रस्तुति पाठक को जोड़ने में सक्षम है. तर्क –सम्मतता संपन्न कवितायेँ ‘लय’ को गौड़ मानती है किन्तु रस की शून्यता न होने से रचनाएँ सरस रह सकी हैं. दर्शन और अध्यात्म, पीड़ा, प्रकृति और प्रदूषण, पर्यटन, ऋतु-चक्र, हास्य और व्यंग्य, समाचारों की प्रतिक्रिया में, प्रेम, त्यौहार, हौसला, राजनीति, विविधा १-२ तथा हाइकु शीर्षक चौदह अध्यायों में विभक्त रचनाएँ जीवन से जुड़े प्रश्नों पर चिंतन करने के साथ-साथ बहिर्जगत से तादात्म्य स्थापित कर पाती हैं.
संस्कृत काव्य परंपरा का अनुसरण करती बीनू जी देव-वन्दना सूर्यदेव के स्वागत से कर लेती हैं. ‘अहसास तुम्हारे आने का / पाने से ज्यादा सुंदर है’ से याद आती हैं पंक्तियाँ ‘जो मज़ा इन्तिज़ार में है वो विसाले-यार में नहीं’. एक ही अनुभूति को दो रचनाकारों की कहन कैसे व्यक्त करती है? ‘सारी नकारात्मकता को / कविता की नदी में बहाकर / शांत औत शीतल हो जाती हूँ’ कहती बीनू जी ‘छत की मुंडेर पर चहकती / गौरैया कहीं गुम हो गयी है’ की चिंता करती हैं. ‘धूप बेचारी / तरस रही है / हम तक आने को’, ‘धरती के इस स्वर्ग को बचायेंगे / ये पेड़ देवदार के’, ‘प्रथम आरुषि सूर्य की / कंचनजंघा पर नजर पड़ी तो / चाँदी के पर्वत को / सोने का कर गयी’ जैसी सहज अभिव्यक्ति कर पाठक मन को बाँध लेती हैं.
छंद मुक्त कविता जैसी स्वतंत्रता छांदस कविता में नहीं होती. राजनैतिक दोहे शीर्षकांतर्गत पंक्तियों में दोहे के रचना विधान का पालन नहीं किया गया है. दोहा १३-११ मात्राओं की दो पंक्तियों से बनता है जिनमें पदांत गुरु-लघु होना अनिवार्य है. दी गयी पंक्तियों के सम चरणों में अंत में दो गुरु का पदांत साम्य है. दोहा शीर्षक देना पूरी तरह गलत है.
चार राग के अंतर्गत भैरवी, रिषभ, मालकौंस और यमन का परिचय मुक्तक छंद में दिया गया है. अंतिम अध्याय में जापानी त्रिपदिक छंद (५-७-५ ध्वनि) का समावेश कृति में एक और आयाम जोड़ता है. भीगी चुनरी / घनी रे बदरिया / ओ संवरिया!, सावन आये / रिमझिम फुहार / मेघ गरजे, तपती धरा / जेठ का है महीना / जलते पाँव, पूस की सर्दी / ठंडी बहे बयार / कंपकंपाये, मन-मयूर / मतवाला नाचता / सांझ-सकारे, कडवे बोल / करेला नीम चढ़ा / आदत छोड़ आदि में प्रकृति चित्रण बढ़िया है. तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ अंग्रेजी-उर्दू शब्दों का बेहिचक प्रयोग भाषा को रवानगी देता है.
बीनू जी की यह प्रथम काव्य कृति है. पाठ्य अशुद्धि से मुक्त न होने पर भी रचनाओं का कथ्य आम पाठक को रुचेगा. शिल्प पर कथ्य को वरीयता देती रचनाएँ बिम्ब, प्रतीक, रूपक और अलंकार अदि का यथास्थान प्रयोग किये जाने से सरस बन सकी हैं. आगामी संकलनों में बीनू जी का कवि मन अधिक ऊँची उड़ान भरेगा.
***
१-११-२०१६
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कोकिलकंठी गायिका श्रीमती तापसी नागराज के
जन्मोत्सव पर अनंत मंगल कामनाएँ
नर्मदा के तीर पर वाक् गयी व्याप सी
मुरली के सुर सजे संगिनी पा आप सी
वीणापाणी की कृपा सदा रहे आप पर
कीर्ति नील गगन छुए विनय यही तापसी
बेसुरों की बर्फ पर गिरें वज्र ताप सी
आपसे से ही गायन की करे समय माप सी
पश्चिम की धूम-बूम मिटा राग गुँजा दें
श्रोता-मन पर अमिट छोड़ती हैं छाप सी
स्वर को नमन कलम-शब्दों का अभिनन्दन लें
भावनाओं के अक्षत हल्दी जल चन्दन लें
रहें शारदा मातु विराजी सदा कंठ में
संजीवित हों श्याम शिलाएं, शत वंदन लें
१-११-२०१४
***
दोहा सलिला:
विवाह- एक दृष्टि
द्वैत मिटा अद्वैत वर...
*
रक्त-शुद्धि सिद्धांत है, त्याज्य- कहे विज्ञान।
रोग आनुवंशिक बढ़ें, जिनका नहीं निदान।।
पितृ-वंश में पीढ़ियाँ, सात मानिये त्याज्य।
मातृ-वंश में पीढ़ियाँ, पाँच नहीं अनुराग्य।।
नीति:पिताक्षर-मिताक्षर, वैज्ञानिक सिद्धांत।
नहीं मानकर मिट रहे, असमय ही दिग्भ्रांत।।
सहपाठी गुरु-बहिन या, गुरु-भाई भी वर्ज्य।
समस्थान संबंध से, कम होता सुख-सर्ज्य।।
अल्ल गोत्र कुल आँकना, सुविचारित मर्याद।
तोड़ें पायें पीर हों, त्रस्त करें फ़रियाद।।
क्रॉस-ब्रीड सिद्धांत है, वैज्ञानिक चिर सत्य।
वर्ण-संकरी भ्रांत मत, तजिए- समझ असत्य।।
किसी वृक्ष पर उसी की, कलम लगाये कौन?
नहीं सामने आ रहा, कोई सब हैं मौन।।
आपद्स्थिति में तजे, तोड़े नियम अनेक।
समझें फिर पालन करें, आगे बढ़ सविवेक।।
भिन्न विधाएँ, वंश, कुल, भाषा, भूषा, जात।
मिल- संतति देते सबल, जैसे नवल प्रभात।।
एक्य समझदारी बढ़े, बने सहिष्णु समाज।
विश्व-नीड़ परिकल्पना, हो साकारित आज।।
'सलिल' ब्याह की रीति से, दो अपूर्ण हों पूर्ण।
द्वैत मिटा अद्वैत वर, रचें पूर्ण से पूर्ण।।
१-११-२०१२

*
देव उठनी एकादशी (गन्ना ग्यारस) पर

नवगीत: १

देव सोये तो

सोये रहें

हम मानव जागेंगे

राक्षस

अति संचय करते हैं

दानव

अमन-शांति हरते हैं

असुर

क्रूर कोलाहल करते

दनुज

निबल की जां हरते हैं

अनाचार का

शीश पकड़

हम मानव काटेंगे


भोग-विलास

देवता करते

बिन श्रम सुर

हर सुविधा वरते

ईश्वर पाप

गैर सर धरते

प्रभु अधिकार

और का हरते

हर अधिकार

विशेष चीन

हम मानव वारेंगे


मेहनत

अपना दीन-धर्म है

सच्चा साथी

सिर्फ कर्म है

धर्म-मर्म

संकोच-शर्म है

पीड़ित के

आँसू पोछेंगे

मिलकर तारेंगे

***

नवगीत २

सोये बहुत देव अब जागो

*

सोये बहुत

देव! अब जागो...


तम ने

निगला है उजास को।

गम ने मारा

है हुलास को।

बाधाएँ छलती

प्रयास को।

कोशिश को

जी भर अनुरागो...


रवि-शशि को

छलती है संध्या।

अधरा धरा

न हो हरि! वन्ध्या।

बहुत झुका

अब झुके न विन्ध्या।

ऋषि अगस्त

दक्षिण मत भागो...


पलता दीपक

तले अँधेरा ।

हो निशांत

फ़िर नया सवेरा।

टूटे स्वप्न

न मिटे बसेरा।

कथनी-करनी

संग-संग पागो...

**************




शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

अक्टूबर ३१, दोहा सॉनेट, सूर्यमंडलाष्टकं, सवैया, दंडक छंद, नर्मदा नामावली, स्मरण अलंकार, लघुकथा

सलिल सृजन अक्टूबर ३१
*
गीत
० 
देव जागे हैं 
अजागा भाग्य सोया
बरसता पानी 
कहीं कम है, कहीं ज्यादा
वजीरों का है 
खिलौना आदमी प्यादा 
धसकता पर्वत 
नदी में डूबती बस्ती 
ज़िंदगी मँहगी 
बहुत है, मौत है सस्ती 
रूप चौदस ने  
अजाने नूर निज खोया   
दिवाली आई 
दिवाला भेंट में लाई 
पूज गोवर्धन 
बचा पाई नहीं भाई
सिसकती बहिना 
न छठ पर सूर्य क्यों निकला
पुँछ गया सिंदूर 
जागा देश अरि दहला 
ले लिया बदला   
नवाशा बीज भी बोया 
क्वांर के सपने 
कुआँरे रह गए अपने 
कार्तिक की बाढ़ 
सुख-दुख सब लगे बहने  
योग निद्रा तजो  
अब जागो विधाता हे!
हो नहीं नरमेध 
रोको समर त्राता रे!    
आ रहा अगहन 
न हो जन-मन असूया   
सजग मतदाता 
परखकर नीतियाँ सब की 
चुने जन प्रतिनिधि  
न देखे जातियाँ अब की 
लोक मंगल पर्व 
हम हर दिन मनाएँगे  
देव जागें खुद 
नहीं तो हम जगाएँगे
समय साक्षी है  
न धीरज-धर्म खोया 
३१-१०-२०२५ 
००० 
गीत
कातिक बिलख-बिसूरे 
जनगण हुआ 
आँख का अंधा  
कातिक बिलख-बिसूरे
.
तेवर नया कहन का लेकिन 
जुमले ठेठ पुराने 
काँव-काँव करते कागा जू 
कहकर गीत सुहाने 
खोटे सिक्के चलें ठाठ से
खरे पड़े हैं घूरे 
कातिक बिलख-बिसूरे
नाकाफ़ी है कोशिश श्रम की  
पूँजी की जैकार 
नेता-अफसर-सेठ पूत क्यों  
यश के दावेदार 
श्रमिक-कृषक सुत ठोकर खाएँ    
सपने हुए न पूरे
कातिक बिलख-बिसूरे
रूस-चीन-अमरीका मारें 
और न रोने देंय
कोयल के अंडे कागा जू  
अनजाने में सेंय 
हैं गरीब की जोरू जैसे 
छोटे देश मजूरे  
कातिक बिलख-बिसूरे
आसमान छूती मँहगाई
तनखा कटी पतंग 
तन खा जाती आवश्यकताएँ 
सूखी मन की गंग 
रहा दिये में तेल न बाती 
मन के ख्वाब अधूरे 
कातिक बिलख-बिसूरे
लच्छो पर एसिड अटैक 
लिव-इन पीड़ित सुरसतिया
लाजो ने आशिक सँग कर दी 
खड़ी सनम की खटिया 
सात जनम के नाते टूटे 
ढहे प्रेम-कंगूरे 
कातिक बिलख-बिसूरे
३१.१० २०२५ 
००० 
अभिनव प्रयोग
इतालवी दोहा सॉनेट
सुमनांजलि
*
सुमनांजलि ले सुमन ने, करी सुमन के नाम।
सुरभि सुवासित सुमन की, करे प्राण संप्राण।
ऊँची नाक सुवास को कभी न पाई घ्राण।।
नहीं तौल सकते इसे, चुका न सकते दाम।।
सुमन वाटिका में मिलें सीता से श्री राम।
जनक राज तब पा सके धनु-संकट से त्राण।
हिम्मत हारा दशानन, जैसे हो निष्प्राण।।
जयी काम पर हो गया, वह जो था निष्काम।।
मृदा-बीज से स्वेद मिल, उग अंकुर बन झूम।
नव कोंपल-पत्ता बना, नव आशा की डाल।
तने तने से जुड़ बढ़े, मानो नभ ले चूम।।
कली खिले खिलखिलाकर, भंँवरे करते धूम।
संयम रख प्रभु पर चढ़े, रखें झुकाकर भाल।
प्रेमी से पा प्रेयसी, ले सुमनों को चूम।।
१-११-२०२३
•••
मुक्तिका
मापनी - २१२ २२१ २ २२१ २ १२
*
अंत की चिंता न कर; शुरुआत तो करें
मंज़िलों की चाहतें, फौलाद तो करें
है सियासत को न गम, जनता मरे- मरे
चाह सत्ता की न हो, हालात तो करें
रूठना भी, मानना भी, आपकी अदा
दूरियाँ नजदीकियाँ हों, बात तो करें
वायदों का क्या?, कहा क्या-क्या न याद है
कायदों को तोड़ने, फरियाद तो करें
कौन क्या लाया यहाँ?, क्या ले गया कहो?
कैद में है हर बशर, आज़ाद तो करें
३१-१०-२०२२
***
एक सवैया छंद
*
विदा दें, बाद में बात करेंगे, नेता सा वादा किया, आज जिसने
जुमला न हो यह, सोचूँ हो हैरां, ठेंगा दिखा ही दिया आज उसने
गोदी में खेला जो, बोले दलाल वो, चाचा-भतीजा निभाएँ न कसमें
छाती कठोर है नाम मुलायम, लगें विरोधाभास ये रसमें
***
मुक्तक
*
वामन दर पर आ विराट खुशियाँ दे जाए
बलि के लुटने से पहले युग जय गुंजाए
रूप चतुर्दशी तन-मन निर्मल कर नव यश दे
पंच पर्व पर प्राण-वर्तिका तम पी पाए
*
स्नेह का उपहार तो अनमोल है
कौन श्रद्धा-मान सकता तौल है?
भोग प्रभु भी आपसे ही पा रहे
रूप चौदस भावना का घोल है
*
स्नेह पल-पल है लुटाया आपने।
स्नेह को जाएँ कभी मत मापने
सही है मन समंदर है भाव का
इष्ट को भी है झुकाया भाव ने
*
फूल अंग्रेजी का मैं,यह जानता
फूल हिंदी की कदर पहचानता
इसलिए कलियाँ खिलता बाग़ में
सुरभि दस दिश हो यही हठ ठानता
*
उसी का आभार जो लिखवा रही
बिना फुरसत प्रेरणा पठवा रही
पढ़ाकर कहती, लिखूँगी आज पढ़
सांस ही मानो गले अटका रही
३१.१०.२०२०
***
एक रचना
*
श्वास श्वास समिधा है
आस-आस वेदिका
*
अधरों की स्मित के
पीछे है दर्द भी
नयनों में शोले हैं
गरम-तप्त, सर्द भी
रौनकमय चेहरे से
पोंछी है गर्द भी
त्रास-त्रास कोशिश है
हास-हास साधिका
*
नवगीती बन्नक है
जनगीति मन्नत
मेहनत की माटी में
सीकर मिल जन्नत
करना है मंज़िल को
धक्का दे उन्नत
अभिनय के छंद रचे
नए नाम गीतिका
*
सपनों से यारी है
गर्दिश भी प्यारी है
बाधाओं को टक्कर
देने की बारी है
रोप नित्य हौसले
महकाई क्यारी है
स्वाति बूँद पा मुक्ता
रच देती सीपिका
***
***
छंद कार्यशाला -
२८ वर्णिक दण्डक छंद
विधान - २८ वर्णिक, ६-१४-१८-२३-२८ पर यति।
४३ मात्रिक, १०-११--७-६-९ पर यति।
गणसूत्र - र त न ज म य न स ज ग।
*
नाद से आल्हाद, झर कर ही रहेगा, देख लेना, समय खुद, देगा गवाही
अक्षरों में भाव, हर भर जी सकेगा, लेख लेना, सृजन खुद, देगा सुनाई
शब्द हो नि:शब्द, अनुभव ले सकेगा, सीख देगा, घुटन झट होगी पराई
भाव में संचार, रस भर पी सकेगा, लीक होगी, नवल फिर हो वाह वाही
३१.१०.२०१९
***
दोहा की दीपावली
*
दोहा की दीपावली, तेरह-ग्यारह दीप
बाल 'सलिल' के साथ मिल, मन हो तभी समीप
*
गो-वर्धन गोपाल बन, करें शुद्ध पय-पान
अन्न-कूट कर पकाकर, खाएँ हो श्री-वान
*
श्री वास्तव में पा सकें, तब जब बाँटें प्रीत
गुण पूजन की बढ़ सके, 'सलिल' जगत में रीत
*
बहिना का आशीष ही, भाई की तकदीर
शुभाशीष पा बहिन का, भाई होता वीर
*
मंजु मूर्ति श्री लक्ष्मी, महिमावान गणेश
सदा सदय हों नित मिले, कीर्ति -समृद्धि अशेष
*
दीप-कांति उजियार दे, जीवन भरे प्रकाश
वामन-पग भी छू सकें, हाथ उठा आकाश
*
दूरभाष चलभाष हो, या सम्मुख संवाद
भाष सुभाष सदा करे, स्नेह-जगत आबाद
*
अमन-चैन रख सलामत, निभा रहे कुछ फर्ज़
शेष तोड़ते हैं नियम, लाइलाज यह मर्ज़
*
लागू कर पायें नियम, भेदभाव बिन मित्र!
तब यह निश्चय मानिए, बदल सकेगा चित्र
*
शशि तम हर उजियार दे, भू को रहकर मौन
कर्मव्रती ऐसा कहाँ, अन्य बताये कौन?
*
यथातथ्य बतला सके, संजय जैसी दृष्टि
कर सच को स्वीकार-बढ़, करे सुखों की वृष्टि
*
खुद से आँख मिला सके, जो वह है रणवीर
तम को आँख दिखा सके, रख दीपक सम धीर
*
शक-सेना को जीत ले, जिसका दृढ़ विश्वास
उसकी आभा अपरिमित, जग में भरे उजास
*
वर्मा वह जो सच बचा लें, करे असत का नाश
तभी असत के तिमिर का, होगा 'सलिल' विनाश
*
हर रजनी दीपावली, अगर कृपालु महेश
हर दिन को होली करें, प्रमुदित उमा-उमेश
*
आशा जिसके साथ हो, होता वही अशोक
स्वर्ग-सदृश सुख भोगता, स्वर्ग बने भू लोक
*
श्याम अमावस शुक्ल हो, थाम कांति का हाथ
नत मस्तक करता 'सलिल', नमन जोड़कर हाथ
*
तिमिर अमावस का हरे, शुक्ल करे रह मौन
दींप वंद्य है जगत में, कहें दूसरा कौन?
३१.१०.२०१६
***
नर्मदा नामावली :
*
सनातन सलिला नर्मदा की नामावली का नित्य स्नानोपरांत जाप करने से भव-बाधा दूर होकर पाप-ताप शांत होते हैं। मैया अपनी संतानों के मनोकामना पूर्ण करती हैं।
पुण्यतोया सदानीरा नर्मदा, शैलजा गिरिजा अनिंद्या वर्मदा।
शैलपुत्री सोमतनया निर्मला, अमरकंटी शाम्भवी शुभ शर्मदा।।
आदिकन्या चिरकुमारी पावनी, जलधिगामिनी चित्रकूटा पद्मजा।
विमलहृदया क्षमादात्री कौतुकी, कमलनयना जगज्जननी हर्म्यदा।।
शशिसुता रुद्रा विनोदिनी नीरजा, मक्रवाहिनी ह्लादिनी सौन्दर्यदा।
शारदा वरदा सुफलदा अन्नदा, नेत्रवर्धिनी पापहारिणी धर्मदा।।
सिन्धु सीता गौतमी सोमात्मजा, रूपदा सौदामिनी सुख सौख्यदा।
शिखरिणी नेत्रा तरंगिणी मेखला, नीलवासिनी दिव्यरूपा कर्मदा।।
बालुकावाहिनी दशार्णा रंजना, विपाशा मन्दाकिनी चित्रोत्पला।
रूद्रदेहा अनुसुया पय-अम्बुजा, सप्तगंगा समीरा जय-विजयदा।।
अमृता कलकल निनादिनी निर्भरा, शाम्भवी सोमोद्भवा स्वेदोद्भवा।
चन्दना शिव-आत्मजा सागर-प्रिया, वायुवाहिनी ह्लादिनी आनंददा।।
मुरदला मुरला त्रिकूटा अंजना, नंदना नम्माडियस भाव-मुक्तिदा।
शैलकन्या शैलजायी सुरूपा, विराटा विदशा सुकन्या भूषिता।।
गतिमयी क्षिप्रा शिवा मेकलसुता, मतिमयी मन्मथजयी लावण्यदा।
रतिमयी उन्मादिनी उर्वर शुभा, यतिमयी भवत्यागिनी वैराग्यदा।।
दिव्यरूपा त्यागिनी भयहारिणी, महार्णवा कमला निशंका मोक्षदा।
अम्ब रेवा करभ कालिंदी शुभा, कृपा तमसा शिवज सुरसा मर्मदा।।
तारिणी मनहारिणी नीलोत्पला, क्षमा यमुना मेकला यश-कीर्तिदा।
साधना-संजीवनी सुख-शांतिदा, सलिल-इष्टा माँ भवानी नरमदा।।
***
***
अलंकार सलिला: २७
स्मरण अलंकार
*
बीती बातों को करें, देख आज जब याद।
गूंगे के गुण सा 'सलिल', स्मृति का हो स्वाद।।
स्मरण करें जब किसी का, किसी और को देख।
स्मित अधरों पर सजे, नयन अश्रु की रेख।।
करें किसी की याद जब, देख किसी को आप।
अलंकार स्मरण 'सलिल', रहे काव्य में व्याप।।
जब काव्य पंक्तियों को पढ़ने या सुनने पहले देखी-सुनी वस्तु, घटना अथवा व्यक्ति की, उसके समान वस्तु, घटना अथवा व्यक्ति को देखकर याद ताजा हो तो स्मरण अलंकार होता है।
जब किसी सदृश वस्तु / व्यक्ति को देखकर किसी पूर्व परिचित वस्तु / व्यक्ति की याद आती है तो वहाँ स्मरण अलंकार होता है। स्मरण स्वत: प्रयुक्त होने वाला अलंकार है कविता में जाने-अनजाने कवि इसका प्रयोग कर ही लेता है।
स्मरण अलंकार से कविता अपनत्व, मर्मस्पर्शिता तथा भावनात्मक संवगों से युक्त हो जाती है।
स्मरण अलंकार सादृश्य (समानता) से उत्पन्न स्मृति होने पर ही होता है। किसी से संबंध रखनेवाली वस्तु को देखने पर स्मृति होने पर स्मरण अलंकार नहीं होता।
स्मृति नामक संचारी भाव सादृश्यजनित स्मृति में भी होता है और संबद्ध वस्तुजनित स्मृति में भी। पहली स्थिति में स्मृति भाव और स्मरण अलंकार दोनों हो सकते हैं। देखें निम्न उदाहरण ६, ११, १२।
उदाहरण:
१. देख चन्द्रमा
चंद्रमुखी को याद
सजन आये। - हाइकु
२. श्याम घटायें
नील गगन पर
चाँद छिपायें।
घूँघट में प्रेमिका
जैसे आ ललचाये। -ताँका
३. सजी सबकी कलाई
पर मेरा ही हाथ सूना है।
बहिन तू दूर है मुझसे
हुआ यह दर्द दूना है।
४. धेनु वत्स को जब दुलारती
माँ! मम आँख तरल हो जाती।
जब-जब ठोकर लगती मग पर
तब-तब याद पिता की आती।।
५. प्राची दिसि ससि उगेउ सुहावा।
सिय-मुख सुरति देखि व्है आवा।।
६. बीच बास कर जमुनहिं आये।
निरखिनीर लोचन जल छाये।।
७. देखता हूँ जब पतला इन्द्र धनुषी हल्का,
रेशमी घूँघट बादल का खोलती है कुमुद कला।
तुम्हारे मुख का ही तो ध्यान
मुझे तब करता अंतर्ध्यान।
८. ज्यों-ज्यों इत देखियत मूरख विमुख लोग
त्यों-त्यों ब्रजवासी सुखरासी मन भावै है।
सारे जल छीलर दुखारे अंध कूप देखि,
कालिंदी के कूल काज मन ललचावै है।
जैसी अब बीतत सो कहतै ना बैन
नागर ना चैन परै प्राण अकुलावै है।
थूहर पलास देखि देखि कै बबूर बुरे,
हाय हरे हरे तमाल सुधि आवै है।
९. श्याम मेघ सँग पीत रश्मियाँ देख तुम्हारी
याद आ रही मुझको बरबस कृष्ण मुरारी।
पीताम्बर ओढे हो जैसे श्याम मनोहर.
दिव्य छटा अनुपम छवि बांकी प्यारी-प्यारी।
१०. सघन कुञ्ज छाया सुखद, सीतल मंद समीर।
मन व्है जात अजौं वहै, वा जमुना के तीर।।
११. जो होता है उदित नभ में कौमुदीनाथ आके।
प्यारा-प्यारा विकच मुखड़ा श्याम का याद आता।
१२. छू देती है मृदु पवन जो पास आ गाल मेरा।
तो हो आती परम सुधि है श्याम-प्यारे-करों की।
१३. जब जब बहार आयी और फूल मुस्कुराए
मुझे तुम याद आये।
जब-जब ये चाँद निकला और तारे जगमगाए
मुझे तुम याद आये।
***
व्यंग्य रचना:
दीवाली : कुछ शब्द चित्र:
*
माँ-बाप को
ठेंगा दिखायें.
सास-ससुर पर
बलि-बलि जायें.
अधिकारी को
तेल लगायें.
गृह-लक्ष्मी के
चरण दबायें.
दिवाली मनाएँ..
*
लक्ष्मी पूजन के
महापर्व को
सार्थक बनायें.
ससुरे से मांगें
नगद-नारायण.
न मिले लक्ष्मी
तो गृह-लक्ष्मी को
होलिका बनायें.
दूसरी को खोजकर,
दीवाली मनायें..
*
बहुमत न मिले
तो खरीदें.
नैतिकता को
लगायें पलीते.
कुर्सी पर
येन-केन-प्रकारेण
डट जाए.
झूम-झूमकर
दीवाली मनायें..
*
बोरी में भरकर
धन ले जाएँ.
मुट्ठी में समान
खरीदकर लायें.
मँहगाई मैया की
जट-जयकार गुंजायें
दीवाली मनायें..
*
बेरोजगारों के लिये
बिना पूंजी का धंधा,
न कोई उतार-चढ़ाव,
न कभी पड़ता मंदा.
समूह बनायें,
चंदा जुटायें,
बेईमानी का माल
ईमानदारी से पचायें.
दीवाली मनायें..
*
लक्ष्मीपतियों और
लक्ष्मीपुत्रों की
दासों उँगलियाँ घी में
और सिर कढ़ाई में.
शारदासुतों की बदहाली,
शब्दपुत्रों की फटेहाली,
निकल रहा है दीवाला,
मना रहे हैं दीवाली..
*
राजनीति और प्रशासन,
अनाचार और दुशासन.
साध रहे स्वार्थ,
तजकर परमार्थ.
सच के मुँह पर ताला.
बहुत मजबूत
अलीगढ़वाला.
माना रहे दीवाली,
देश का दीवाला..
*
ईमानदार की जेब
हमेशा खाली.
कैसे मनाये होली?
ख़ाक मनाये दीवाली..
*
अंतहीन शोषण,
स्वार्थों का पोषण,
पीर, व्यथा, दर्द दुःख,
कथ्य कहें या आमुख?
लालच की लंका में
कैद संयम की सीता.
दिशाहीन धोबी सा
जनमत हिरनी भीता.
अफसरों के करतब देख
बजा रहा है ताली.
हो रहे धमाके
तुम कहते हो दीवाली??
*
अरमानों की मिठाई,
सपनों के वस्त्र,
ख़्वाबों में खिलौने
आम लोग त्रस्त.
पाते ही चुक गई
तनखा हरजाई.
मुँह फाड़े मँहगाई
जैसे सुरसा आई.
फिर भी ना हारेंगे.
कोशिश से हौसलों की
आरती उतारेंगे.
दिया एक जलाएंगे
दिवाली मनाएंगे..
*
***
मुक्तक: चाँद
चाँद को केंद्र में रखकर रचिए मुक्तक और लगाइये टिप्पणी में-
*
राकेश खण्डेलवाल
*
प्रज्ज्वलित दीप की चमचमाती विभा, एक पल के लिये आज शरमा गई
हाथ के कंगनों में जड़ी आरसी, दूसरा चाँद लेकर निकट आ गई
व्योम का चाँद छत पर खड़े चाँद को देख कर अपना चेहरा छुपाने लगा
बिम्ब इक चाँद का दूसरे में मिला, ये घड़ी यों सुधा आज बरसा गई
*
संजीव
*
चाँद ने चाँद को देखकर यूँ कहा: 'दाग मुझमें मगर तुम बिना दाग हो.'
चाँद ने सुन कहा: 'आग मुझमें अमित, चाँद! हर ताप लेते, बिना आग हो.'
चाँदनी को दिखे चाँद कुछ झूमते, पूछ बैठी: ' न क्यों केश का लेश है?'
झेंप बोले: 'बना आइना चाँदनी ने सँवारे विहँस मेघ से केश हैं.'
३१-१०-२०१५
***
लघुकथा:
पटखनी
*
सियार के घर में उत्सव था। उसने अतिउत्साह में पड़ोस के नीले सियार को भी न्योता भेज दिया।
शेर को आश्चर्य हुआ कि उसके टुकड़ों पर पलनेवाला वफादार सियार उससे दगाबाजी करनेवाले नीले सियार को को आमंत्रित कर रहा है।
आमंत्रित नीले सियार को याद आया कि उसने विदेश में वक्तव्य दिया था: 'शेर को जंगल में अंतर्राष्ट्रीय देख-रेख में चुनाव कराने चाहिए'।
सियार लोक में आपके विरुद्ध आंदोलन, फैसले और दहशतगर्दी पर आपको क्या कहना है? किसी पत्रकार ने पूछा तो उसे दुम दबाकर भागना पड़ा था।
'शेर तो शेरों की जमात का नेता है, सियार उसे अपना नुमाइंदा नहीं मानते' नीले सियार ने आते ही वक्तव्य दिया तो केले खा रहे बंदरों ने तुरंत कुलाटियाँ खाते हुए उछल-कूदकर चैनलों पर बार-बार यही राग अलापना शुरू कर दिया।
'हम सियार तो नीले सियार को अपने साथ बैठने लायक भी नहीं मानते, नेता कैसे हो सकता है वह हमारा?' आमंत्रणकर्ता युवा सियार ने पूछा।
'सूरज पर थूकने से सूरज मैला नहीं होता, अपना ही मुँह गन्दा होता है' भालू ने कहा।
'शेर सिर्फ शेरों का नहीं पूरे जंगल का नेता है' कोयल ने कहा 'लेकिन उसे भी केवल शेरों के हितों की बात न कर, अन्य प्रजाति के पशु-पक्षियों के भी हित साधने चाहिए।'
'जानवरों के बीच नफरत फ़ैलाने और दूरियाँ बढ़ानेवाले घातक समाचार बार-बार प्रसारित करनेवाले बिकाऊ बंदरों पर कार्यवाही हो। कोटि-कोटि जनता का अनमोल समय और बर्बाद करने का हक़ इन्हें किसने दिया?' भीड़ को गरम होता देखकर बंदरों और नीले सियार को होना पड़ा नौ दो ग्यारह।
सभी विस्मित रह गये चुनाव का परिणाम देखकर कि मतदाताओं ने कोयल को विजयी बनाकर शेर और नीले सियार दोनों को दे दी थी पटखनी।
३१-१०-२०१४
०००
उल्लाला सलिला:
*
(छंद विधान १३-१३, १३-१३, चरणान्त में यति, सम चरण सम तुकांत, पदांत एक गुरु या दो लघु)
*
अभियंता निज सृष्टि रच, धारण करें तटस्थता।
भोग करें सब अनवरत, कैसी है भवितव्यता।।
*
मुँह न मोड़ते फ़र्ज़ से, करें कर्म की साधना।
जगत देखता है नहीं अभियंता की भावना।।
*
सूर सदृश शासन मुआ, करता अनदेखी सतत।
अभियंता योगी सदृश, कर्म करें निज अनवरत।।
*
भोगवाद हो गया है, सब जनगण को साध्य जब।
यंत्री कैसे हरिश्चंद्र, हो जी सकता कहें अब??
*
भृत्यों पर छापा पड़े, मिलें करोड़ों रुपये तो।
कुछ हजार वेतन मिले, अभियंता को क्यों कहें?
*
नेता अफसर प्रेस भी, सदा भयादोहन करें।
गुंडे ठेकेदार तो, अभियंता क्यों ना डरें??
*
समझौता जो ना करे, उसे तंग कर मारते।
यह कड़वी सच्चाई है, सरे आम दुत्कारते।।
*
हर अभियंता विवश हो, समझौते कर रहा है।
बुरे काम का दाम दे, बिन मारे मर रहा है।।
*
मिले निलम्बन-ट्रान्सफर, सख्ती से ले काम तो।
कोई न यंत्री का सगा, दोषारोपण सब करें।।
***
-- श्री सूर्यमंडलाष्टकं --
हिंदी काव्यानुवाद : संजीव 'सलिल'
*
नमः सवित्रे जगदेक चक्षुषे जगत्प्रसूतिस्थिति नाशहेतवे.
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे विरंचिनारायण शंकरात्मने..१..
जगत-नयन सविते! नमन, रचें-पाल कर अंत.
त्रयी-त्रिगुण के नाथ हे!, विधि-हरि-हर प्रिय कंत..१..
यंमन्डलं दीप्तिकरं विशालं, रत्नप्रभं तीव्रमनादि रूपं.
दारिद्र्य-दुःख-क्षय कारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम..२..
आभा मंडल दीप्त सुविस्तृत, रूप अनादि रत्न-मणि-भासित.
दुःख-दारिद्र्य क्षरणकर्ता हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..२..
यन्मण्डलं देवगणैः सुपूजितं विप्रेस्तुते भावन मुक्तिकोविदं.
तं देवदेवं प्रणमामि सूर्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..३..
आभा मंडल मुक्तिप्रदाता, सुरपूजित विप्रों से वन्दित.
लो प्रणाम देवाधिदेव हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..३..
यन्मण्डलं ज्ञान घनं त्वगम्यं, त्रैलोक्यपूज्यं त्रिगुणात्मरूपं.
समस्त तेजोमय दिव्यरूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..४..
आभा मंडल गम्य ज्ञान घन, त्रिलोकपूजित त्रिगुण समाहित.
सकल तेजमय दिव्यरूप हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..४..
यन्मण्डलं गूढ़मति प्रबोधं, धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानां.
यत्सर्वपापक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..५..
आभा मंडल सूक्ष्मति बोधक, सुधर्मवर्धक पाप विनाशित .
नित प्रकाशमय भव्यरूप हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..५..
यन्मण्डलं व्याधि-विनाशदक्षं, यद्द्रिग्यजुः साम सुसंप्रगीतं.
प्रकाशितं येन च भूर्भुवः स्व:, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..६..
आभा मंडल व्याधि-विनाशक,ऋग-यजु-साम कीर्ति गुंजरित.
भूर्भुवः व: लोक प्रकाशक!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..६..
यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण सिद्ध्-संघाः.
यदयोगिनो योगजुषां च संघाः, पुनातु मांतत्सवितुर्वरेण्यं..७..
आभा मंडल वेदज्ञ-वंदित, चारण-सिद्ध-संत यश-गायित .
योगी-योगिनी नित्य मनाते, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..७..
यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं, ज्योतिश्च कुर्यादित मर्त्यलोके.
यत्कालकल्पक्षय कारणं च , पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..८..
आभा मंडल सब दिश पूजित, मृत्युलोक को करे प्रभासित.
काल-कल्प के क्षयकर्ता हे!, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..८..
यन्मण्डलंविश्वसृजां प्रसिद्धमुत्पत्ति रक्षा पल प्रगल्भं.
यस्मिञ्जगत्संहरतेsअखिलन्च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यं..९..
आभा मंडल सृजे विश्व को, रच-पाले कर प्रलय-प्रगल्भित.
लीन अंत में सबको करते, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..९..
यन्मण्डलं सर्वगतस्थ विष्णोरात्मा परंधाम विशुद्ध् तत्वं .
सूक्ष्मान्तरै योगपथानुगम्यं, पुनातु मां तत्सवितुरवतुरवरेण्यं..१०..
आभा मंडल हरि आत्मा सम, सब जाते जहँ धाम पवित्रित.
सूक्ष्म बुद्धि योगी की गति सम, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..१०..
यन्मण्डलं विदविदोवदन्ति, गायन्तियच्चारण सिद्ध-संघाः.
यन्मण्डलं विदविद: स्मरन्ति, पुनातु मां तत्सवितुरवतुरवरेण्यं..११..
आभा मंडल सिद्ध-संघ सम, चारण-भाटों से यश-गायित.
आभा मंडल सुधिजन सुमिरें, रवि वरेण्य कर हमें प्रकाशित..११..
मण्डलाष्टतयं पुण्यं, यः पथेत्सततं नरः.
सर्व पाप विशुद्धात्मा, सूर्य लोके महीयते..
मण्डलाष्टय पाठ कर, पायें पुण्य अनंत.
पापमुक्त शुद्धतम हो, वर रविलोक दिगंत..
..इति श्रीमदादित्य हृदयेमण्डलाष्टकं संपूर्णं..
..अब श्रीमदसूर्यहृदयमंडल अष्टक पूरा हुआ..
३१-१०-२०१३
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गीत:
दीप, ऐसे जलें...
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दीप के पर्व पर जब जलें-
दीप, ऐसे जलें...
स्वेद माटी से हँसकर मिले,
पंक में बन कमल शत खिले।
अंत अंतर का अंतर करे-
शेष होंगे न शिकवे-गिले।।
नयन में स्वप्न नित नव खिलें-
दीप, ऐसे जलें...
श्रम का अभिषेक करिए सदा,
नींव मजबूत होगी तभी।
सिर्फ सिक्के नहीं लक्ष्य हों-
साध्य पावन वरेंगे सभी।।
इंद्र के भोग, निज कर मलें-
दीप, ऐसे जलें...
जानकी जान की खैर हो,
वनगमन-वनगमन ही न हो।
चीर को चीर पायें ना कर-
पीर बेपीर गायन न हो।।
दिल 'सलिल' से न बेदिल मिलें-
दीप, ऐसे जलें...
३१-१०-२०१३

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