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मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २८, गुलाब, शे'र, नीराजना छंद, नैरंतरी काव्य, कुंडलिया,भाषा, कविता,

सलिल सृजन अक्टूबर २८
*
पूर्णिका
गुलाब

तेरे चेहरे की आब हो जाऊँ
मैं महकता गुलाब हो जाऊँ
आस कलिका है, प्यास भँवरा है
मूँद पलकें तो ख्वाब हो जाऊँ
खुले जब आँख तो पढ़े दिन भर
तेरे हाथों किताब हो जाऊँ
भीख मुझको मिले मेरे मौला
इश्क की तो नवाब हो जाऊँ
तेरी आँखें सवाल जो भी करें
मैं ही उसका जवाब हो जाऊँ
साँस की साहूकार तू गर हो
तो बही का हिसाब हो जाऊँ
रूप अपना निखार ले आकर
आज दरिया चनाब हो जाऊँ
हुस्न तुझको अता खुदा ने किया
क्यों न तेरा शबाब हो जाऊँ
लबे नाज़ुक पिएँ दो घूँट अगर
आबे जमजम शराब हो जाऊँ
लल्लोचप्पो न तू समझ इसको
गीत! लब्बोलुआब हो जाऊँ
•••
एक काव्य पत्र
जो मेरा है सो तेरा है
बस चार दिनों का फेरा
सब यहीं छोड़कर जाना है
प्रभु पग ही अपना डेरा है
शन्नो जी! जो भी मन भाए
मिल काव्य कलश रस पी पाए
इस मधुशाला में सब अपने
भुज भेंटे जब जो मन भाए
शेयर है मगर न मोल यहाँ
पीटें आनंदित ढोल यहाँ
करिए करिए शेयर करिए
कविता-पाठक पेयर करिए
लें धन्यवाद, आभार आप
खुश सुख को सका न कोई माप
जय हिंद आपकी जय जय हो
हिंदी जग बोले निर्भय हो
***
एक मिसरा : चंद शे'र

अँजुरी भरी गुलाब की, कर दी उसके नाम।
अलस्सुबह जिसने दिया, शुभ प्रभात पैगाम।।

अँजुरी भरी गुलाब की, अर्पित उसके नाम।
लिए बिना लेते रहे, जो लब मेरा नाम।।

अँजुरी भरी गुलाब की, हाय! न जाए सूख।
प्रिये! इन्हें स्वीकार लो, मिटा प्रणय की भूख।।

अँजुरी भरे गुलाब की, ले लो मेरे राम।
केवट-गुह के घर चलो, या शबरी के ग्राम।।

अँजुरी भरी गुलाब की, भेजी है दिल हार।
उसे न भाई चाहती, जो नौलखिया हार।।

अँजुरी भरी गुलाब की, कुछ बेला के फूल।
देख याद तुम आईं फिर, चुभे हृदय में शूल

अँजुरी भरी गुलाब की, खत है उसके नाम।
सूखी कली गुलाब की, जो चूमे हर शाम।।

अँजुरी भरी गुलाब की, भँवरे की लय-तान।
कली-तितलियों के लिए, सहित स्नेह-सम मान।।
२८.१०.२०२४
•••
चिंतन
सब प्रभु की संतान हैं, कोऊ ऊँच न नीच
*
'ब्रह्मम् जानाति सः ब्राह्मण:' जो ब्रह्म जानता है वह ब्राह्मण है। ब्रह्म सृष्टि कर्ता हैं। कण-कण में उसका वास है। इस नाते जो कण-कण में ब्रह्म की प्रतीति कर सकता हो वह ब्राह्मण है। स्पष्ट है कि ब्राह्मण होना कर्म और योग्यता पर निर्भर है, जन्म पर नहीं। 'जन्मना जायते शूद्र:' के अनुसार जन्म से सभी शूद्र हैं। सकल सृष्टि ब्रह्ममय है, इस नाते सबको सहोदर माने, कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान को देखे, सबसे समानता का व्यवहार करे, वह ब्राह्मण है। जो इन मूल्यों की रक्षा करे, वह क्षत्रिय है, जो सृष्टि-रक्षार्थ आदान-प्रदान करे, वह वैश्य है और जो इस हेतु अपनी सेवा समर्पित कर उसका मोल ले-ले वह शूद्र है। जो प्राणी या जीव ब्रह्मा की सृष्टि निजी स्वार्थ / संचय के लिए नष्ट करे, औरों को अकारण कष्ट दे वह असुर या राक्षस है।
व्यावहारिक अर्थ में बुद्धिजीवी वैज्ञानिक, शिक्षक, अभियंता, चिकित्सक आदि ब्राह्मण, प्रशासक, सैन्य, अर्ध सैन्य बल आदि क्षत्रिय, उद्योगपति, व्यापारी आदि वैश्य तथा इनकी सेवा व सफाई कर रहे जन शूद्र हैं। सृष्टि को मानव शरीर के रूपक समझाते हुए इन्हें क्रमशः सिर, भुजा, उदर व् पैर कहा गया है। इससे इतर भी कुछ कहा गया है। राजा इन चारों में सम्मिलित नहीं है, वह ईश्वरीय प्रतिनिधि या ब्रह्मा है। राज्य-प्रशासन में सहायक वर्ग कार्यस्थ (कायस्थ नहीं) है। कायस्थ वह है जिसकी काया में ब्रम्हांश जो निराकार है, जिसका चित्र गुप्त है, आत्मा रूप स्थित है।
'चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्व देहिनाम्।', 'कायस्थित: स: कायस्थ:' से यही अभिप्रेत है। पौरोहित्य कर्म एक व्यवसाय है, जिसका ब्राह्मण होने न होने से कोई संबंध नहीं है। ब्रह्म के लिए चारों वर्ण समान हैं, कोई ऊँचा या नीचा नहीं है। जन्मना ब्राह्मण सर्वोच्च या श्रेष्ठ नहीं है। वह अत्याचारी हो तो असुर, राक्षस, दैत्य, दानव कहा गया है और उसका वध खुद विष्णु जी ने किया है। गीता रहस्य में लोकमान्य टिळक जो खुद ब्राह्मण थे, ने लिखा है -
गुरुं वा बाल वृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतं
आततायी नमायान्तं हन्या देवाविचारयं
ब्राह्मण द्वारा खुद को श्रेष्ठ बताना, अन्य वर्णों की कन्या हेतु खुद पात्र बताना और अन्य वर्गों को ब्राह्मण कन्या हेतु अपात्र मानना, हर पाप (अपराध) का दंड ब्राह्मण को दान बताने दुष्परिणाम सामाजिक कटुता और द्वेष के रूप में हुआ।
२८.१०.१०१९
***
हिंदी के नए छंद १८
नीराजना छंद
*
लक्षण:
१. प्रति पंक्ति २१ मात्रा।
२. पदादि गुरु।
३. पदांत गुरु गुरु लघु गुरु।
४. यति ११ - १०।
लक्षण छंद:
एक - एक मनुपुत्र, साथ जीतें सदा।
आदि रहें गुरुदेव, न तब हो आपदा।।
हो तगणी गुरु अंत, छंद नीरजना।
मुग्ध हुए रजनीश, चंद्रिका नाचना।।
टीप:
एक - एक = ११, मनु पुत्र = १० (इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट,
धृष्ट, करुषय, नरिष्यन्त, प्रवध्र, नाभाग, कवि भागवत)
उदाहरण:
कामदेव - रति साथ, लिए नीराजना।
संयम हो निर्मूल, न करता याचना।।
हो संतुलन विराग - राग में साध्य है।
तोड़े सीमा मनुज, नहीं आराध्य है।।
२८-१०-२०१७
***
कविता:
सफाई
मैंने देखा सपना एक
उठा तुरत आलस को फेंक
बीजेपी ने कांग्रेस के
दरवाज़े पर करी सफाई
नीतीश ने भगवा कपड़ों का
गट्ठर ले करी धुलाई
माया झाड़ू लिए
मुलायम की राहों से बीनें काँटे
और मुलायम ममतामय हो
लगा रहे फतवों को चाँटे
जयललिता की देख दुर्दशा
करुणा-भर करूणानिधि रोयें
अब्दुल्ला श्रद्धा-सुमनों की
अवध पहुँच कर खेती बोयें
गज़ब! सोनिया ने
मनमोहन को
मन मंदिर में बैठाया
जन्म अष्टमी पर
गिरिधर का सोहर
सबको झूम सुनाया
स्वामी जी को गिरिजाघर में
प्रेयर करते हमने देखा
और शंकराचार्य मिले
मस्जिद में करते सबकी सेवा
मिले सिक्ख भाई कृपाण से
खापों के फैसले मिटाते
बम्बइया निर्देशक देखे
यौवन को कपड़े पहनाते
डॉक्टर और वकील छोड़कर फीस
काम जल्दी निबटाते
न्यायाधीश एक पेशी में
केसों का फैसला सुनाते
थानेदार सड़क पर मंत्री जी का
था चालान कर रहा
बिना जेब के कपड़े पहने
टी. सी. बरतें बाँट हँस रहा
आर. टी. ओ. लाइसेंस दे रहा
बिन दलाल के सच्ची मानो
अगर देखना ऐसा सपना
चद्दर ओढ़ो लम्बी तानो
***
नैरंतरी काव्य
बचपन बोले: उठ मत सो ले
उठ मत सो ले, सपने बो ले
सपने बो ले, अरमां तोले
अरमां तोले, जगकर भोले
जगकर भोले, मत बन शोले
मत बन शोले, बचपन बोले
*
अपनी भाषा मत बिसराओ, अपने स्वर में भी कुछ गाओ
अपने स्वर में भी कुछ गाओ, दिल की बातें तनिक बताओ
दिल की बातें तनिक बताओ, बाँहों में भर गले लगाओ
बाँहों में भर गले लगाओ, आपस की दूरियाँ मिटाओ
आपस की दूरियाँ मिटाओ, अँगुली बँध मुट्ठी हो जाओ
अँगुली बँध मुट्ठी हो जाओ, अपनी भाषा मत बिसराओ
२८-१०-२०१४
***
: कुंडलिया :
प्रथम पेट पूजा करें
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प्रथम पेट पूजा करें, लक्ष्मी-पूजन बाद
मुँह में पानी आ रहा, सोच मिले कब स्वाद
सोच मिले कब स्वाद, भोग पहले खुद खा ले
दास राम का अधिक, राम से यह दिखला दे
कहे 'सलिल' कविराय, न चूकेंगे अवसर हम
बन घोटाला वीर, लगायें भोग खुद प्रथम
२८-१०-२०१३

***

सोमवार, 27 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २७, करवा चौथ, मुक्तक, ताजमहल, लघुकथा, चित्रगुप्त, गीत, दोहा,नैरंतर्य छंद

सलिल सृजन अक्टूबर २७
*
भोर उठिए सुमिर प्रभु को, दोपहर में काम कर।
साँझ सुख-संतोष पा ले, रात सो शुभ स्वप्न धर।।
गीत
जीवन जी ले धीरज धरकर
सुख-दुख से मत भाग रे!
ना हो अतिशय भोग-विलासी
और न सब कुछ त्याग रे!
जो जैसा है प्रभु की माया,
काया पर ईश्वर की छाया।
कर्म किया परिणाम भोग ले,
घटे नहीं अनुराग रे!
चित्र गुप्त होता है प्रभु का,
नाहक दे आकार तू।
कर्मकांड भरमाते तुझको,
सच को बना सुहाग रे!
धर्म नंदिनी श्वास-श्वास हो,
शुभावती हर आस हो।
शिव हरि रवि राशि बारह सम,
बन जलने दे आग रे!
२७.१०.२०२४
•••
एक रचना
*
दिल जलता है तो जलने दे, दीवाली है
आँसू न बहा फरियाद न कर, दीवाली है
दीपक-बाती में नाता क्या लालू पूछे
चुप घरवाला है, चपल मुखर घरवाली है
फिर तेल धार क्या लगी तनिक यह बतलाओ
यह दाल-भात में मूसल रसमय साली है
जो बेच-खरीद रहे उनको समधी जानो
जो जला रही तीली सरहज मतवाली है
सासू याद करे अपने दिन मुस्काकर
साला बोला हाथ लगी हम्माली है
सखी-सहेली हवा छेड़ती जीजू को
भभक रही लौ लाल न जाए सँभाली है
दिल जलता है तो जलने दे दीवाली है
आँसू न बहा फरियाद न कर दीवाली है
२७-१०-२०१९
***
करवा चौथ
*
अर्चना कर सत्य की, शिव-साधना सुन्दर करें।
जग चलें गिर उठ बढ़ें, आराधना तम हर करें।।
*
कौन किसका है यहाँ?, छाया न देती साथ है।
मोह-माया कम रहे, श्रम-त्याग को सहचर करें।।
*
एक मालिक है वही, जिसने हमें पैदा किया।
मुक्त होकर अहं से, निज चित्त प्रभु-चाकर करें।।
*
वरे अक्षर निरक्षर, तब शब्द कविता से मिले।
भाव-रस-लय त्रिवेणी, अवगाह चित अनुचर करें।।
*
पूर्णिमा की चंद्र-छवि, निर्मल 'सलिल में निरखकर।
कुछ रचें; कुछ सुन-सुना, निज आत्म को मधुकर करें।।
करवा चौथ २७-१०-२०१८
***
मुक्तक
*
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
यह स्वाभाविक है, स्मृतियाँ बिन बिछड़े होती नहीं प्रबल
क्यों दोष किसी को दें हम-तुम, जो साथ उसे कब याद किया?
बिन शीश कटाये बना रहे, नेता खुद अपने शीशमहल
*
जीवन में हुआ न मूल्यांकन, शिव को भी पीना पड़ा गरल
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
यह दुनिया पत्थर को पूजे, सम्प्राणित को ठुकराती है
जो सचल पूजता हाथ जोड़ उसको जो निष्ठुर अटल-अचल
*
कविता होती तब सरस-सरल, जब भाव निहित हों सहज-तरल
मन से मन तक रच सेतु सबल, हों शब्द-शब्द मुखरित अविचल
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
हँस रूपक बिम्ब प्रतीकों में, रस धार बहा करती अविकल
*
जन-भाषा हिंदी की जय-जय, चिरजीवी हो हिंदी पिंगल
सुरवाणी प्राकृत पाली बृज, कन्नौजी अपभ्रंशी डिंगल
इतिहास यही बतलाता है, जो सम्मुख वह अनदेखा हो
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
*
दोहा सलिला -
नेह नर्मदा सलिल ही, पा नयनों का गेह
प्रवहित होता अश्रु बन, होती देह विदेह
*
स्नेह-सलिल की लहर सम, बहिये जी भर मीत
कूल न तोड़ें बाढ़ बन, यह जीवन की रीत
*
मिले प्रेरणा तो बने, दोहा गीत तुरंत
सदा सदय माँ शारदा, साक्षी दिशा-दिगंतदोहा
२७-१०-२०१६
***
लघुकथा:
प्यार के नाम
*
पलट रहा हूँ फेसबुक आउट वाट्स ऐप के पन्ने, कहीं गीत-ग़ज़ल है, कहीं शेरो-शायरी, कहीं किस्से-कहानी, कहीं कहीं मदमस्त अदायें और चुलबुले कमेंट्स, लिव इन की खबरें, सबका दावा है कि वे उनका जीवन है सिर्फ प्यार के नाम.…
तलाश कर थक गया लेकिन नहीं मिला कोई भजन, प्रार्थना, सबद, अरदास, हम्द, नात, प्रेयर उसके नाम जिसने बनाई है यह कायनात, जो पूरी करता है सबकी मुरादें, कहें नहीं है चंद सतरें-कोई पैगाम उसके प्यार के नाम।
***
मुक्तक:
जुदा-जुदा किस्से हैं अपने
जुदा-जुदा हिस्से हैं अपने
पीड़ा सबकी एक रही है-
जुदा-जुदा सपने हैं अपने
*
कौन किसको प्यार कर पाया यहाँ?
कौन किससे प्यारा पा पाया यहाँ?
अपने सुर में बात अपनी कह रहे-
कौन सबकी बात कर पाया यहाँ?
*
अक्षर-अक्षर अलग रहा तो कह न सका कुछ
शब्द-शब्द से विलग रहा तो सह न सका कुछ
अक्षर-शब्द मिले तो मैं-तुम से हम होकर
नहीं कह सका ऐसा बाकी नहीं रहा कुछ
२७-१०-२०१५
***
नवगीत:
चित्रगुप्त को
पूज रहे हैं
गुप्त चित्र
आकार नहीं
होता है
साकार वही
कथा कही
आधार नहीं
बुद्धिपूर्ण
आचार नहीं
बिन समझे
हल बूझ रहे हैं
कलम उठाये
उलटा हाथ
भू पर वे हैं
जिनका नाथ
खुद को प्रभु के
जोड़ा साथ
फल यह कोई
नवाए न माथ
खुद से खुद ही
जूझ रहे हैं
पड़ी समय की
बेहद मार
फिर भी
आया नहीं सुधार
अकल अजीर्ण
हुए बेज़ार
नव पीढ़ी का
बंटाधार
हल न कहीं भी
सूझ रहे हैं
***
नवगीत:
ऐसा कैसा
पर्व मनाया ?
मनुज सभ्य है
करते दावा
बोल रहे
कुदरत पर धावा
कोई काम
न करते सादा
करते कभी
न पूरा वादा
अवसर पाकर
स्वार्थ भुनाया
धुआँ, धूल
कचरा फैलाते
हल्ला-गुल्ला
शोर मचाते
आज पूज
कल फेकें प्रतिमा
समझें नहीं
ईश की गरिमा
अपनों को ही
किया पराया
धनवानों ने
किया प्रदर्शन
लंघन करता
भूखा-निर्धन
फूट रहे हैं
सरहद पर बम
नहीं किसी को
थोड़ा भी गम
तजी सफाई
किया सफाया
***
नैरंतर्य छंद
रात जा रही, उषा आ रही
उषा आ रही, प्रात ला रही
प्रात ला रही, गीत गा रही
गीत गा रही, मीत भा रही
मीत भा रही, जीत पा रही
जीत पा रही, रात आ रही
गुप-चुप डोलो, राज न खोलो
राज न खोलो, सच मत तोलो
सच मत तोलो,मन तुम सो लो
मन तुम सो लो, नव रस घोलो
नव रस घोलो, घर जा सो लो
घर जा सो लो, गुप-चुप डोलो
***
दोहा सलिला :
कथ्य भाव रस छंद लय, पंच तत्व की खान
पड़े कान में ह्रदय छू, काव्य करे संप्राण
मिलने हम मिल में गये, मिल न सके दिल साथ
हमदम मिले मशीन बन, रहे हाथ में हाथ
हिल-मिलकर हम खुश रहें, दोनों बने अमीर
मिल-जुलकर हँस जोर से, महका सकें समीर.
मन दर्पण में देख रे!, दिख जायेगा अक्स
वो जिससे तू दूर है, पर जिसका बरअक्स
जिस देहरी ने जन्म से, अब तक करी सम्हार
छोड़ चली मैं अब उसे, भला करे करतार
माटी माटी में मिले, माटी को स्वीकार
माटी माटी से मिले, माटी ले आकार
मैं ना हूँ तो तू रहे, दोनों मिट हों हम
मैना - कोयल मिल गले, कभी मिटायें गम
२७-१०-२०१४

*** 

रविवार, 26 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २६, सॉनेट, हाइकु गीत, राम, प्रतीप अलंकार, नैरंतरी छंद, शरत्पूर्णिमा, चाँद

 सलिल सृजन अक्टूबर २६

*
पूर्णिका
दुनिया भले हो हिसाबी
कुदरत नहीं है हिजाबी
बिन पिए ही रहा झूम मैं
मिले नैन जब से गुलाबी
भँवरा रहा गुनगुना बाग में
दुनिया समझती शराबी
काँटों की संगत सुहाए
देखो कली की नवाबी
शबनम सहेली सुहाए
रंगत कई हर शबाबी
पैगाम लाएँ तितलियाँ
लेतीं सँदेशा जवाबी
ताला लगा पाए माली
बनी ही नहीं है वो चाबी
२६.१०.२०२४
•••
सॉनेट
बैठ चाँद पर
बैठ चाँद पर धरा देखकर व्रत तोड़ेंगी
कथा कहेंगी सात भाई इक बहिना वाली
कैसे बिगड़ी बात, किस तरह पुनः बना ली
सात जन्म तक पति का पीछा नहिं छोड़ेंगी
शरत्पूर्णिमा पर धारा उल्टी मोड़ेंगी
वसुधा की किरणों में रखें खीर की प्याली
धरा बुआ दिखलाएँ जसोदा धरकर थाली
बाल कृष्ण को बहला-समझा खुश हो लेंगी।
उल्टी गंगा बहे चाँद पर, धरती निरखें
कैसे छू लें धरा? सोच शशि- मानव तरसें
उस कक्षा से इस कक्षा में आकर हरषें
अभियंता-वैज्ञानिक कर नव खोजें परखें
सुमिर सुमिर मंगल-यात्रा को नैना बरसें
रवि की रूप छटाएँ मन को मन आकरषें।
२६.१०.२०२३
•••
अभिनव प्रयोग
राम
हाइकु गीत
(छंद वार्णिक, ५-७-५)
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बल बनिए
निर्बल का तब ही
मिले प्रणाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सुख तजिए / निर्बल की खातिर / दुःख सहिए।
मत डरिए / विपदा - आपद से / हँस लड़िए।।
सँग रहिए
निषाद, शबरी के
सुबहो-शाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
मार ताड़का / खर-दूषण वध / लड़ करिए।
तार अहल्या / उचित नीति पथ / पर चलिए।।
विवश रहे
सुग्रीव-विभीषण
कर लें थाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सिय-हर्ता के / प्राण हरण कर / जग पुजिए।
आस पूर्ण हो / भरत-अवध की / नृप बनिए।।
त्रय माता, चौ
बहिन-बंधु, जन
जिएँ अकाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
२६-१०२०२२
***
अलंकार सलिला: २५
प्रतीप अलंकार
*
अलंकार में जब खींचे, 'सलिल' व्यंग की रेख.
चमत्कार सादृश्य का, लें प्रतीप में देख..
उपमा, अनन्वय तथा संदेह अलंकार की तरह प्रतीप अलंकार में भी सादृश्य का चमत्कार रहता है, अंतर यह है कि उपमा की अपेक्षा इसमें उल्टा रूप दिखाया जाता है। यह व्यंग पर आधारित सादृश्यमूलक अलंकार है। प्रसिद्ध उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान सिद्ध कर चमत्कारपूर्वक उपमेय या उपमान की उत्कृष्टता दिखाये जाने पर प्रतीप अलंकार होता है।जब उपमेय के समक्ष उपमान का तिरस्कार किया जाता है तो प्रतीप अलंकार होता है।
प्रतीप अलंकार के ५ प्रकार हैं।
उदाहरण-
१. प्रथम प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में वर्णित किया जाता है अर्थात उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान बनाकर।
उदाहरण-
१. यह मयंक तव मुख सम मोहन
२. है दाँतों की झलक मुझको दीखती दाडिमों में.
बिम्बाओं में पर अधर सी राजती लालिमा है.
मैं केलों में जघन युग की देखती मंजुता हूँ.
गुल्फों की सी ललित सुखमा है गुलों में दिखाती
३. वधिक सदृश नेता मुए, निबल गाय सम लोग
कहें छुरी-तरबूज या, शूल-फूल संयोग?
२. द्वितीय प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को अपेक्षाकृत हीन उपमेय कल्पित कर वास्तविक उपमेय का निरादर किया जाता है।
उदाहरण-
१. नृप-प्रताप सम सूर्य है, जस सम सोहत चंद
२. का घूँघट मुख मूँदहु नवला नारि.
चाँद सरग पर सोहत एहि अनुसारि
३. बगुला जैसे भक्त भी, धारे मन में धैर्य
बदला लेना ठनकर, दिखलाते निर्वैर्य
3. तृतीय प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय के आगे निरादर होता है।
उदाहरण-
१. काहे करत गुमान मुख?, तुम सम मंजू मयंक
२. मृगियों ने दृग मूँद लिए दृग देख सिया के बांके.
गमन देखि हंसी ने छोडा चलना चाल बनाके.
जातरूप सा रूप देखकर चंपक भी कुम्हलाये.
देख सिया को गर्वीले वनवासी बहुत लजाये.
३. अभिनेत्री के वसन देख निर्वासन साधु शरमाये
हाव-भाव देखें छिप वैश्या, पार न इनसे पाये
४. चतुर्थ प्रतीप:
जहाँ उपमेय की बराबरी में उपमान नहीं तुल/ठहर पाता है, वहाँ चतुर्थ प्रतीप होता है।
उदाहरण-
१. काहे करत गुमान ससि! तव समान मुख-मंजु।
२. बीच-बीच में पुष्प गुंथे किन्तु तो भी बंधहीन
लहराते केश जाल जलद श्याम से क्या कभी?
समता कर सकता है
नील नभ तडित्तारकों चित्र ले?
३. बोली वह पूछा तो तुमने शुभे चाहती हो तुम क्या?
इन दसनों-अधरों के आगे क्या मुक्ता हैं विद्रुम क्या?
४. अफसर करते गर्व क्यों, देश गढ़ें मजदूर?
सात्विक साध्वी से डरे, देवराज की हूर
५. पंचम प्रतीप:
जहाँ उपमान का कार्य करने के लिए उपमेय ही पर्याप्त होता है और उपमान का महत्व और उपयोगिता व्यर्थ हो जाती है, वहाँ पंचम प्रतीप होता है।
उदाहरण-
१. का सरवर तेहि देऊँ मयंकू
२. अमिय झरत चहुँ ओर से, नयन ताप हरि लेत.
राधा जू को बदन अस चन्द्र उदय केहि हेत..
३. छाह करे छितिमंडल में सब ऊपर यों मतिराम भए हैं.
पानिय को सरसावत हैं सिगरे जग के मिटि ताप गए हैं.
भूमि पुरंदर भाऊ के हाथ पयोदन ही के सुकाज ठये हैं.
पंथिन के पथ रोकिबे को घने वारिद वृन्द वृथा उनए हैं.
४. क्यों आया रे दशानन!, शिव सम्मुख ले क्रोध
पाँव अँगूठे से दबा, तब पाया सत-बोध
२८-१०-२०१५
***
नैरंतरी छंद
रात जा रही, उषा आ रही
उषा आ रही, प्रात ला रही
प्रात ला रही, गीत गा रही
गीत गा रही, मीत भा रही
मीत भा रही, जीत पा रही
जीत पा रही, रात आ रही
गुप-चुप डोलो, राज न खोलो
राज न खोलो, सच मत तोलो
सच मत तोलो,मन तुम सो लो
मन तुम सो लो, नव रस घोलो
नव रस घोलो, घर जा सो लो
घर जा सो लो, गुप-चुप डोलो
२६-१०-२०१४
***

शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

वर्षा, सॉनेट, शेक्सपियर, मिल्टन, सलिल

सॉनेट

बारिश तुम फिर

१.

बारिश तुम फिर रूठ गई हो।

तरस रहा जग होकर प्यासा।

दुबराया ज्यों शिशु अठमासा।।

मुरझाई हो ठूठ गई हो।।

कुएँ-बावली बिलकुल खाली।

नेह नर्मदा नीर नहीं है।

बेकल मन में धीर नहीं है।।

मुँह फेरे राधा-वनमाली।।

दादुर बैठे हैं मुँह सिलकर।

अंकुर मरते हैं तिल-तिलकर।

झींगुर संग नहीं हिल-मिलकर।

बीरबहूटी हुई लापता।

गर्मी सबको रही है सता।

जंगल काटे, मनुज की खता।।

*

२.

मान गई हो, बारिश तुम फिर।

सदा सुहागिन सी हरियाईं।

मेघ घटाएँ नाचें घिर-घिर।।

बरसीं मंद-मंद हर्षाईं।।

आसमान में बिजली चमकी।

मन भाई आधी घरवाली।

गिरी जोर से बिजली तड़की।।

भड़क हुई शोला घरवाली।।

तन्वंगी भीगी दिल मचले।

कनक कामिनी देह सुचिक्कन।

दृष्टि न ठहरे, मचले-फिसले।।

अनगिन सपने देखे साजन।।

सुलग गई हो बारिश तुम फिर।

पिघल गई हो बारिश तुम फिर।।

*

३.

क्रुद्ध हुई हो बारिश तुम फिर।

सघन अँधेरा आया घिर घिर।।

बरस रही हो, गरज-मचल कर।

ठाना रख दो थस-नहस कर।।

पर्वत ढहते, धरती कंपित।

नदियाँ उफनाई हो शापित।।

पवन हो गया क्या उन्मादित?

जीव-जंतु-मनु होते कंपित।।

प्रलय न लाओ, कहर न ढाओ।

रूद्र सुता हे! कुछ सुस्ताओ।।

थोड़ा हरषो, थोड़ा बरसो।

जीवन विकसे, थोड़ा सरसो।।

भ्रांत न हो हे बारिश! तुम फिर।

शांत रही हे बारिश! हँस फिर।।

३०-१०-२०२२

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