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शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025

अप्रैल २५, सॉनेट, लघुकथा, कुंडलिया, दोहा, गीत, चंद्रायण छंद, नर्मदा नामावली, मुक्तिका

 सलिल सृजन अप्रैल २५

*
सॉनेट
कौन
कौन हूँ मैं?, कौन जाने?
बताते पहचान मेरी।
लगाते किंचित न देरी।।
वही जो अब तक अजाने।।
कौन हूँ मैं? पूछता 'मैं'।
लोग कहते 'मैं' भुलाओ।
बोलता मैं मत भुलाओ।।
कौन हूँ मैं बूझता मैं।।
'तू' न 'मैं' है, मैं' न है 'तू'
'वह' कभी 'मैं', वह कभी 'तू'
वहीं है वह, जहाँ मैं-तू
भेजता है कहो कौन?
बुलाता है कहो कौन?
भुलाता है कहो कौन?
२५-४-२०२२
•••
चिंतन सलिला ७
कौन?
'कौन'?
दरवाजा खटकते ही यह प्रश्न अपने आप ही मुँह से निकलता और फिर हम कहते हैं 'आता हूँ'। '
कौन' का उत्तर इस पर निर्भर करता है कि दरवाजा घर का है या मन का? '
कौन हूँ मैं?' इस छोटे से प्रश्न का उत्तर मानव चिर काल से खोज रहा है। उत्तर नहीं है ऐसा भी नहीं है। जितने मुँह उतने उत्तर- शिवोहम्, रामोहम्, कृष्णोहम्, अहं ब्रह्मास्मि, मानव, भारतीय, हिंदू, गोरा-काला, धर्म, पंथ, संप्रदाय, जाति, कुल, गोत्र, अल्ल, कुनबा, खानदान, वंश, प्रदेश, क्षेत्र, संभाग, जिला, गाँव, मोहल्ला, विद्यालय, महाविद्यालय, समूह टीम आदि अनेक आधारों पर कौन का उत्तर दिया जाता रहा है।
'कौन' का देश, काल, परिस्थिति और व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य में परिवर्तित होता है।
'कौन' पूछा था गुरु ने? 'जाबाली' उत्तर दिया था शिष्य ने। 'किसका पुत्र?', 'नहीं जानता।' 'माँ से पूछकर आ।' 'माँ ने कहा मेरे जन्म के पूर्व कई पुरुषों की सेवा में थी, मेरा पिता कौन, नहीं जानती।' 'तुम ब्राह्मण हो। इतना अप्रिय- लज्जाजनक सत्य समुदाय के बीच निर्भीकता के साथ स्वीकारनेवाला केवल ब्राह्मण ही हो सकता है।' बन गया था इतिहास।
'कौन' का उत्तर किस आधार पर हो? सत्यवादी ब्राह्मण, कितने हैं इस देश में? 'ब्रह्मम् जानाति सह ब्राह्मण' जो ब्रह्म को जाने वह ब्राह्मण। ब्रह्म कौन? कौन है ब्रह्म? उपनिषद कहते हैं ब्रह्म अनंत है 'एकं सत्यं अनंतम् ब्रह्म', 'एकोहम् द्वितीयोनास्ति' एक ही है दूसरा हो नहीं सकता।
कौन है ब्रह्मात्मज और ब्रह्मांशी? क्या वे ब्रह्म से पृथक, भिन्न, दूसरे नहीं होंगे? होंगे भी और नहीं भी होंगे। यह कैसे? उसी तरह जैसे धूप धरती पर सूर्य से अलग है किंतु सूर्य में रहते समय सूर्य ही है। माँ के गर्भ में आने के पूर्व पुत्र पिता का वीर्य अर्थात पिता ही होता है। ब्रह्म (परमात्मा) की संतान कोई एक नहीं, हर भूत (जीव) है। यही सत्य लोक ने 'कण-कण में भगवान' और 'कंकर-कंकर में शंकर' कहकर व्यक्त किया गया है।
'कौन?' के साथ क्या, कब, कैसे, कहाँ को जोड़ें तो चिंतन-मनन, प्रश्न-उत्तर बहुआयामी होते जाते हैं।
'कौन?' का उत्तर व्यष्टि और समष्टि के संदर्भ में भिन्न होकर भी अभिन्न और अभिन्न होकर भी भिन्न होता है।
२५-४-२०२२
•••
लघुकथा
सुख-दुःख
*
गुरु जी को उनके शिष्य घेरे हुए थे। हर एक की कोई न कोई शिकायत, कुछ न कुछ चिंता। सब गुरु जी से अपनी समस्याओं का समाधान चाह रहे थे। गुरु जी बहुत देर तक उनकी बातें सुनते रहे। फिर शांत होने का संकेत कर पूछा - 'कितने लोग चिंतित हैं? कितनों को कोई दुःख है? हाथ उठाइये।
सभागार में एक भी ऐसा न था जिसने हाथ न उठाया हो।
'रात में घना अँधेरा न हो तो सूरज ऊग सकेगा क्या?'
''नहीं'' समवेत स्वर गूँजा।
'धूप न हो तो छाया अच्छी लगेगी क्या?'
"नहीं।"
'क्या ऐसा दिया देखा है जिसके नीचे अँधेरा न हो"'
"नहीं।"
'चिंता हुई इसका मतलब उसके पहले तक निश्चिन्त थे, दुःख हुआ इसका मतलब अब तक दुःख नहीं था। जब दुःख नहीं था तब सुख था? नहीं था। इसका मतलब दुःख हो या न हो यह तुम्हारे हाथ में नहीं है पर सुख हो या हो यह तुम्हारे हाथ में है।'
'बेटी की बिदा करते हो तो दुःख और सुख दोनों होता है। दुःख नहीं चाहिए तो बेटी मत ब्याहो। कौन-कौन तैयार है?' एक भी हाथ नहीं उठा।
'बहू को लाते हो तो सुखी होते हो। कुछ साल बाद उसी बहु से दुखी होते हो। दुःख नहीं चाहिए तो बहू मत लाओ। कौन-कौन सहमत है?' फिर कोई हाथ नहीं उठा।
'एक गीत है - रात भर का है मेहमां अँधेरा, किसके रोके रुका है सवेरा? अब बताओ अँधेरा, दुःख, चिंता ये मेहमान न हो तो उजाला, सुख और बेफिक्री भी न होगी। उजाला, सुख और बेफिक्री चाहिए तो अँधेरा, दुःख और चिंता का स्वागत करो, उसके साथ सहजता से रहो।'
अब शिष्य संतुष्ट दिख रहे थे, उन्हें पराये नहीं अपनों जैसे ही लग रहे थे सुख-दुःख।
२५.४.२०२०
***
बुंदेली कथा ४
बाप भलो नें भैया
*
एक जागीर खों जागीरदार भौतई परतापी, बहादुर, धर्मात्मा और दयालु हतो।
बा धन-दौलत-जायदाद की देख-रेख जा समज कें करता हतो के जे सब जनता के काजे है।
रोज सकारे उठ खें नहाबे-धोबे, पूजा-पाठ करबे और खेतें में जा खें काम-काज करबे में लगो रैत तो।
बा की घरवाली सोई सती-सावित्री हती।
दोउ जनें सुद्ध सात्विक भोजन कर खें, एक-दूसरे के सुख-सुबिधा को ध्यान धरत ते।
बिनकी परजा सोई उनैं माई-बाप घाई समजत ती।
सगरी परजा बिनके एक इसारे पे जान देबे खों तैयार हो जात ती ।
बे दोउ सोई परजा के हर सुख-दुख में बराबरी से सामिल होत ते।
धीरे-धीरे समै निकरत जा रओ हतो।
बे दोउ जनें चात हते के घर में किलकारी गूँजे।
मनो अपने मन कछु और है, करता के कछु और।
दोउ प्रानी बिधना खें बिधान खों स्वीकार खें अपनी परजा पर संतान घाई लाड़ बरसात ते।
कैत हैं सब दिन जात नें एक समान।
समै पे घूरे के दिन सोई बदलत है, फिर बे दोऊ तो भले मानुस हते।
भगवान् के घरे देर भले हैं अंधेर नईया।
एक दिना ठकुरानी के पैर भारी भए।
ठाकुर जा खबर सुन खें खूबई खुस भए।
नौकर-चाकरन खों मूं माँगा ईनाम दौ।
सबई जनें भगबान सें मनात रए के ठकुराइन मोंड़ा खें जनम दे।
खानदान को चराग जरत रए, जा जरूरी हतो।
ओई समै ठाकुर साब के गुरु महाराज पधारे।
उनई खों खुसखबरी मिली तो बे पोथा-पत्रा लै खें बैठ गए।
दिन भरे कागज कारे कर खें संझा खें उठे तो माथे पे चिंता की लकीरें हतीं।
ठाकुर सांब नें खूब पूछी मनो बे इत्त्तई बोले प्रभु सब भलो करहे।
ठकुराइन नें समै पर एक फूल जैसे कुँवर खों जनम दओ।
ठाकुर साब और परजा जनों नें खूबई स्वागत करो।
मनो गुरुदेव आशीर्बाद देबे नई पधारे।
ठकुराइन नें पतासाजी की तो बताओ गओ के बे तो आश्रम चले गै हैं।
दोऊ जनें दुखी भए कि कुँवर खों गुरुदेव खों आसिरबाद नै मिलो।
धीरे-धीरे बच्चा बड़ो होत गओ।
संगे-सँग ठाकुर खों बदन सिथिल पडत गओ।
ठकुराइन नें मन-प्राण सें खूब सबा करी, मनो अकारथ।
एक दिना ठाकुर साब की हालत अब जांय के तब जांय की सी भई।
ठकुअराइन नें कारिन्दा गुरुदेव लिंगे दौड़ा दओ।
कारिन्दा के संगे गुरु महाराज पधारे मनो ठैरे नईं।
ठकुराइन खों समझाइस दई के घबरइयो नै।
जा तुमरी कठिन परिच्छा की घरी है।
जो कछू होनी है, बाहे कौउ नई रोक सकहे।
कैत आंय धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपातकाल परखहहिं चारी।
हम जानत हैं, तुम अगनी परिच्छा सें खरो कुंदन घाईं तप खें निकरहो।
ठाकुर साब की तबियत बिगरत गई।
एक दिना ठकुराइन खों रोता-बिलखता छोर के वे चल दए ऊ राह पे, जितै सें कोऊ लौटत नईया।
ठाकुर के जाबे के बाद ठकुराइन बेसुध से हतीं।
कुँवर के सर पे से ठाकुर की छाया हट गई।
ठकुराइन को अपनोंई होस नई हतो।
दो दोस्त चार दुसमन तो सबई कोइ के होत आंय।
ठाकुर के दुसमनन नें औसर पाओ।
'मत चूके चौहान' की मिसल याद कर खें बे औरें कुँवर साब के कानें झूठी दिलासा देबे के बहाने जुट गए।
कुँवर सही-गलत का समझें? जैसी कई ऊँसई करत गए।
हबेली के वफादारों ने रोकबे-टोकबे की कोसिस की।
मनो कुँवर नें कछू ध्यान नें दऔ।
ठकुराइन दुःख में इत्ती डूब गई के खुदई के खाबे-पीबे को होस नई रओ।
मूं लगी दाई मन-पुटिया के कछू खबा देत हती।
ऊ नें पानी नाक सें ऊपर जात देखो तो हिम्मत जुटाई।
एक दिना ठकुराइन सें कई की कुँवर साब के पाँव गलत दिसा में मुड़ रए हैं।
ठकुराइन नें भरोसा नई करो, डपट दओ।
हवन करत हाथ जरन लगे तो बा सोई चुप्पी लगा गई।
कुँवर की सोहबत बिगरत गई।
बे जान, सराब और कोठन को सौक फरमान लगे।
दाई सें चुप रैत नई बनो।
बाने एक रात ठकुराइन खों अपने मूड की सौगंध दै दी।
ठकुराइन नें देर रात लौ जागकर नसे की हालत में लौटते कुंवर जू खें देखो।
बिन्खों काटो तो खून नई की सी हालत भई।
बे तो तुरतई कुँवर जू की खबर लओ चाहत तीं मनो दाई ने बरज दऔ।
जवान-जहान लरका आय, सबखें सामनू कछू कहबो ठीक नईया।
दाई नें जा बी कई सीधूं-सीधूं नें टोकियो।
जो कैनें होय, इशारों-इशारों में कै दइयो ।
मनो सांप सोई मर जाए औ लाठी सोई नै टूटे।
उन्हें सयानी दाई की बात ठीकई लगी।
सो कुँवर के सो जाबै खें बाद चुप्पै-चाप कमरे माँ जा खें पर रईं।
नींद मनो रात भरे नै आई।
पौ फटे पे तनक झपकी लगी तो ठाकुर साब ठांड़े दिखाई दए।
बिन्सें कैत ते, "ठकुराइन! हम सब जानत आंय।
तुमई सम्हार सकत हो, हार नें मानियो।"
कछू देर माँ आँख खुल गई तो बे बिस्तर छोड़ खें चल पडीं।
सपरबे खें बाद पूजा-पाठ करो और दाई खों भेज खें कुँवर साब को कलेवा करबे खों बुला लओ।
कुँवर जू जैसे-तैसे उठे, दाई ने ठकुराइन को संदेस कह दौ।
बे समझत ते ठकुराइन खों कच्छू नें मालुम ।
चाहत हते कच्छू मालून ने परे सो दाई सें कई अब्बई आ रए।
और झटपट तैयार को खें नीचे पोंच गई, मनो रात की खुमारी बाकी हती।
बे समझत हते सच छिपा लओ, ठकुराइन जान-बूझ खें अनजान बनीं हतीं।
कलेवा के बाद ठकुराइन नें रियासत की समस्याओं की चर्चा कर कुँवर जू की राय मंगी।
बे कछू जानत ना हते तो का कैते? मनो कई आप जैसो कैहो ऊँसई हो जैहे।
ठकुराइन नें कई तीन-चार काम तुरतई करन परहें।
नई तें भौतई ज्यादा नुक्सान हो जैहे।
कौनौ एक आदमी तो सब कुछ कर नई सकें।
तुमाए दोस्त तो भौत काबिल आंय, का बे दोस्ती नई निबाहें?
कुँवर जू टेस में आ खें बोले काय न निबाहें, जो कछु काम दैहें जी-जान सें करहें।
ठकुराइन नें झट से २-३ काम बता दए।
कुँवर जू नें दस दिन खों समै चाओ, सो बाकी हामी भर दई।
ठाकुर साब के भरोसे के आदमियां खों बाकी के २-३ काम की जिम्मेवारी सौंप दई गई।
ठकुराइन ने एक काम और करो ।
कुँवर जू सें कई ठाकुर साब की आत्मा की सांति खें काजे अनुष्ठान करबो जरूरी है।
सो बे कुँवर जू खों के खें गुरु जी के लिंगे चल परीं और दस दिन बाद वापिस भईं।
जा बे खें पैले जा सुनिस्चित कर लाओ हतो के ठाकुर साब के आदमियों को दए काम पूरे हो जाएँ।
जा ब्यबस्था सोई कर दई हती के कुँवर जु के दोस्त मौज-मस्ती में रए आयें और काम ने कर पाएँ।
बापिस आबे के एक दिन बाद ठकुराइन नें कुँवर जू सें कई बेटा! तुमें जो काम दए थे उनखों का भओ?
जा बीच कुँवर जू नसा-पत्ती सें दूर रए हते।
गुरु जी नें उनैं कथा-कहानियां और बार्ताओं में लगा खें भौत-कछू समझा दौ हतो।
अब उनके यार चाहत थे के कुंअर जू फिर से राग-रंग में लग जाएं।
कुँवर जू कें संगे उनके सोई मजे हो जात ते।
हर्रा लगे ने फिटकरी रंग सोई चोखो आय।
ठकुराइन जानत हतीं के का होने है?
सो उन्ने बात सीधू सीधू नें कै।
कुँवर कू सें कई तुमाए साथ ओरें ने तो काम कर लए हूहें।
ठाकुर साब के कारिंदे निकम्मे हैं, बे काम नें कर पायें हुइहें।
पैले उनसें सब काम करा लइयो, तब इते-उते जइओ।
कुंवर मना नें कर सकत ते काये कि सब कारिंदे सुन रए ते।
सो बे तुरतई कारिंदों संगे चले गए।
कारिंदे उनें कछू नें कछू बहनों बनाखें देर करा देत ते।
कुँवर जू के यार-दोस्तों खें लौटबे खें बाद कारिंदे उनें सब कागजात दिखात ते।
कुँवर जू यारों के संगे जाबे खों मन होत भए भी जा नें पात ते।
काम पूरो हो जाबे के कारन कारिंदों से कछू कै सोई नें सकत ते।
दबी आवाज़ में थकुराइअन सें सिकायत जरूर की।
ठकुराइन नें समझाइस दे दई, अब ठाकुर साब हैं नईंया।
हम मेहरारू जा सब काम जानत नई।
तुमै सोई धीरे-धीरे समझने-सीखने में समै चाने।
देर-अबेर होत बी है तो का भई?, काम तो भओ जा रओ है।
तुमें और कौन सो काम करने है?
कुंअर जू मन मसोस खें रए जात हते।
अब ठकुराइन सें तो नई कए सकत ते की दोस्तन के सात का-का करने है?
दो-तीन दिना ऐंसई निकर गए।
एक दिना ठकुराइन नें कई तुमाए दोस्तन ने काम करई लए हूहें।
मनो कागजात लें खें बस्ता में धर दइयो।
कुँवर नें सोची संझा खों दोस्त आहें तो कागज़ ले लैहें और फिर मौज करहें।
सो कुँवर जू नें झट सें हामी भर दई।
संझा को दोस्त हवेली में आये तो कुँवर जू नें काम के बारे में पूछो।
कौनऊ नें कछू करो होय ते बताए?
बे एक-दूसरे को मूं ताकत भए, बगलें झांकन लगे।
एक नें झूठो बहानों बनाओ के अफसर नई आओ हतो।
मनो एक कारिंदे ने तुरतई बता दओ के ओ दिना तो बा अफसर बैठो हतो।
कुँवर जू सारी बात कोऊ के बताए बिना समझ गै।
कारिन्दन के सामने दोस्तन सें तो कछू नें कई।
मनो बदमजगी के मारे उन औरों के संगे बी नई गै।
ठकुरानी नें दोस्तों के लानें एकऊ बात नें बोली।
जाई कई कौनौ बात नईयाँ बचो काम तुम खुदई कर सकत हो।
कौनऊ मुस्किल होय तो कारिंदे मदद करहें।
कुँवर समझ गए हते के दोस्त मतलब के यार हते।
धीरे-धीरे बिन नें दोस्तन की तरफ ध्यान देना बंद कर दौ।
ठकुराइन नें चैन की सांस लई।
***
कुंडलिया
रूठी राधा से कहें, इठलाकर घनश्याम
मैंने अपना दिल किया, गोपी तेरे नाम
गोपी तेरे नाम, राधिका बोली जा-जा
काला दिल ले श्याम, निकट मेरे मत आ, जा
झूठा है तू ग्वाल, प्रीत भी तेरी झूठी
ठेंगा दिखा हँसें मन ही मन, राधा रूठी
कुंडल पहना कान में, कुंडलिनी ने आज
कान न देती, कान पर कुण्डलिनी लट साज
कुण्डलिनी लट साज, राज करती कुंडल पर
मौन कमंडल बैठ, भेजता हाथी को घर
पंजा-साइकिल सर धुनते, गिरते जा दलदल
खिला कमल हँस पड़ा, पहन लो तीनों कुंडल
***
दोहा वार्ता
*
छाया शुक्ला
सम्बन्धों के मूल्य का, कौन करे भावार्थ ।
अब बनते हैं मित्र भी, लेकर मन मे स्वार्थ ।।
*
दोहा
*
अपने राम जहाँ रहें, वहीं रामपुर धाम
शब्द ब्रम्ह हो साथ तो, क्या नगरी क्या ग्राम ?
*
गौ माता है, महिष है असुर, न एक समान
नित महिषासुर मर्दिनी का पूजन यश-गान
*
रुद्ध द्वार पर दीजिए दस्तक, इतनी बार
जो हो भीतर खोल दे, खुद ही हर जिद हार
*
करते हम चिरकाल से, देख सके तो देख
मिटा पुरानी रेख मत, कहीं नई निज रेख
*
बिना स्वार्थ तृष्णा हरे, सदा सलिल की धार
बिना मोह छाया करे, तरु सर पर हर बार
*
संबंधों का मोल कब, लें धरती-आकाश
पवन-वन्हि की मित्रता, बिना स्वार्थ साकार
२५-४-२०१७
***
एक गीत
.
कह रहे सपने कथाएँ
.
सुन सको तो सुनो इनको
गुन सको तो गुनो इनको
पुराने हों तो न फेंको
बुन सको तो बुनो इनको
छोड़ दोगे तो लगेंगी
हाथ कुछ घायल व्यथाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
.
कर परिश्रम वरो फिर फिर
डूबना मत, लौट तिर तिर
साफ होगा आसमां फिर
मेघ छाएँ भले घिर घिर
बिजलियाँ लाखों गिरें
हम नशेमन फिर भी बनाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
.
कभी खुद को मारना मत
अँधेरों से हारना मत
दिशा लय बिन गति न वरना
प्रथा पुरखे तारना मत
गतागत को साथ लेकर
आज को सार्थक बनाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
***
मुक्तिका
हँस इबादत करो
मत अदावत करो
मौन बैठें न हम
कुछ शरारत करो
सो लिए हैं बहुत
जग बगावत करो
फिर न फेरो नजर
मिल इनायत करो
आज शिकवे भुला
कल शिकायत करो
फेंक चलभाष हँस
खत किताबत करो
मन को मंदिर कहो
दिल अदालत करो
मुझसे मत प्रेम की
तुम वकालत करो
बेहतरी का कदम
हर रवायत करो
२५-४-२०१६
***
छंद सलिला:
चंद्रायण छंद
*
छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक लोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण), ६ वीं से १० वीं मात्रा रगण, ८ वीं से ११ वीं मात्रा जगण, यति ११-१०।
लक्षण छंद:
मंजुतिलका छंद रचिए हों न भ्रांत
बीस मात्री हर चरण हो दिव्यकांत
जगण से चरणान्त कर रच 'सलिल' छंद
सत्य ही द्युतिमान होता है न मंद
लक्ष्य पाता विराट
उदाहरण:
१. अनवरत राम राम, भक्तजन बोलते
जो जपें श्याम श्याम, प्राण-रस घोलते
एक हैं राम-श्याम, मतिमान मानते
भक्तगण मोह छोड़, कर्तव्य जानते
२. सत्य ही बोल यार!, झूठ मत बोलना
सोच ले मोह पाल, पाप मत ओढ़ना
धर्म है त्याग राग, वासना जीतना
पालना द्वेष को न, क्रोध को छोड़ना
३. आपका वंश-नाम!, है न कुछ आपका
मीत-प्रीत काम-धाम, था न कल आपका
आप हैं अंश ईश, के इसे जान लें
ज़िंदगी देन देव, से मिली मान लें
२५.४.२०१४
***
नर्मदा नामावली :
*
सनातन सलिला नर्मदा की नामावली का नित्य स्नानोपरांत जाप करने से भव-बाधा दूर होकर पाप-ताप शांत होते हैं। मैया अपनी संतानों के मनोकामना पूर्ण करती हैं।
पुण्यतोया सदानीरा नर्मदा, शैलजा गिरिजा अनिंद्या वर्मदा।
शैलपुत्री सोमतनया निर्मला, अमरकंटी शाम्भवी शुभ शर्मदा।।
आदिकन्या चिरकुमारी पावनी, जलधिगामिनी चित्रकूटा पद्मजा।
विमलहृदया क्षमादात्री कौतुकी, कमलनयना जगज्जननी हर्म्यदा।।
शशिसुता रुद्रा विनोदिनी नीरजा, मक्रवाहिनी ह्लादिनी सौन्दर्यदा।
शारदा वरदा सुफलदा अन्नदा, नेत्रवर्धिनी पापहारिणी धर्मदा।।
सिन्धु सीता गौतमी सोमात्मजा, रूपदा सौदामिनी सुख सौख्यदा।
शिखरिणी नेत्रा तरंगिणी मेखला, नीलवासिनी दिव्यरूपा कर्मदा।।
बालुकावाहिनी दशार्णा रंजना, विपाशा मन्दाकिनी चित्रोत्पला।
रूद्रदेहा अनुसुया पय-अम्बुजा, सप्तगंगा समीरा जय-विजयदा।।
अमृता कलकल निनादिनी निर्भरा, शाम्भवी सोमोद्भवा स्वेदोद्भवा।
चन्दना शिव-आत्मजा सागर-प्रिया, वायुवाहिनी ह्लादिनी आनंददा।।
मुरदला मुरला त्रिकूटा अंजना, नंदना नम्माडियस भाव-मुक्तिदा।
शैलकन्या शैलजायी सुरूपा, विराटा विदशा सुकन्या भूषिता।।
गतिमयी क्षिप्रा शिवा मेकलसुता, मतिमयी मन्मथजयी लावण्यदा।
रतिमयी उन्मादिनी उर्वर शुभा, यतिमयी भवत्यागिनी वैराग्यदा।।
दिव्यरूपा त्यागिनी भयहारिणी, महार्णवा कमला निशंका मोक्षदा।
अम्ब रेवा करभ कालिंदी शुभा, कृपा तमसा शिवज सुरसा मर्मदा।।
तारिणी मनहारिणी नीलोत्पला, क्षमा यमुना मेकला यश-कीर्तिदा।
साधना-संजीवनी सुख-शांतिदा, सलिल-इष्टा माँ भवानी नरमदा।।
२५.४.२०१३
***
प्रयोगात्मक मुक्तिका:
जमीं के प्यार में...
*
जमीं के प्यार में सूरज को नित आना ही होता है.
हटाकर मेघ की चिलमन दरश पाना ही होता है..
उषा के हाथ दे पैगाम कब तक सब्र रवि करता?
जले दिल की तपिश से भू को तप जाना ही होता है..
हया की हरी चादर ओढ़, धरती लाज से सिमटी.
हुआ जो हाले-दिल संध्या से कह जाना ही होता है..
बराती थे सितारे, चाँद सहबाला बना नाचा.
पिता बादल को रो-रोकर बरस जाना ही होता है..
हुए साकार सपने गैर अपने हो गए पल में.
जो पाया वही अपना, मन को समझाना ही होता है..
नहीं जो संग उनके संग को कर याद खुश रहकर.
'सलिल' नातों के धागों को यूँ सुलझाना ही होता है..
न यादों से भरे मन उसको भरमाना भी होता था.
छिपाकर आँख के आँसू 'सलिल' गाना ही होता है..
हरेक आबाद घर में एक वीराना भी होता था.
जहाँ खुद से मिले खुद 'सलिल' अफसाना ही होता है..
२५-४-२०११
***
एक घनाक्षरी
पारस मिश्र, शहडोल..
*
फूली-फूली राई, फिर तीसी गदराई. बऊराई अमराई रंग फागुन का ले लिया.
मंद-पाटली समीर, संग-संग राँझा-हीर, ऊँघती चमेली संग फूँकता डहेलिया..
थरथरा रहे पलाश, काँप उठे अमलतास, धीरे-धीरे बीन सी बजाये कालबेलिया.
आँखिन में हीरकनी, आँचल में नागफनी, जाने कब रोप गया प्यार का बहेलिया..
***
नव गीत:
*
पीढ़ियाँ
अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*
छोड़ निज
जड़ बढ़ रही हैं.
नए मानक गढ़ रही हैं.
नहीं बरगद बन रही ये-
पतंगों
सी चढ़ रही हैं.
चाह लेने की असीमित-
किन्तु देने की
कंगाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*
नेह-नाते हैं पराये.
स्वार्थ-सौदे नगद भाये.
फेंककर तुलसी
घरों में-
कैक्टस शत-शत उगाये..
तानती हैं हर प्रथा पर
अरुचि की झट
से दुनाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*
भूल देना-पावना क्या?
याद केवल चाहना क्या?
बहुत
जल्दी 'सलिल' इनको-
नहीं मतलब भावना क्या?
जिस्म की
कीमत बहुत है.
रूह की है फटेहाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
***
२५-४-२०१०
दोहा सलिला
*
मैं-तुम बिसरायें कहें, हम सम हैं बस एक.
एक प्रशासक है वही, जिसमें परम विवेक..
२५-४-२०१०
*

मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

अप्रैल २२, सॉनेट, मुसाफ़िर, सोरठे, कुंडलिया, शून्य, दोहा, राम, अर्थ डे, सीता छंद, गीतिका छंद

सलिल सृजन अप्रैल २२
.
मुक्तक
नर पर दो दो मात्रा भारी।
खुश हो चलवा नर पर आरी।।
कभी न बोले 'हाँ', नित ना री!
कमजोरी ताकत भी नारी।।
सॉनेट
मुसाफ़िर
हम सब सिर्फ मुसाफिर यारो!
दुनिया प्लेटफार्म पर आए।
छीनो-झपटो व्यर्थ न प्यारो!
श्वास ट्रेन की टिकिट कटाए।।
सफर जिंदगी का हसीन हो।
हँस-बोलो तो कट जाएगा।
बजती मन में आस बीन हो।
संग न तू कुछ ले पाएगा।।
नाहक नहीं झमेला करना।
सबसे भाईचारा पालो।
नहीं टिकिटचैकर से डरना।।
जो चढ़-उतरे उसे सम्हालो।।
सफर न सफरिंग होने देना।
सर्फिंग कर भव नैया खेना।।
२२-४-२०२३●●●
मुसाफ़िरी सोरठे
*
ट्रेन कर रही ट्रेन, मुसाफिरों को सफर में।
सफर करे हमसफ़र, अगर मदद उसकी करें।।
*
जबलपूर आ गया, क्यों कहता है मुसाफिर।
आता-जाता आप, शहर जहाँ था है वहीं।।
*
करे मुसाफिर भूल, रेल रिजर्वेशन कहे।
बिछी जमीं पर रेल, बर्थ ट्रेन में सुरक्षित।।
*
बिना टिकिट चल रहे, रवि-शशि दोनों मुसाफिर।
समय ट्रेन पर रोज, टी सी नभ क्यों चुप रहे।।
*
नहीं मुसाफिर कौन, सब आते-जाते यहाँ।
प्लेटफ़ॉर्म का संग, नहीं सुहाता किसी को।।
*
देख मुसाफिर मौन, सिग्नल लाल हरा हुआ।
जा ले मंजिल खोज, प्रभु से है मेरी दुआ।।
*
सोरठा गीत
नाहक छोड़ न ठाँव।
*
रहे सुवासित श्वास,
श्रम सीकर सिंचित अगर।
मिले तृप्ति मिट प्यास,
हुई भोर उठ कर समर।।
कोयल कूके नित्य,
कागा करे न काँव
नाहक छोड़ न ठाँव।
*
टेर रही है साँझ,
नभ सिंदूरी हो रहा।
पंछी लौटे नीड़,
मानव लालच बो रहा।
थकी दुपहरी मौन
रोक कहीं तो पाँव,
नाहक छोड़ न ठाँव।
*
रात रुपहली जाग,
खनखन बजती चूड़ियाँ।
हेरे तेरी राह,
जयी न हों मजबूरियाँ।
पथिक भटक मत और
बुला रहा है गाँव।
नाहक छोड़ न ठाँव।
२२-४-२०२३
*
सॉनेट
मौसम
मौसम करवट बदल रहा है
इसका साथ निभाएँ कैसे?
इसको गले लगाएँ कैसे?
दहक रहा है, पिघल रहा है
बेगाना मन बहल रहा है
रोज आग बरसाता सूरज
धरती को धमकाता सूरज
वीरानापन टहल रहा है
संयम बेबस फिसल रहा है
है मुगालता सम्हल रहा है
यह मलबा भी महल रहा है
व्यर्थ न अपना शीश धुनो
कोरे सपने नहीं बुनो
मौसम की सिसकियाँ सुनो
२२-४-२०२२
•••
सॉनेट
महाशक्ति
महाशक्ति हूँ; दुनिया माने
जिससे रूठूँ; उसे मिटा दूँ
शत्रु शांति का; दुनिया जाने
चाहे जिसको मार उठा दूँ
मौतों का सौदागर निर्मम
गोरी चमड़ी; मन है काला
फैलाता डर दहशत मातम
लज्जित यम; मरघट की ज्वाला
नर पिशाच खूनी हत्यारा
मिटा जिंदगी खुश होता हूँ
बारूदी विष खाद मिलाकर
बीज मिसाइल के बोता हूँ
सुना नाश के रहा तराने
महाशक्ति हूँ दुनिया माने
२२-४-२०२२
•••
चिंतन ४
कैसे?
'कैसे' का विचार तभी होता है इससे पहले 'क्यों' और 'क्या' का निर्णय ले लिया गया हो।
'क्यों' करना है?
इस सवाल का जवाब कार्य का औचित्य प्रतिपादित करता है। अपनी गतिविधि से हम पाना क्या चाहते हैं?
'क्या' करना है?
इस प्रश्न का उत्तर परिवर्तन लाने की योजनाओं और प्रयासों की दिशा, गति, मंज़िल, संसाधन और सहयोगी निर्धारित करता है।
'कैसे'
सब तालों की चाबी यही है।
चमन में अमन कैसे हो?
अविनय (अहंकार) के काल में विनय (सहिष्णुता) से सहयोग कैसे मिले?
दुर्बोध हो रहे सामाजिक समीकरण सुबोध कैसे हों?
अंतर्राष्ट्रीय, वैश्विक और ब्रह्मांडीय संस्थाओं और बरसों से पदों को पकड़े पुराने चेहरों से बदलाव और बेहतरी की उम्मीद कैसे हो?
नई पीढ़ी की समस्याओं के आकलन और उनके समाधान की दिशा में सामाजिक संस्थाओं की भूमिका कितनी और कैसे हो?
नई पीढ़ी सामाजिक संस्थाओं, कार्यक्रमों और नीतियों से कैसे जुड़े?
कैसे? कैसे? कैसे?
इस यक्ष प्रश्न का उत्तर तलाशने का श्रीगणेश कैसे हो?
२२•४•२०२२
***
प्रात नमन
*
मन में लिये उमंग पधारें राधे माधव
रचना सुमन विहँस स्वीकारें राधे माधव
राह दिखाएँ मातु शारदा सीख सकें कुछ
सीखें जिससे नहीं बिसारें राधे माधव
हों बसंत मंजरी सदृश पाठक रचनाएँ
दिन-दिन लेखन अधिक सुधारें राधे-माधव
तम घिर जाए तो न तनिक भी हैरां हों हम
दीपक बन दुनिया उजियारें राधे-माधव
जीतेंगे कोविंद न कोविद जीत सकेगा
जीवन की जय-जय उच्चारें राधे-माधव
***
प्राची ऊषा सूर्य मुदित राधे माधव
मलय समीरण अमल विमल राधे माधव
पंछी कलरव करते; कोयल कूक रही
गौरैया फिर फुदक रही राधे माधव
बैठ मुँडेरे कागा टेर रहा पाहुन
बनकर तुम ही आ जाओ राधे माधव
सुना बजाते बाँसुरिया; सुन पायें हम
सँग-सँग रास रचा जाओ राधे माधव
मन मंदिर में मौन न मूरत बन रहना
माखन मिसरी लुटा जाओ राधे माधव
२१-४-२०२०
***
दोहा सलिला
नियति रखे क्या; क्या पता, बनें नहीं अवरोध
जो दे देने दें उसे, रहिए आप अबोध
*
माँगे तो आते नहीं , होकर बाध्य विचार
मन को रखिए मुक्त तो, आते पा आधार
*
सोशल माध्यम में रहें, नहीं हमेशा व्यस्त
आते नहीं विचार यदि, आप रहें संत्रस्त
*
एक भूमिका ख़त्म कर, साफ़ कीजिए स्लेट
तभी दूसरी लिख सकें,समय न करता वेट
*
रूचि है लोगों में मगर, प्रोत्साहन दें नित्य
आप करें खुद तो नहीं, मिटे कला के कृत्य
*
विश्व संस्कृति के लगें, मेले हो आनंद
जीवन को हम कला से, समझें गाकर छंद
*
भ्रमर करे गुंजार मिल, करें रश्मि में स्नान
मन में खिलते सुमन शत, सलिल प्रवाहित भान
*
हैं विराट हम अनुभूति से, हुए ईश में लीन
अचल रहें सुन सकेंगे, प्रभु की चुप रह बीन
***
मनरंजन -
आर्य भट्ट ने शून्य की खोज ६ वीं सदी में की तो लगभग ५००० वर्ष पूर्व रामायण में रावण के दस सर की गणना और त्रेता में सौ कौरवों की गिनती कैसे की गयी जबकि उस समय लोग शून्य (जीरो) को जानते ही नही थे।
*
आर्यभट्ट ने ही (शून्य / जीरो) की खोज ६ वीं सदी में की, यह एक सत्य है। आर्यभट्ट ने 0(शून्य, जीरो )की खोज *अंकों मे* की थी, *शब्दों* नहीं। उससे पहले 0 (अंक को) शब्दों में शून्य कहा जाता था। हिन्दू धर्म ग्रंथों जैसे शिव पुराण,स्कन्द पुराण आदि में आकाश को *शून्य* कहा गया है। यहाँ शून्य का अर्थ अनंत है । *रामायण व महाभारत* काल में गिनती अंकों में नहीं शब्दो में होती थी, वह भी *संस्कृत* में।
१ = प्रथम, २ = द्वितीय, ३ = तृतीय, ४ = चतुर्थ, ५ = पंचम, ६ = षष्ठं, ७ = सप्तम, ८ = अष्टम, ९= नवंम, १० = दशम आदि।
दशम में *दस* तो आ गया, लेकिन अंक का ० नहीं।
आया, ‍‍रावण को दशानन, दसकंधर, दसशीश, दसग्रीव, दशभुज कहा जाता है !!
*दशानन मतलव दश+आनन =दश सिरवाला।
त्रेता में *संस्कृत* में *कौरवो* की संख्या सौ *शत* शब्दों में बतायी गयी, अंकों में नहीं।
*शत्* संस्कृत शब्द है जिसका हिन्दी में अर्थ सौ (१००) है। *शत = सौ*
रोमन में १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ०, के स्थान पर i, ii, iii, iv, v, vi, vii, viii, ix, x आदि लिखा-पढ़ा जाता है किंतु शून्य नहीं आता।आप भी रोमन में एक से लेकर सौ की गिनती पढ़ लिख सकते है !!
आपको 0 या 00 लिखने की जरूरत भी नहीं पड़ती है।
तब गिनती को *शब्दो में* लिखा जाता था !!
उस समय अंकों का ज्ञान नहीं, था। जैसे गीता,रामायण में अध्याय १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, को प्रथम अध्याय, द्वितीय अध्याय, पंचम अध्याय,दशम अध्याय... आदि लिखा-पढ़ा जाका था।
दशम अध्याय ' मतलब दशवाँ पाठ (10th lesson) होता है !!
इसमे *दश* शब्द तो आ गया !! लेकिन इस दश मे *अंको का 0* (शून्य, जीरो)" का प्रयोग नही हुआ !!
आर्यभट्ट ने शून्य के लिये आंकिक प्रतीक "०" का अन्वेषण किया जो हमारे आभामंड, पृथ्वी के परिपथ या सूर्य के आभामंडल का लघ्वाकार है।
*
२०-४-२०२०
कुंडलिया
*
नारी को नर पूजते, नारी नर की भक्त
एक दूसरे के बिना दोनों रहें अशक्त
दोनों रहें अशक्त, मिलें तो रचना करते
उनसा बनने भू पर, ईश्वर आप उतरते
यह दीपक वह ज्योत, पुजारिन और पुजारी
मन मंदिर में मौन, विराजे नर अरु नारी
२२-४-२०२०
***
दोहा-दोहा राम
*
भीतर-बाहर राम हैं, सोच न तू परिणाम
भला करे तू और का, भला करेंगे राम
*
विश्व मित्र के मित्र भी, होते परम विशिष्ट
युगों-युगों तक मनुज कुल, सीख मूल्य हो शिष्ट
*
राम-नाम है मरा में, जिया राम का नाम
सिया राम का नाम है, राम सिया का नाम
*
उलटा-सीधा कम-अधिक, नीचा-ऊँच विकार
कम न अधिक हैं राम-सिय, पूर्णकाम अविकार
*
मन मारुतसुत हो सके, सुमिर-सुमिर सिय-राम
तन हनुमत जैसा बने, हो न सके विधि वाम
*
मुनि सुतीक्ष्ण मति सुमति हो, तन हो जनक विदेह
धन सेवक हनुमंत सा, सिया-राम का गेह
*
शबरी श्रम निष्ठा लगन, सत्प्रयास अविराम
पग पखर कर कवि सलिल, चल पथ पर पा राम
*
हो मतंग तेरी कलम, स्याही बन प्रभु राम
श्वास शब्द में समाहित, गुंजित हो निष्काम
*
अत्रि व्यक्ति की उच्चता, अनुसुइया तारल्य
ज्ञान किताबी भंग शर, कर्मठ राम प्रणम्य
*
निबल सरलता अहल्या, सिया सबल निष्पाप
गौतम संयम-नियम हैं, इंद्र शक्तिमय पाप
*
नियम समर्थन लोक का, पा बन जाते शक्ति
सत्ता दण्डित हो झुके, हो सत-प्रति अनुरक्ति
*
जनगण से मिल जूझते, अगर नहीं मतिमान.
आत्मदाह करते मनुज, दनुज करें अभिमान.
*
भंग करें धनु शर-रहित, संकुच-विहँस रघुनाथ.
भंग न धनु-शर-संग हो, सलिल उठे तब माथ.
२२-४-२०१९
***
श्री श्री चिंतन दोहा मंथन
इंद्रियाग्नि:
24.7.1995, माँट्रियल आश्रम, कनाडा
*
जीवन-इंद्रिय अग्नि हैं, जो डालें हो दग्ध।
दूषित करती शुद्ध भी, अग्नि मुक्ति-निर्बंध।।
*
अग्नि जले; उत्सव मने, अग्नि जले हो शोक।
अग्नि तुम्हीं जल-जलाते, या देते आलोक।।
*
खुद जल; जग रौशन करें, होते संत कपूर।
प्रेमिल ऊष्मा बिखेरें, जीव-मित्र भरपूर।।
*
निम्न अग्नि तम-धूम्र दे, मध्यम धुआँ-उजास।
उच्च अग्नि में ऊष्णता, सह प्रकाश का वास।।
*
करें इंद्रियाँ बुराई, तिमिर-धुआँ हो खूब।
संयम दे प्रकृति बदल, जा सुख में तू डूब।।
*
करें इंद्रियाँ भलाई, फैला कीर्ति-सुवास।
जहाँ रहें सत्-जन वहाँ, सब दिश रहे उजास।।
***
12.4.2018
मुक्तक
अर्थ डे है, अर्थ दें तो अर्थ का कुछ अर्थ हो.
जेब खाली ही रहे तो काटना भी व्यर्थ हो
जेब काटे अगर दर्जी तो न मर्जी पूछता
जेबकतरा जेब काटे बिन सजा न अनर्थ हो
***
अभिनव प्रयोग
त्रिपदियाँ
(सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय छंद, पदांत गुरु)
*
तन्मय जिसमें रहें आप वो
मूरत मन-मंदिर में भी हो
तीन तलाक न दे पाएंगे।
*
नहीं एक के अगर हुए तो
दूजी-तीजी के क्या होंगे?
खाली हाथ सदा पाएंगे।
*
बीत गए हैं दिन फतवों के
साथ समय के नहीं चले तो
आप अकेले पड़ जाएंगे।
२२-४-२०१७
*
छन्द बहर का मूल है ९
मुक्तिका:
*
पंद्रह वार्णिक, अति शर्करी जातीय सीता छंद.
छब्बीस मात्रिक महाभागवत जातीय गीतिका छंद
मात्रा क्रम -२१२.२/२१.२२/२.१२२./२१२
गण सूत्र-रतमयर
बहर- फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
*
कामना है रौशनी की भीख दें संसार को
मनुजता को जीत का उपहार दें, हर हार को
सर्प बाधा, जिलहरी है परीक्षा सामर्थ्य की
नर्मदा सा ढार दें शिवलिंग पर जलधार को
कौन चाहे मुश्किलों से हो कभी भी सामना
नाव को दे छोड़ जब हो जूझना मँझधार को
भरोसा किस पर करें जब साथ साया छोड़ दे
नाव से खतरा हुआ है हाय रे पतवार को
आ रहे हैं दिन कहीं अच्छे सुना क्या आपने?
सूर्य ही ठगता रहा जुमले कहा उद्गार को
२३-०७-२०१५
***
नवगीत
*
सत्ता-लाश
नोचने आतुर
गिद्ध, बाज, कऊआ.
*
जनमत के लोथड़े बटोरें
पद के भूखे चंद चटोरे.
दर-दर घूम समर्थन माँगें
ले हाथों में स्वार्थ-कटोरे.
मिलीभगत
फैला अफवाहें
खड़ा करो हऊआ.
सत्ता-लाश
नोचने आतुर
गिद्ध, बाज, कऊआ.
*
बाँट रहे अनगिन आश्वासन,
जुमला कहते पाकर शासन.
टैक्स और मँहगाई बढ़ाते
माल उड़ाते, देते भाषण.
त्याग-परिश्रम
हैं अवमूल्यित
साध्य खेल-चऊआ.
सत्ता-लाश
नोचने आतुर
गिद्ध, बाज, कऊआ.
*
निर्धन हैं बेबस अधनंगे
धनी-करें फैशन अधनंगे.
लाज न ढँक पाता है मध्यम
भद्र परेशां, लुच्चे चंगे.
खाली हाथ
सभी को जाना
सुने न क्यों खऊआ?
सत्ता-लाश
नोचने आतुर
गिद्ध, बाज, कऊआ.
*
नवगीत
फतवा
*
तुमने छींका
हमें न भाया
फतवा जारी।
*
ठेकेदार
हमीं मजहब के।
खासमखास
हमई हैं रब के।
जब चाहें
कर लें निकाह फिर
दें तलाक.
क्यों रायशुमारी?
तुमने छींका
हमें न भाया
फतवा जारी।
*
सही-गलत क्या
हमें न मतलब।
मनमानी ही
अपना मजहब।
खुद्दारी से
जिए न औरत
हो जूती ही
अपनी चाहत।
ख्वाब न उसके
बनें हकीकत
है तैयारी।
तुमने छींका
हमें न भाया
फतवा जारी।
*
हमें नहीं
कानून मानना।
हठधर्मी कर
रार ठानना।
मनगढ़ंत
हम करें व्याख्या
लाइलाज है
अकल अजीरण
की बीमारी।
तुमने छींका
हमें न भाया
फतवा जारी।
*
नवगीत: बिंदु-बिंदु परिचय
*
१. नवगीत के २ हिस्से होते हैं १. मुखड़ा २. अंतरा।
२. मुखड़ा की पंक्तिसंख्या या पंक्ति में वर्ण या मात्रा संख्याका कोई बंधन नहीं होता पर मुखड़े की प्रथम या अंतिम एक पंक्ति के समान पदभार की पंक्ति अंतरे के अंत में आवश्यक है ताकि उसके बाद मुखड़े को दोहराया जा सके तो निरंतरता की प्रतीति हो।
३. सामान्यतः २ या ३ अंतरे होते हैं। अन्तरा सामान्यतः स्वतंत्र होता है पर पूर्व या पश्चात्वर्ती अंतरे से सम्बद्ध नहीं होता। अँतरे में पंक्ति या पंक्तियों में वर्ण या मात्रा का कोई बंधन नहीं होता किन्तु अंतरे की पंक्तियों में एक लय का होना तथा वही लय हर अन्तरे में दोहराई जाना आवश्यक है।
४. नवगीत में विषय, रस, भाव आदि का कोई बंधन नहीं होता।
५. संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, मार्मिकता, बेधकता, स्पष्टता, सामयिकता, सहजता-सरलता नवगीत के गुण या विशेषतायें हैं।
६. नवगीत की भाषा में देशज शब्दों के प्रयोग से उपज टटकापन या अन्य भाषिक शब्द विशिष्टता मान्य है, जबकि लेख, निबंध में इसे दोष कहा जाता है।
७. नवगीत की भाषा सांकेतिक होती है, गीत में विस्तार होता है।
८. नवगीत में आम आदमी की या सार्वजनिक भावनाओं को अभिव्यक्ति दी जाती है जबकि गीत में गीतकार अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों को शब्दित करता है।
९. नवगीत में अप्रचलित छंद या नए छंद को विशेषता कहा जाता है। छंद मुक्तता भी स्वीकार्य है पर छंदहीनता नहीं।
१०. नवगीत में अलंकारों की वहीं तक स्वीकार्यता है जहाँ तक वे कथ्य की स्पष्ट-सहज अभिव्यक्ति में बाधक न हों।
११. नवगीत में प्रतीक, बिम्ब तथा रूपक भी कथ्य के सहायक के रूप में ही होते हैं।
सारत: हर नवगीत अपने आप में पूर्ण तथा गीत होता है पर हर गीत नवगीत नहीं होता। नवगीत का अपरिहार्य गुण उसका गेय होना है।
+++++++
नवगीत:
.
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
साये से भय खाते लोग
दूर न होता शक का रोग
बलिदानी को युग भूले
अवसरवादी करता भोग
सत्य न सुन
सह पाते
झूठी होती वाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
उसने पाया था बहुमत
साथ उसी के था जनमत
सिद्धांतों की लेकर आड़
हुआ स्वार्थियों का जमघट
बलिदानी
कब करते
औरों की परवाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
सत्य, झूठ को बतलाते
सत्ता छिने न, भय खाते
छिपते नहीं कारनामे
जन-सम्मुख आ ही जाते
जननायक
का स्वांग
पाल रहे डाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
वह हलाहल रहा पीता
बिना बाजी लड़े जीता
हो विरागी की तपस्या
घट भरा वह, शेष रीता
जन के मध्य
रहा वह
चाही नहीं पनाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
कोई टोंक न पाया
खुद को झोंक न पाया
उठा हुआ उसका पग
कोई रोक न पाया
सबको सत्य
बताओ, जन की
सुनो सलाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
***
मुक्तक:
*
हम एक हों, हम नेक हों, बल दो हमें जगदंबिके!
नित प्रात हो, हम साथ हों, नत माथ हो जगवन्दिते !!
नित भोर भारत-भारती वर दें हमें सब हों सुखी
असहाय के प्रति हों सहायक हो न कोई भी दुखी
*
मत राज्य दो मत स्वर्ग दो मत जन्म दो हमको पुन:
मत नाम दो मत दाम दो मत काम दो हमको पुन:
यदि दो हमें बलिदान का यश दो, न हों जिन्दा रहें
कुछ काम मातु! न आ सके नर हो, न शर्मिंदा रहें
*
तज दे सभी अभिमान को हर आदमी गुणवान हो
हँस दे लुटा निज ज्ञान को हर लेखनी मतिमान हो
तरु हों हरे वसुधा हँसे नदियाँ सदा बहती रहें-
कर आरती माँ भारती! हम हों सुखी रसखान हों
*
फहरा ध्वजा हम शीश को अपने रखें नत हो उठा
मतभेद को मनभेद को पग के तले कुचलें बिठा
कर दो कृपा वर दो जया!हम काम भी कुछ आ सकें
तव आरती माँ भारती! हम एक होकर गा सकें
*
[छंद: हरिगीतिका, सूत्र: प्रति पंक्ति ११२१२ X ४]
२२-४-२०१५
***
षट्पदी :
*'
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप्त..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजा दे, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत मान ता ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
*
२२-४-२०१०
छंद सलिला:
विशेषिका छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, चरणांत तीन लघु लघु गुरु (सगण)।
लक्षण छंद:
'विशेषिका' कलाएँ बीस संग रहे
विशेष भावनाएँ कह दे बिन कहे
कमल ज्यों नर्मदा में हँस भ्रमण करे
'सलिल' चरण के अंत में सगण रहे
उदाहरण:
१. नेता जी! सीखो जनसेवा, सुधरो
रिश्वत लेना छोडो अब तो ससुरों!
जनगण ने देखे मत तोड़ो सपने
मानो कानून सभी मानक अपने
२. कान्हा रणछोड़ न जा बज मुरलिया
राधा का काँप रहा धड़कता जिया
निष्ठुर शुक मैना को छोड़ उड़ रहा
यमुना की लहरों का रंग उड़ रहा
नीलाम्बर मौन है, कदम्ब सिसकता
पीताम्बर अनकहनी कहे ठिठकता
समय महाबली नाच नचा हँस रहा
नटवर हो विवश काल-जाल फँस रहा
३. बंदर मामा पहन पजामा सजते
मामी जी पर रोब ज़माने लगते
चूहा देखा उठकर भागे घबरा
मामी मन ही मन मुस्काईं इतरा
२२-४-२०१४
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
मुक्तक:
नव संवत्सर मंगलमय हो.
हर दिन सूरज नया उदय हो.
सदा आप पर ईश सदय हों-
जग-जीवन में 'सलिल' विजय हो.
*
दिल चुराकर आप दिलवर बन गए.
दिल गँवाकर हम दीवाने हो गए.
दिल कुचलनेवाले दिल की क्यों सुनें?
थामकर दिल वे सयाने बन गए.
*
पीर पराई हो सगी, निज सुख भी हो गैर.
जिसको उसकी हमेशा, 'सलिल' रहेगी खैर..
सबसे करले मित्रता, बाँट सभी को स्नेह.
'सलिल' कभी मत किसी के, प्रति हो मन में बैर..
*
मन मंदिर में जो बसा, उसको भी पहचान.
जग कहता भगवान पर वह भी है इंसान..
जो खुद सब में देखता है ईश्वर का अंश-
दाना है वह ही 'सलिल' शेष सभी नादान..
*
'संबंधों के अनुबंधों में ही जीवन का सार है.
राधा से,मीरां से पूछो, सार भाव-व्यापार है..
साया छोडे साथ,गिला क्यों?,उसका यही स्वभाव है.
मानव वह जो हर रिश्ते से करता'सलिल'निभाव है.'
२२-४-२०१०
***

सोमवार, 21 अप्रैल 2025

अप्रैल २१, सॉनेट, रेलगाड़ी, बाला छंद, रामवत छंद, हेमंत छंद, नवगीत, पूर्णिका, दोहा

सलिल सृजन अप्रैल २१
*
पूर्णिका
लिली लली भर ले उड़ान हँस
रह सतर्क मत तूफां में फँस
.
बाधा पद-तल कुचल, न डरना
शैतानों को नागिन बन डँस
.
बदनामी का दलदल घातक
छींटों से बच, नहीं पंक धँस
.
जगह न देता कोई किसी को
आप बना लें जगह, जूझ-ठँस
.
गर उपहास करे जग तेरा
लगा ठहाका तू जग पर हँस
२१.४.२५
०००
*
सॉनेट
रेलगाड़ी
रेलगाड़ियाँ दौड़ रही हैं।
पूरब-पच्छिम-उत्तर-दक्खिन।
सबको पीछे छोड़ रही हैं।।
करें सफर हर साँझ-रात-दिन।।
कौन बताए कितने चक्के?
बोगी-बर्थ-सीट हैं कितनी?
खातीं, देतीं कितने धक्के?
सहनशक्ति है ईश्वर जितनी।।
जितना पैसा, उतनी सुविधा।
बिना टिकट मत चढ़ो मुसाफिर।
रखना मन में तनिक न दुविधा।।
लड़ना हर मुश्किल से डटकर।।
सबसे लेती होड़ रही हैं।
रेलगाड़ियाँ दौड़ रही हैं।।
२१-४-२०२३
●●●
सॉनेट
जागरण
जागरण का समय जागो
बहुत सोये अब न सोना।
भुज भरे आलस्य त्यागो
नवाशा के बीज बोना।।
नमन कर रख कदम भू पर
फेफड़ों में पवन भर ले।
आचमन कर सलिल का फिर
गगन-रवि को नमन कर ले।।
मुड़ न पीछे, देख आगे
स्वप्न कुछ साकार कर ले।
दैव भी वरदान माँगे
जगत का उद्धार कर दे।।
भगत के बस में रहे वह
ईश जिसको जग रहा कह।।
२१-४-२०२२
•••
चित्र अलंकार
अर्ध पिरामिड
*
हे
राम!
मत हो
प्रभु वाम।
कोरोना मार,
लो हमें उबार,
हर पीर तमाम।
बहुत दुखी संसार,
सब तरफ हाहाकार,
बाँह थाम, स्वीकार प्रणाम।
*
दोहा सलिला
*
प्राण दीप की दीप्ति दे, कोरोना को मात।
श्वास सलिल संजीव कर, कहे हुआ फिर प्रात।।
*
लोभ-मोह कम कीजिए, सुख देता संतोष।
बाहर कम घर अधिक रह, बढ़ा स्नेह का कोष।।
*
जो बिछुड़े उनको नमन, जो सँग रखिए ध्यान।
खुद भी रहिए सुरक्षित, पा-दें साँसें दान।।
*
करें गरारे भाप लें, सुबह शाम लें धूप।
कांता की जय बोले, कहिए कांत अनूप।।
*
आशा कभी न छोड़िए, करें साधना योग।
लगे मुखौटा दूर हो, कोरोना का रोग।।
२१-४-२०२१
***
नवगीत
शेष है
*
दुनिया की
उत्तम किताब हम
खुद को पढ़ना
मगर शेष है
*
पोथी पढ़-पढ़ थक हारे हैं
बिना मौत खुद को मारे हैं
ठाकुर हैं पर सत्य न बूझें
पूज रहे ठाकुरद्वारे हैं
विधना की
उत्तम रचना हम
खुद कुछ रचना
मगर शेष है
*
अक्षर होकर क्षर ही जोड़ा
राह बना, अपना पग मोड़ा
तिनका-तिनका चले जोड़ने
जोड़-जोड़कर हर दिल तोडा
छंदों का
उत्तम निभाव हम
खुद का निभना
मगर शेष है
*
डर मत, उछल-कूद मस्ता ले
थक जाए तो रुक सुस्ता ले
क्यों यंत्रों सा जीवन जीता?
चल पंछी बन, कलरव गा ले
कर्मों की
उत्तम कविता हम
खुद को कहना
मगर शेष है
***
***
बुंदेली कहानी
समझदारी
*
आज-काल की नईं, बात भौर दिनन की है।
अपने जा बुंदेलखंड में चन्देलन की तूती बोलत हती।
सकल परजा भाई-चारे कें संगै सुख-चैन सें रैत ती।
सेर और बुकरियाँ एकई घाट पै पानी पियत ते।
राजा की मरजी के बगैर नें तो पत्ता फरकत तो, नें चिरइया पर फड़फड़ाउत ती।
सो ऊ राजा कें एक बिटिया हती।
बिटिया का?, कौनऊ हूर की परी घाईं, भौतऊ खूबसूरत।
बा की खूबसूरती को कह सकत आय?
जैसे पूरनमासी में चाँद, दीवारी में दिया जोत की सी, जैंसे दूद में झाग।
ऐंसी खिलंदड जैसे नर्मदा और ऊजरी जैंसे गंगा।
जब कभूं राजकुँवरि दरबार में जात तीं तौ दरबार जगमगान लगत तो।
राजकुँवरि के रूप और गुनन कें बखान सें सकल परजा को सर उठ जात तो।
एक सें बढ़के एक राजा, जागीरदार अउर जमींदार उनसें रिश्ते काजे ललचात रैत ते।
मनो राजकुँवरि कौनऊ के ढिंगे आँख उठा के भी नें हेरत ती।
जब कभऊं राजदरबार में कछू बोलत ती तो मनो बीना कें तार झनझना जाउत ते।
राजा के मूं लगे दरबारन नें एक दिना हिम्मत जुटा कहें राजा साब सें कई।
"महाराज जू! बिटिया रानी सयानी भई जात हैं।
उनके ब्याह-काज कें लाने बात करो चाही।
समय जात देर नईं लगत, बात-चीत भओ चहिए।''
दरबारन की बातें कान में परतई राजकुँवरि के गालन पे टमाटर घाईं लाली छा गई।
राजकुँवरि के नैन नीचे झुक गए हते।
राजा साहब ने जा देख कें अनुमान कर लओ कि दरबारी ठीकई कै रए।
राजकुँवरि ने परदे की ओट सें कई -''दद्दा जू! हुसियार राजा कहें अपनेँ वफादार दरबारन की बात सुनों चाही।''
राजा साब नें अचरज के साथ राजकुँवरि की तरफ हेर खें कई ''हम सोई ऐंसई सोचत रए। ''
''दद्दा जू! मनो ब्याह काजे हमरी एक शर्त है।
हम बा शर्त पूरी करबे बारे सें ब्याह करो चाहत हैं।"
अब तो महाराज जू और दरबारां सबईं खों जैसे साँप सूंघ गओ।
बेटी जू के मूं सें सरत को नाम सुनतई राजा साब और दरबारी सब भौंचक्के रए गए।
कोई ने सोची नईं हती के राजकुँवरि ऐसो कछू बोल सकत ती।
सबरे जाने सोच में पर गए कि राजकुँवरि कछू ऐसो-वैसो नें कै दें।
कहूँ उनकी कई पूरी नें कर पाए तो का हुईहै?
राजकुँवरि नें सबखों चुप्पी लगाए देख खें आपई कई।
"आप औरन खों परेसान होबे की कौनऊ जरूरत नईआ।''
अब राजा साब ने बेटी जू सें कई- "बेटी जू! अपुन अपुनी सरत बताओ तें हम सब अपुन की सरत पूरी करबे में कछू कोर-कसार नें उठा रखबी।"
अब बेटी जु ने संकुचाते-संकुचाते अपनी सरत बताबे खातिर हिम्मत जुटाई और बोलीं-
"दद्दा जू! हम ऐसें वर सें ब्याह करो चाहत हैं जो चाहे गरीब हो या अमीर, गोरो होय चाए कारो, पढ़ो-लिखो होय चाए अनपढ़, लंगड़ो होय चाए लूलो पै बो बैठ खें उठ्बो नें जानत होय।"
बेटी जू सें ऐंसी अनोखी सरत सुन खें दरबारन खों दिमाग चकरा गओ।
आप राजा साब सोई कछू नें समझ पा रए थे।
मनो राजा साब राजकुँवरि की समझदारी के कायल हते।
सबई दारबारन खों सोच-बिचार में डूबो देख राजा जू नें तुरतई राज घराने कें पुरोहित खें बुला लाबे काजे एक चिठिया ले कें खबास खें भेज दओ।
पंडज्जी और खबास खों आओ देख कें महाराज जू नें एक चिट्ठी दे कें आदेस दओ-
"तुम दोउ जनें देस-बिदेस घूम-घूम खें जा मुनादी कराओ और कौनऊ ऐसे खों पता लगैयों जो बैठ खें उठाबो नें जानत होए।"
तुमें जिते ऐसो कौनऊ जोग बार मिले जो बैठ खें उठ्बो नेब जानत होय, उतई बेटी जू का ब्याह तय कर अइयो।
उतई बेटू जु के ब्याओ काजे फलदान को नारियल धर अइयो।
राजा साब की आज्ञा सुनकें पंडज्जी और खबास दोई जनें देसन-देसन कें राजन लौ गए।
बे हर जगू बिन्तवारी करत गए मनो निरासा हाथ लगत गई।
बे जगूं-जगूं कैत गए "जून राजकुंवर बैठ खें उठ्बो नें जानत होय ओई के संगे अपनी राजकुंवरि का फलदान करबे काजे आये हैं।"
बे जिते-जिते गए, उतई नाहीं को जवाब मिलत गओ।
कहूँ-कहूँ राजा लोग कयें 'जे कैसी अजब सर्त सुनात हो?
राजकुंवरि खें ब्याओ करने हैं कि नई?
पंडज्जी और खबास घूमत-घूमत थक गए।
महीनों पे महीने निकारत गए मनो बात नई बनीं।
सर्त पूरी करबे बारो कौनौ राजकुमार नें मिलो।
आखिरकार बिननें थक-हार कर बापिस होबे को फैसला करो।
आखिरी कोसिस करबे बार बे आखिरी रजा के ढींगे गए।
इतै बी सर्त सुन कें राजदर्बाराब और राजा ने हथियार दार दै।
दोऊ झनें लौटन लगे तबई राजकुमार बाहर सें दरबार में पधारे।
उनने पूरी बात जानबे के बाद रजा साब सें अरज करी-
" महाराज जू! आज लॉन अपने दरबार सें कौनऊ मान्गाबे बारो खली हात नई गओ है।
पुरखों को जस माटी में मिलाए से का फायदा?
अपने देस जाके और रस्ते में जे दोनों जगू-जगू अपन अपजस कहत जैहें।
ऐसें बचबे को एकई तरीको है।
आप जू इन औरन की बात रख लेओ।
आपकी अनुमत होय तो मैं इन राजकुमारी की सर्त पूरी करे के बाद ब्याओ कर सकत।"
जा सुन खें महाराज जू और दरबारी पैले तो संकुचाये कि बे ओरन कछू राह नई निकार पाए।
कम अनुभवी राजकुमार नें रास्ता खोज लओ।
अपनें राजकुमार की होसियारी पे भरोसा करखें महाराज जू नें कई-
" कुंवर जू! अपनी बात पे भरोसा कर खें हम फलदान रख लेंत हैं, मनो हमाओ सर नें झुकइयो।
काये कि सर्त पूरी नें भई तो राजकुमारी मुस्किल में पड़ जैहें।
राज कुमार ने कई "आप हमाओ भरोसा करकें फलदान ले लेओ मगर हमरी सोई एक सर्त है।
अब सबरे दरबारी, रजा, पंडज्जी और खबास चकराए।
अब लौ एकई सर्त पूरीनें हो रई हती, अब एक और सर्त का चक्कर कैसे सुलझेगो?
महाराज नें पूछी तो राजकुमार नें सर्त बताई।
महाराज आप जेई कागज़ पे एक संदेस लिख कें पठा दें।
हमाई सरत है कि राजकुमारी की सरत पूरी करबे के काजे हमाओ राजकुमार तैयार है।
मनो अकेले बे ऊ राजकुमारी सें ब्याओ कर्हें जो परके टरबो नें जानत होय।'
जो राजकुमारी खों जे सर्त स्वीकार होय तो बो अपनी हामी के संगे अपने पिताजू सें फलदान पठा देवें।
राजकुँवर सें हामी भरवाखें पंडज्जी और खवास दोउ जनों ने जान की खैर मनाई।
बे दोनों सारदा मैया की जय कर अपने राज खों लौट चले।
राजा के लिंगा लौट खें पुरोहित नें पूरो हालचाल बताओ।
पुरोहित नें कई "महाराज! हम दोउ जनें कहूँ रुकें बिना दिन-रात दौरतई रए।
पैले एक तरफ सें आगे बढ़े हते।
हौले-हौले देस-बिदेस कें सबई राजा जनों के दरबार में जात गए।
मनो अकेलीं बेटी जू की सर्त पूरी करे काजे कौनऊ राजकुमार नें हामी नई भरी।
हर जगूं सुरु-सुरु में भौत उत्साह सें न्योटा लऔ जात।
मनो सर्त की बात सामने आतेई बिनकों सांप सूंघ जात तो।
आखर में हम दोऊ निरास हो खें अपने परोसी राजा कने गए।
बिनने हुलास सें स्वागत-सत्कार करो।
जैसेई सर्त की बात भई सबकें मूं उतर गए।
राजा और दरबारी तो चुप्पै रए गए।
हम औरन नें सोचीं के खाली हात वापिस होबे के सिवाय कौनौ चारो नईयाँ।
मनो बुजुर्ग ठीकई कै गए हैं मन सोची कबहूँ नई, प्रभु सोची तत्काल।
हमाई बिदाई होते नें होते राजकुंवर जू दरबार में पधार गए।
कुँवर जू ने सारी बात ध्यान सें सुनी, कछू देर सोचो और सर्त के लाने हामी भर दई।
मनों अपनी तरफ सें एक सर्त और धर दई।
एं कौन सी सर्त? कैसी सर्त? महाराज जू नें हडबडा खें पूछी।
बतात हैं महाराज! बा सर्त बी बड़ी बिचित्र है।
कुँवर नें कई के बें ऐसी स्त्री सें ब्याओ करहें जोन पर खें टरबो नईं जानत होय।
नें मानो तो अपुन जू जा कागज़ खों बांच लेओ।
जा कागज में सब कछू लिखा दओ है कुँवर नें।
जा सर्त जान खें महाराज और दरबानी परेसान हते।
कौनौ खें समझ मीन कौनऊ रास्ता नें सूझो।
महाराज ने राजकुँवरी खें बुला भेजो।
बे अपनी सखियाँ खें संगे अमराई में हतीं।
महाराज जू को संदेसा मिलो तो तुरतई दरबार कें लाने चल परीं।
राजकुँवरी ने जुहार कर अपनी जगह पे पधार गईं।
महाराज नें कौनौ भूमिका बनाए बिना पंडज्जी सें कई के बा कागज़ बांच देओ।
पंडत नें राजा कें हुकुम का पालन कर्खें बा कागज़ झट सें बांच दओ।
बामें लिखी सर्त सुन खें राजकुँवरी हौले सें मुसक्या दईं और सरम सें सर झुका लओ।
जा देख खें सबई की जान में जान आई।
महाराज नें पूछी तो राजकुँवरी नें धीरे सें कै दई के बे जा सर्त पूरी कर सकत हैं।
फिर का हती, बिटिया रानी की हामी सुनतई पंडत नें तुरतई रजा जी सें कई 'अब बिलम्ब केहि कारज कीजे ?'
रजा जू पंडत खों मतलब समझ गए और बोले- श्री गनेस जू का ध्यान कर खें मुहूर्त बताओ।
पंडज्जी तो ए ई औसर की तलास में हते।
बिनने झट से पोथा-पत्तर निकारो और मुहूरत बता दओ।
राजा नें महारानी खें बुलाबा भेजो और उन रजामंदी सें संदेश निमंत्रण पत्रिका लिखा दई।
पत्रिका में लिखो हतो के आप जू अपने राजकुंवर की बारात लें खें अमुक तिथि खों पधारें।
कवास खें आदेस दओ के जा पत्रिका राजा साब जू खें धिंगे पौन्चाओ।
खवास तो ऐई मौके की टाक माँ हतो।
जानत तो दोऊ जगू मोटी बखसीस मिलहै।
पत्रिका पहुँचतई दोऊ राजन के महलन में ब्याओ की तैयारियां सुरु हो गईं।
लिपाई-पुताई, चौक पुराई, गाने-बजाने, आबे-जाबे औए मेहमानन के सोर-सराबे से चहल-पहल हो गई।
दसों दिसा में भोर सें साँझ लौ मंगाल गान गूंजन लगे।
जैसेंई ब्याओ की तिथि आई बैसेई राजा जू अपने कुँवर साब खों दुल्हा बना खें पूरे फ़ौज-फांटे के संगे चल परे। समधी की राज में बिनकी खूबई आवभगत भई।
जनवासे में बरात की अगवानी की गई।
बेंड़नी खों नाच देखबे के खातिर लोग उमड़ परे।
बरातियों खों पेट भर जलपान और भोजन कराओ गओ।
जहाँ-तहाँ सहनाई और ढोल-बतासे बजट हते।
बरात की अगवानी भई, पलक पांवड़े बिछा दए गए।
सजी-धजी नारियाँ स्वागत गीत गुंजात तीं।
नाऊ और खवास बरातियन की मालिस करत हते।
ज्योनार कें समै कोकिलकंठों से ज्योनार गीत और गारी सुन-सुन खें बराती खूबई मजा लेत ते।
बरात उठी तो बाकी सोभा कही नें जात ती।
हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल सब अपनी मस्ती में मस्त हते।
ढोल, मंजीरा, ताशा, बिगुल, शहनाई के सँग नाच-गाना की धूम हती।
मंडवा तरे भांवरन की तैयारी होन लगी।
मंडवा तरे राजकुमारी, राजकुमार दूल्हा-दुलहन के काजे रखे पटा पे बिराजे।
दोउ राजा जू, रानीजू, नजीकी रिस्तेदार दास-दासियाँ, पंडज्जी और खवास सबै आस-पास बैठे हते।
बन्ना-बन्नी गीत गूंजत हते।
चारों तरफी हल्ला-गुल्ला, चहल-पहल, उत्साह हतो।
अब जैसेईं तीं भांवरें पड़ चुकीं, बैसेई कन्या पक्ष को पुरोहित खड़ो हो गओ।
वर पक्ष के पंडज्जी सें बोलो 'नेंक रुक जाओ पंडज्जी!
अपुन दोऊ जनन खों मालुम है कै ब्याओ होबे के काजे कछू शर्तें हतीं।
पैले उनका खुलासा हो जावे, तब आगे की भाँवरें पारी जैहें।
फिर बानें कुँवर जू सें कई "कुँवर जू! पैले अपुन बतावें के बेटी जू नें कौन सी सर्त रखी हती?
अपुन जा सोई बताएँ के बा सर्त कब-कैंसें पूरी कर सकत?"
जा बात सुनतेई दुल्हा बने राजकुमार झट सें खड़े हो गए।
बे बोले स्यानन कें बीच में जादा बोलबो ठीक नईयाँ।
अपनी अकल के माफिक मैं जा समझो के राजकुमारी जी ने सर्त रखी हती के बै ऐसो बर चाउत हैं जो बैठ कें उठबो नें जानत होय।
जा सर्त में राजकुमारी जू की जा इच्छा छिपी हती के उनको बर जानकार, अकलमंद, कुल-सीलवान, सुन्दर, औए बलसाली भओ चाही।
ई इच्छा का कारन जे है के कौनऊ सभा में, कौनऊ मुकाबले में ओ खों कौउ हरा नें सकें।
बिद्वान सें बिद्वान जन हों चाए ताकतवर लोग कौनऊ बाखों हरा खें उठा नें पावे।
सबै जगा बाकी जीत को डंका पिटो चाही।
ओके जीतबे से राजकुमारी जू को सर हमेसा ऊँचो रहेगो।
राजकुमारी अपने वर के कारन नीचो नई देखो चाहें।
बे जब चाहे, जैसे चाहें आजमा सकत आंय। "
दूल्हा राजा के चुप होतई पंडज्जी ने राजकुमारी से पूछो- 'काय बिटिया जू! तुमाई सर्त जोई हती के कछू और हती?"
जा सुन कें राजकुमारी नें हामी में सर हिला दओ।
मंडवा कें नीचे बैठे सबई जनें राजकुमार की अकाल की तारीफ कर कें वाह, वाह कै उठे।
जा के बाद राजकुमार को पुरोहित खडो हो गओ।
पुरोहित नें खड़े हो खें कही 'हमाए राजकुमार ने भी एक सर्त रखी हती।
अब राजकुमारी जू बताबें के बा सर्त का हती और बे कैसे पूरी कर सकत हैं?'
ई पै राजकुमारी लाज और संकोच सें गड़ सी गईं, मनो धीरे से सिमट-संकुच कें खड़ी भईं।
कौनऊ और चारा नें रहबे से बिन्ने जमीन को ताकत भए मंडवा के नीचे बैठे बड़ों-बुजुर्गों से अपने बात रखे के काजे आज्ञा माँगी।
आज्ञा मिलबे पर धीमी लेकिन साफ़ आवाज़ में कई 'राजकुँवर की सर्त जा हती के बें ऐसी स्त्री सें ब्याओ करो चाहत हैं जौन पर खें टरबो नईं जानत होय।'
हम सर्त से जा समझें के राजकुमार नम्र और चतुर पत्नी चाहत हैं।
ऐंसी पत्नी जो घरब के सब काम-काज जानत होय।
ऐंसी पत्नी जो कामचोर और आलसी नें होय।
जो घर के सब बड़ों को अपने रूप, गुण, सील और काम-काज सें प्रसन्न रख सके।
ऐसो नें होय के जब दोउ जनें परबे खों जांय तो कछू छूटो काम याद आने से उठनें परे।
ऐसो भी ने होय कि बड़ो-बूढ़ों परबे या उठबे के बाद कौनौ बात की सिकायत करे और घर में कलह हो।
राजकुमार ऐंसी सुघड़ घरबारी चाहत हैं जो कमरा में आ कें परे तो कौनऊ कारन सें उठबो नें जानें।
राजकुमार जब - जैसे चाहें परीक्छा ले लें।
दुल्हन के चुप होतई पुरोहित ने राजकुमार से पूछो- 'काय कुँवर जू! तुमाई सर्त जोई हती के कछू और हती?"
जा सुन कें राजकुमार नें अपनी रजामंदी जता दई।
मंडवा कें नीचे बैठे सबई लोग-लुगाई और सगे-संबंधी ताली बजाओं लगै।
राजकुंवरी और राजकुमार की समझदारी नें सबई खों मन मोह लओ हतो।
पंडज्जी और पुरोहित नें दोऊ पक्षों के सर्त पूरी होबे की मुनादी कर दई।
राजकुँवर मंद-मंद मुसक्या रए हते।
राजकुमारी अपने गोर नाज़ुक पैर के अंगूठे सें गोबर लिपा अँगना कुरेदत हतीं।
उनकें गोरे गालन पे लाली सोभायमान हती।
पंडज्जी और पुरोहित जी ने अगली भांवर परानी सुरु कर दई।
सब जनें भौत खुस भये कि दुल्हा-दुल्हन एक-दूसरे के मनमाफिक आंय।
सबसे ज्यादा खुसी जे बात की हती के दोऊ के मन में धन-संपत्ति और दहेज को लोभ ना हतो।
दोऊ जनें गुन और सील को अधिक महत्व देखें संतोस और एक-दूसरे की पसंद को ख्याल रख कें जीवन गुजारन चाहत ते।
सब जनों ने भांवर पूरी होबे पर दूल्हा-दुल्हिन और उनके बऊ-दद्दा खों खूब मुबारकबाद दई।
इस ब्याव के पैले सबई जन घबरात हते कि "बैठ कें उठबो नें जानन बारो" वर और "पर खें टरबो नईं जानन बारी बहू" कहाँ सें आहें?
असल में कौनऊ इन शर्तों का मतलबई नें समझ पाओ हतो।
आखिर में जब सब राज खुल गओ तो सबनें चैन की सांस लई।
इनसे समझदार मोंड़ा-मोंडी हर घर में होंय जो धन की जगू गुन खों चाहें।
तबई देस और समाज को उद्धार हुइहै।
राजकुमारी और राजकुमार को भए सदियाँ गुजर गईं मनों आज तक होत हैं चर्चे उनकी समझदारी के।
***
एक दोहा
*
हम तो हिंदी के हामी हैं, फूल मिले या धूल
अंग्रेजी को 'सलिल' चुभेंगे, बनकर शूल बबूल
***
छंद बहर का मूल है: ८
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS SIS SIS S / SIS SIS SISS
सूत्र: रररग।
दस वार्णिक पंक्ति जातीय बाला छंद।
सत्रह मात्रिक महासंस्कारी जातीय रामवत छंद।
बहर: फ़ाइलुं फ़ाइलुं फ़ाइलुं फ़े / फ़ाइलुं फ़ाइलुं फ़ाइलातुं ।
*
आप हैं जो, वही तो नहीं हैं
दीखते है वही जो नहीं हैं
*
खोजते हैं खुदी को जहाँ पे
जानते हैं वहाँ तो नहीं हैं
*
जो न बोला वही बोलते हैं
बोलते, बोलते जो नहीं हैं
*
माल को तौलते ही रहे जो
आत्म को तौलते वो नहीं
*
देश शेष क्या? पूछते हैं
देश में शेष क्या जो नहीं हैं
*
आद्म्मी देवता क्या बनेगा?
आदमी आदमी ही नहीं है
*
जोश में होश को खो न देना
देश में जोश हो, क्यों नहीं है?
***
SIS SIS SISS
आपका नूर है आसमानी
गायकी आपकी शादमानी
*
आपका ही रहा बोलबाला
लोच है, सोज़ है रातरानी
*
आसमां छू रहीं भावनाएँ
भ्रांत हों ही नहीं वासनाएँ
*
खूब हालात ने आजमाया
आज हालात को आजमाएँ
*
कोशिशों को मिली कामयाबी
कोशिशें ही सदा काम आएँ
*
आदमी के नहीं पास आएँ
हैं विषैले न वे काट खाएँ
२१.४.२०१७
***
नवगीत:
.
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
कृष्णार्जुन
रणनीति बदल नित
करते हक्का-बक्का.
दुर्योधन-राधेय
मचलकर
लगा रहे हैं छक्का.
शकुनी की
घातक गुगली पर
उड़े तीन स्टंप.
अम्पायर धृतराष्ट्र
कहे 'नो बाल'
लगाकर जंप.
गांधारी ने
स्लिप पर लपका
अपनों का ही कैच.
कर्ण
सूर्य से आँख फेरकर
खोज रहा है छाँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
द्रोणाचार्य
पितामह के सँग
कृष्ण कर रहे फिक्सिंग.
अर्जुन -एकलव्य
आरक्षण
माँग रहे कर मिक्सिंग.
कुंती
द्रुपदसुता लगवातीं
निज घर में ही आग.
राधा-रुक्मिणी
को मन भाये
खूब कालिया नाग.
हलधर को
आरक्षण देकर
कंस सराहे भाग.
गूँज रही है
यमुना तट पर
अब कौओं की काँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
मठ, मस्जिद,
गिरिजा में होता
श्रृद्धा-शोषण खूब.
लंगड़ा चढ़े
हिमालय कैसे
रूप-रंग में डूब.
बोतल नयी
पुरानी मदिरा
गंगाजल का नाम.
करो आचमन
अम्पायर को
मिला गुप्त पैगाम.
घुली कूप में
भाँग रहे फिर
कैसे किसको होश.
शहर
छिप रहा आकर
खुद से हार-हार कर गाँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
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नवगीत:
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बदलावों से क्यों भय खाते?
क्यों न
हाथ, दिल, नजर मिलाते??
.
पल-पल रही बदलती दुनिया
दादी हो जाती है मुनिया
सात दशक पहले का तेवर
हो न प्राण से प्यारा जेवर
जैसा भी है सैंया प्यारा
अधिक दुलारा क्यों हो देवर?
दे वर शारद! नित्य नया रच
भले अप्रिय हो लेकिन कह सच
तव चरणों पर पुष्प चढ़ाऊँ
बात सरलतम कर कह जाऊँ
अलगावों के राग न भाते
क्यों न
साथ मिल फाग सुनाते?
.
भाषा-गीत न जड़ हो सकता
दस्तरखान न फड़ हो सकता
नद-प्रवाह में नयी लहरिया
आती-जाती सास-बहुरिया
दिखें एक से चंदा-तारे
रहें बदलते सूरज-धरती
धरती कब गठरी में बाँधे
धूप-चाँदनी, धरकर काँधे?
ठहरा पवन कभी क्या बोलो?
तुम ठहरावों को क्यों तोलो?
भटकावों को क्यों दुलराते?
क्यों न
कलेवर नव दे जाते?
.
जितने मुँह हैं उतनी बातें
जितने दिन हैं, उतनी रातें
एक रंग में रँगी सृष्टि कब?
सिर्फ तिमिर ही लखे दृष्टि जब
तब जलते दीपक बुझ जाते
ढाई आखर मन भरमाते
भर माते कैसे दे झोली
दिल छूती जब रहे न बोली
सिर्फ दिमागों की बातें कब
जन को भाती हैं घातें कब?
अटकावों को क्यों अपनाते?
क्यों न
पथिक नव पथ अपनाते?
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२१.४.२०१५
छंद सलिला:
हेमंत छंद
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छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण), यति बंधन नहीं।
लक्षण छंद:
बीस-बीस दिनों सूर्य दिख नहीं रहा
बदन कँपे गुरु लघु गुरु दिख नहीं रहा
यति भाये गति मन को लग रही सजा
ओढ़ ली रजाई तो आ गया मजा
उदाहरण:
१. रंग से रँग रही झूमकर होलिका
छिप रही गुटककर भांग की गोलिका
आयी ऐसी हँसी रुकती ही नहीं
कौन कैसे कहे क्या गलत, क्या सही?
२. देख ऋतुराज को आम बौरा गया
रूठ गौरा गयीं काल बौरा गया
काम निष्काम का काम कैसे करे?
प्रीत को यादकर भीत दौरा गया
३.नाद अनहद हुआ, घोर रव था भरा
ध्वनि तरंगों से बना कण था खरा
कण से कण मिल नये कण बन छा गये
भार-द्रव्यमान पा नव कथा गा गये
सृष्टि रचना हुई, काल-दिशाएँ बनीं
एक डमरू बजा, एक बाँसुरी बजी
नभ-धरा मध्य थी वायु सनसनाती
सूर्य-चंदा सजे, चाँदनी लुभाती
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(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
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दोहे का रंग - अंगिका के संग:
(अंगिका बिहार के अंग जनपद की भाषा, हिन्दी का एक लोक भाषिक रूप)
काल बुलैले केकरs, होतै कौन हलाल?
मौन अराधे दैव कै, ऐतै प्रातः काल..
मौज मनैतै रात-दिन, होलै की कंगाल.
साथ न आवै छाँह भी, आगे कौन हवाल?.
एक-एक के खींचतै, बाल-पकड़ लै खाल.
नीन नै आवै रात भर, पलकें करैं सवाल..
मुक्तक
दर्पण में जिसको देखा वह बिम्ब मात्र था।
और उजाले में केवल साया पाया।।
जब-जब बाहर देखा तो पाया मैं हूँ।
जब-कब भीतर झाँका तो उसको पाया।।
२१-४-२०१०
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